क्यों भाजपा-कांग्रेस को राजस्थान में भारतीय ट्राइबल पार्टी को गंभीरता से लेना चाहिए

राजस्थान विधानसभा चुनाव में डूंगरपुर ज़िले की चार में से दो सीटों पर भारतीय ट्राइबल पार्टी ने जीत हासिल की, वहीं भाजपा और कांग्रेस को सिर्फ़ एक-एक सीट मिल सकी.

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डूंगरपुर ज़िले की सागवाड़ा और चौरासी सीट से भारतीय ट्राइबल पार्टी के विधायक रामप्रसाद (बाएं) और राजकुमार रोट (दाएं).

राजस्थान विधानसभा चुनाव में डूंगरपुर ज़िले की चार में से दो सीटों पर भारतीय ट्राइबल पार्टी ने जीत हासिल की, वहीं भाजपा और कांग्रेस को सिर्फ़ एक-एक सीट मिल सकी.

डूंगरपुर ज़िले की सागवाड़ा और चौरासी सीट से भारतीय ट्राइबल पार्टी के विधायक रामप्रसाद (बाएं) और राजकुमार रोट (दाएं).
डूंगरपुर ज़िले की सागवाड़ा और चौरासी सीट से भारतीय ट्राइबल पार्टी के विधायक रामप्रसाद (बाएं) और राजकुमार रोट (दाएं).

राजस्थान में कांग्रेस भले ही सरकार बनाने जा रही है, लेकिन कांग्रेस के लिए मज़बूत माने जाने वाला आदिवासी क्षेत्र खासकर डूंगरपुर ज़िला इस बार शुभ नहीं रहा.

आदिवासी वोट परंपरागत रूप से कांग्रेस का माना जाता है. हालांकि 2013 की मोदी लहर में कांग्रेस डूंगरपुर से एक भी सीट नहीं जीत पाई थी. ज़िले की चारों सीट बीजेपी को मिली थीं.

इस बार चुनाव से कुछ महीने पहले राजस्थान में आई भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) ने ज़िले में दो सीटें जीत लीं. चार में से एक सीट कांग्रेस के खाते में आई तो एक भाजपा के.

डूंगरपुर ज़िले की सागवाड़ा और चौरासी सीट बीटीपी के रामप्रसाद ने 4582 और राजकुमार रोट ने 12,934 वोटों से जीत दर्ज की. वहीं आसपुर सीट पर बीटीपी उम्मीदवार उमेश 5330 वोट से पिछड़कर दूसरे नंबर पर रहे और डूंगरपुर में 13,004 वोट के साथ बीपीटी के उम्मीदवार तीसरे नंबर पर रहे हैं.

हार के बावजूद कांग्रेस और भाजपा के लिए भारतीय ट्राइबल पार्टी चिंता का विषय नहीं हैं, लेकिन इस जीत से बीटीपी के हौसले बुलंद हैं. हालांकि राजनीतिक जानकार मानते हैं कि आदिवासी क्षेत्र में पहली बार कांग्रेस-भाजपा के अलावा किसी राजनीतिक दल का उभार है जिसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए.

पार्टी का उभरना इसीलिए माना जा रहा है क्योंकि बीते तीन साल में बीटीपी के छात्रसंघ, भील प्रदेश विद्यार्थी मोर्चा ने डूंगरपुर ज़िले के कॉलेजों में छात्रसंघ चुनाव भी जीते हैं.

अभी पार्टी के छात्रसंघ की डूंगरपुर ज़िले के 5 कॉलेजों में पूरी कार्यकारिणी यानी अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव और संयुक्त सचिव हैं. 2016 में दो कॉलेजों में छात्रसंघ के चुनाव लड़े उनमें से एक कॉलेज में बीटीपी के छात्रसंघ ने अपनी कार्यकारिणी बनाई थी.

अपनी जीत पर पार्टी के राजस्थान प्रदेश अध्यक्ष वेलाराम घोगरा कहते हैं, ‘हमने एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर सिर्फ तीन महीने पहले शुरुआत की थी तो यह जीत उस मायने में भी बड़ी है. बीते 70 सालों में आदिवासी क्षेत्र के लिए कांग्रेस-भाजपा ने जो वादाख़िलाफ़ी की उसे आदिवासी जनता ने समझ लिया है और यही हमारी दो सीट पर जीत की वजह है.’

वे कहते हैं, ‘दोनों पार्टियों के कार्यकाल में पेसा क़ानून, वन अधिकार मान्यता क़ानून आज तक क्रियान्वित नहीं हुए. अब हमारे पास थोड़ी राजनीतिक ताकत भी आ गई है, हम सच्चाई जनता के सामने लाएंगे तो सरकारें बाध्य हो जाएंगी. संविधान की धारा 244 के तहत राज्यपालों को मिले अधिकारों का उपयोग आज तक किसी भी सरकार ने करने ही नहीं दिया. अब दो विधायक विधानसभा में इस बात का जवाब मांगेंगे तो ज़रूर जवाब बनेगा.’

(फोटो साभार: फेसबुक)
(फोटो साभार: फेसबुक)

घोगरा आगे कहते हैं, ‘हमारी कोशिश है कि संविधान की 5वीं अनुसूची का विश्लेषण हो, चर्चा हो ताकि आम आदिवासी लोगों में इस बारे में ज़्यादा से ज़्यादा पता चल सके. भील प्रदेश की मांग तो ज़्यादा राजनीतिक ताक़त आने के बाद तेज़ होगी. जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की मांग भी बीटीपी की मुख्य मांगों में से एक है.’

वहीं, सागवाड़ा विधानसभा सीट से बीटीपी के रामप्रसाद के हाथों 12,934 वोट से हारे भाजपा के शंकरलाल इस जीत को कुछ नया नहीं मानते. वे कहते हैं, ‘सामाजिक स्तर पर इनका जनता से जुड़ाव हुआ है. सामान्य वर्ग के लोगों को इन्होंने डराया-धमकाया. रही बात क़ानून क्रियान्वित करने की तो क़ानून सबके लिए बनता है, मेरे हारने की वजह बीटीपी नहीं, बागी हैं. छह महीने बाद ये लोग वापस भाजपा में ही आएंगे. ये परिवर्तन का दौर चला है तो कुछ लोग ऐसे भी जीत गए हैं.’

कांग्रेस प्रवक्ता सत्येंद्र राघव स्वीकार करते हैं कि छात्रसंघ चुनावों में बीटीपी की जीत से हमें नुकसान होने की आशंका थी. वे कहते हैं, ‘आदिवासियों को जितