आमरी अस्पताल अग्निकांड के सात साल: गुज़रते वक़्त के साथ धुंधली होती न्याय की उम्मीद

ग्राउंड रिपोर्ट: साल 2011 में 9 दिसंबर की सुबह कोलकाता के बड़े निजी अस्पतालों में से एक आमरी अस्पताल में लगी आग में 92 मरीज़ों की जान चली गई थी. पिछले सात सालों से चली आ रही क़ानूनी प्रक्रिया इस अग्निकांड के पीड़ित परिवारों को निराश कर रही है.

धनंजय पाल ने आमरी अस्पताल में सात पहले लगी आग में अपनी 15 साल की बेटी को खो चुके हैं. (फोटो: उमेश कुमार राय/द वायर)

ग्राउंड रिपोर्ट: साल 2011 में 9 दिसंबर की सुबह कोलकाता के बड़े निजी अस्पतालों में से एक आमरी अस्पताल में लगी आग में 92 मरीज़ों की जान चली गई थी. पिछले सात सालों से चली आ रही क़ानूनी प्रक्रिया इस अग्निकांड के पीड़ित परिवारों को निराश कर रही है.

धनंजय पाल ने आमरी अस्पताल में सात पहले लगी आग में अपनी 15 साल की बेटी को खो चुके हैं. (फोटो: उमेश कुमार राय/द वायर)
धनंजय पाल ने आमरी अस्पताल में सात पहले लगी आग में अपनी 15 साल की बेटी को खो चुके हैं. (फोटो: उमेश कुमार राय/द वायर)

कोलकाता/हावड़ा (पश्चिम बंगाल): पिछले सात सालों में शायद ही कोई ऐसा मौका आया होगा, जब 49 वर्षीय धनंजय पाल आमरी अस्पताल अग्निकांड की सुनवाई के दौरान कोर्ट रूम में मौजूद नहीं रहे होंगे.

वह बांकुड़ा के जयरामबाटी में रहते हैं और वहां से कोलकाता स्थित डिस्ट्रिक्ट सिविल एंड सेशंस कोर्ट तक आने में क़रीब छह घंटे लग जाते हैं.

बीते छह दिसंबर को हुई सुनवाई में भी वह कोर्ट में उपस्थित थे. क़रीब घंटे भर चली इस सुनवाई में गवाह के तौर पर तीन पुलिस कर्मचारियों के बयान दर्ज किए गए. इन पुलिसकर्मियों ने आग लगने के बाद कोलकाता स्थित आमरी अस्पताल की तस्वीरें ली थीं.

तीनों पुलिसकर्मियों ने कुल 20 तस्वीरें कोर्ट में पेश कीं. मामले की अगली सुनवाई 20 दिसंबर को मुक़र्रर थी, लेकिन आरोपियों की तरफ़ से सीनियर वकीलों की ग़ैरमौजूदगी का हवाला देकर सुनवाई टालने का आवेदन दिया गया. इसे मंज़ूर करते हुए कोर्ट ने सुनवाई की अगली तारीख़ आठ जनवरी तय की है.

इससे पहले हुई सुनवाई में गवाह के तौर पर एक पुलिसकर्मी का बयान रिकॉर्ड किया गया था. इस अग्निकांड में कुल 452 गवाह हैं, जिनका बयान दर्ज किया जाना अभी बाकी है.

आज से सात साल पहले 9 दिसंबर 2011 की सुबह कोलकाता के बड़े निजी अस्पतालों में से एक आमरी हॉस्पिटल में भीषण आग लग गई थी. इसमें 92 मरीज़ों की जान चली गई थी. आग में धनंजय पाल ने अपनी 15 साल की बेटी प्रकिता पाल को खो दिया था. उस वक़्त वह नौवीं में पढ़ती थीं.

धनंजय पाल कहते हैं, ‘आज अगर वह ज़िंदा होती, तो डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही होती. डॉक्टर बनना उसकी दिली ख़्वाहिश थी.’

वह बताते हैं, ‘वह पढ़ने में बहुत तेज़ थी और बहुत ख़ूबसूरत पेंटिंग्स बनाया करती थी.’

पांच दिसंबर, 2011 को प्रकिता बाइक से गिर पड़ी थीं और उसके सिर में चोट आ गई थी. चूंकि उस वक़्त वहां के स्थानीय सरकारी अस्पताल में सिटी स्कैन की सुविधा नहीं थी, इसलिए धनंजय पाल उसे लेकर कोलकाता आ गए थे.

दो-तीन अस्पतालों की दौड़ लगाने के बाद आख़िरकार आमरी अस्पताल में भर्ती कराया गया.

वह कहते हैं, ‘डॉक्टरी जांच में पता चला कि उसके सिर में ज़्यादा ख़ून नहीं जमा था. सूइयां व दवाइयों से उसकी तबीयत सुधरने लगी थी. आठ दिसंबर को आख़िरी बार मैं अस्पताल के बेड पर उससे मिला, तो वह कहने लगी कि अब अस्पताल में उसका जी नहीं लग रहा है. उससे मेरी आख़िरी बातचीत यही हुई थी. नौ दिसंबर को उसे आमरी से डिस्चार्ज करा लेने की बात थी, लेकिन तड़के हादसा हो गया और मौत से लड़कर लौटी मेरी बेटी चली गई.’

इस अग्निकांड में पुलिस ने राधेश्याम अग्रवाल, राधेश्याम गोयनका, श्रवण तोदी, रवि तोदी, मनीष गोयनका, प्रशांत गोयनका, आदित्य अग्रवाल, प्रीति सुरेका, राहुल तोदी, प्रख्यात चिकित्सक मणि छेत्री, प्रणव दासगुप्ता, दयानंद अग्रवाल समेत 16 लोगों को आरोपित बनाते हुए ताज़ीरात-ए-हिंद की दफ़ा 304 (उम्रक़ैद), दफ़ा 308 (सात साल की क़ैद), दफ़ा 38 समेत अन्य दफ़ाओं के तहत एफआईआर दर्ज की थी. इनमें से सभी आरोपितों को गिरफ्तारी के कुछ दिन बाद ही ज़मानत भी मिल गई.

मामले की पुलिसिया जांच में पता चला था कि अस्पताल के अपर बेसमेंट में रखे ज्वलनशील पदार्थों में आग लग गई थी. अस्पताल में सेंट्रलाइज़्ड एसी था जिस कारण एयर कंडिशनिंग डक्ट के ज़रिये ज़हरीला धुआं ऊपरी मंज़िलों पर स्थित मरीज़ों के कमरों तक पहुंच गया था और दम घुटने से 92 मरीज़ों की मौत हो गई थी.

जांच में मालूम हुआ था कि बेसमेंट को पार्किंग के लिए बनाया गया था, लेकिन ग़ैरक़ानूनी तरीके से वहां ज्वलनशील पदार्थ भरकर रखा गया था.

पुलिस अधिकारियों के मुताबिक, तड़के 3:30 बजे स्थानीय लोगों ने अस्पताल से धुआं निकलते हुए देखा था, लेकिन अस्पताल की तरफ़ से अग्निशमन विभाग के कंट्रोल रूम में 4.10 बजे यानी क़रीब 40 मिनट बाद फोन किया गया था. फोन कॉल जाने के करीब 20 मिनट के बाद दमकल की गाड़ियां मौक़ा-ए-वारदात पर पहुंचीं और बचाव कार्य शुरू किया.

सात साल पहले कोलकाता के आमरी अस्पताल में लगी आग के बाद मरीज़ों को बाहर निकालता बचाव दल. (फाइल फोटो: रॉयटर्स)
सात साल पहले कोलकाता के आमरी अस्पताल में लगी आग के बाद मरीज़ों को बाहर निकालता बचाव दल. (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

अग्निकांड के तत्काल बाद पश्चिम बंगाल सरकार ने जस्टिस तपन मुखर्जी की अध्यक्षता में जांच कमेटी बनाई थी. इस कमेटी ने पिछले साल मई में 214 पन्नों की जांच रिपोर्ट सरकार को दी थी, जिसमें आग के लिए सीधे तौर पर हॉस्पिटल अथॉरिटी को ज़िम्मेदार ठहराया था.

पुलिस प्रशासन से लेकर राज्य सरकार ने अग्निकांड के पीड़ितों के परिजनों से वादा किया था कि उन्हें जल्द से जल्द न्याय दिलाने की हर संभव कोशिश की जाएगी. प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ख़ुद घटनास्थल का दौरा किया था. लेकिन, पिछले सात सालों से चली आ रही क़ानूनी प्रक्रिया पीड़ित परिवारों को निराश कर रही है.

क़ानूनी प्रक्रिया की लेटलतीफी का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सभी 16 अरोपितों के ख़िलाफ़ आरोप तय करने में ही पांच साल लग गए थे. पुलिस ने मार्च 2012 में कोर्ट में आरोप पत्र दाख़िल किया था और 30 जून 2016 को आरोप तय किए गए.

धनंजय पाल ने बताया कि पहले 3-4 महीनों पर तारीख़ मिलती थी. उन्होंने कहा, ‘हमें लगा कि इस तरह तो जीते जी न्याय नहीं मिलने वाला. तब हमने त्वरित सुनवाई के लिए कलकत्ता हाईकोर्ट में आवेदन दिया.’ इस आवेदन का असर हुआ और पुलिस कोर्ट से मामला जजेज कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया. इसके बाद सुनवाई में तेज़ी आई और अब हर महीने सुनवाई हो रही है.

बर्दवान निवासी रूमा महंता के पति के भाई स्वप्न महंता की भी इस अग्निकांड में मौत हुई थी. रूमा महंता कहती हैं, ‘घटना के इतने वर्ष गुज़र चुके हैं. हमें नहीं पता कि न्याय कब मिलेगा और मिलेगा भी या नहीं.’

इस मामले में कुल 452 लोगों को गवाह बनाया गया है. अगर हर सुनवाई में कम से कम तीन लोगों का भी बयान रिकॉर्ड किया जाता है, तो कम से कम 150 सुनवाइयां बयानों को दर्ज करने में ही गुज़र जाएंगी. गवाही पूरी होने के बाद दोनों पक्षों में बहस शुरू होगी. बहस में अगर यह साबित हो गया कि सभी आरोपित दोषी हैं, तो उन्हें कोर्ट में बुलाया जाएगा.

कानून के जानकारों का कहना है कि पूरी प्रक्रिया लंबी चलनेवाली है और कब न्याय मिलेगा, कहना मुश्किल है.

अग्निकांड में अपनी 72 वर्षीय मां रेबा सेनगुप्ता को खो देने वाले हावड़ा के आंदुल रोड निवासी अमिताभ सेनगुप्ता कहते हैं, ‘हम त्वरित सुनवाई कर दोषियों को जेल की सलाखों के पीछे देखना चाहते हैं.’

रेबा सेनगुप्ता को आमरी अस्पताल में 14 नवंबर 2011 को भर्ती कराया गया था. उन्हें श्वांस संबंधी बीमारी थी. अस्पताल में भर्ती कराने के बाद हालात में सुधार हो रहा था.

अमिताभ सेनगुप्ता बताते हैं, ‘आठ दिसंबर को जब हमने मां की रिपोर्ट ली, तो उसमें बताया गया था कि हालत सुधर रही थी और 9 दिसंबर को उन्हें जनरल बेड पर ट्रांसफर कराने की बात थी. नौ दिसंबर की सुबह 5:30 बजे मैंने न्यूज़ चैनल पर देखा कि अस्पताल में आग लग गई है. मैं अस्पताल पहुंचा तो कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं था. सुबह क़रीब 10 बजे बेहद अमानवीय तरीके से शरीर में रस्सी बांध कर उन्हें उतारा गया था.’

रेबा सेनगुप्ता की मौत के बाद उनके पति 82 वर्षीय निहार कांति सेनगुप्ता मानसिक रोग के शिकार हो गए हैं.

अमिताभ सेनगुप्ता ने बताया, ‘मां जब जीवित थी, तो दोनों दिनभर एक दूसरे से बतियाते थे. हमारे घर में सब नौकरीपेशा हैं. दोपहर को दोनों अकेले रहते थे, तो एक दूसरे से बात करते हुए समय गुज़ार देते थे. मां के जाने के बाद वह अकेले पड़ गए और डीमेंशिया, अल्ज़ाइमर जैसी बीमारी की जद में आ गए हैं. हालत तो ये हो गई है कि अपने घर को अपना नहीं समझते हैं. मां की तस्वीर को भी नहीं पहचानते हैं. वह अक्सर कहते हैं कि वह किराये के घर में रह रहे हैं.’

अमिताभ सेनगुप्ता चाहते हैं कि सुनवाई पूरी करने की अवधि तय कर दी जानी चाहिए. उन्होंने कहा, ‘सुनवाई की अवधि तय कर दी जाएगी, तो जल्द न्याय मिलने की उम्मीद बंधेगी. जो क्षति हुई है, उसकी भरपाई संभव नहीं है, लेकिन हमें कम से कम मानसिक संतोष मिलेगा.’

अमिताभ सेनगुप्ता की मां रेबा सेनगुप्ता की इस अग्निकांड में मौत हो गई थी. रेबा सेनगुप्ता की मौत के बाद उनके पति निहारकांति सेनगुप्ता मानसिक बीमारी की चपेट में आ गए हैं. (फोटो: उमेश कुमार राय/द वायर)
अमिताभ सेनगुप्ता की मां रेबा सेनगुप्ता की इस अग्निकांड में मौत हो गई थी. रेबा सेनगुप्ता की मौत के बाद उनके पति निहारकांति सेनगुप्ता मानसिक बीमारी की चपेट में आ गए हैं. (फोटो: उमेश कुमार राय/द वायर)

उल्लेखनीय है कि अग्निकांड के बाद पीड़ितों के परिजनों को राज्य और केंद्र सरकार को मिला कर कुल 5-5 लाख रुपये बतौर मुआवज़ा दिए गए थे. 10 पीड़ित परिवारों ने नेशनल कन्ज़्यूमर फोरम में मुआवज़ा के लिए आवेदन दिया था. लेकिन, मुआवज़े की रकम को अधिक बताकर फोरम ने आवेदन ख़ारिज कर दिया था.

फोरम के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया गया, तो नौ परिवारों ने ‘आउट ऑफ कोर्ट’ समझौता कर लिया, लेकिन धनंजय पाल ने ऐसा करने से इनकार कर दिया.

अमिताभ सेनगुप्ता का कहना है कि कोर्ट के बाहर समझौता कर मुआवज़ा ले लेने के बाद बहुत सारे परिवार इस केस में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं.

अमिताभ सेनगुप्ता ने कहा, ‘त्वरित सुनवाई के लिए हमने कलकत्ता हाईकोर्ट में आवेदन किया था और वहां हमारी जीत हुई. इसी तरह अगर हम एक साथ मिलकर रहते और त्वरित न्याय के लिए संघर्ष करते, तो सुनवाई में और तेज़ी आती.’

उन्होंने कहा, ‘अभी कोर्ट में जब सुनवाई होती है, तो आरोपितों की तरफ से ज़्यादा लोग रहते हैं और पीड़ितों की तरफ से इक्का-दुक्का लोग ही उपस्थित होते हैं. वे भी किसी कोने में दुबके रहते हैं, जैसे कि अपराधी वे लोग ही हैं.’

उन्होंने आगे कहा, ‘हमारी सारी उम्मीदें अब सरकारी वकील और जांच अधिकारी पर टिकी हुई हैं. हम उनके कामकाज से संतुष्ट हैं और न्याय की उम्मीद लगाए हुए हैं.’

कोर्ट के बाहर समझौते के सवाल पर धनंजय पाल कहते हैं, ‘हम कोर्ट के बाहर किसी तरह का समझौता नहीं चाहते हैं. कोर्ट जो मुआवज़ा तय करेगा, हमें वह मंज़ूर होगा.’

उन्होंने कहा, ‘अगर यहां के अस्पताल में सिटी स्कैन की सुविधा होती, तो मुझे कोलकाता नहीं जाना पड़ता. मेरी बेटी डॉक्टर बनना चाहती थी, इसलिए मैं बांकुड़ा में उसकी याद में एक अस्पताल बनवाना चाहता हूं.’

धनंजय पाल पश्चिम बंगाल के स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत हैं. वह कहते हैं, ‘अगर सुप्रीम कोर्ट से ठीकठाक मुआवज़ा मिलता है, तो जल्द ही अस्पताल खोलूंगा. इस अस्पताल में सारी अत्याधुनिक सुविधाएं उपलब्ध रहेंगी. मैं नहीं चाहता कि कोई और मेरी बेटी की तरह ही चिकित्सीय सुविधा के अभाव में इधर-उधर भटके. अस्पताल के लिए मैंने एक कमेटी भी गठित कर ली है.’

अगर सुप्रीम कोर्ट से मुआवज़े को लेकर सकारात्मक आदेश नहीं आया तो क्या करेंगे? इस सवाल पर वह कहते हैं, ‘…तो किसी तरह पैसे का जुगाड़ करूंगा, लेकिन अस्पताल खोलूंगा ज़रूर.’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)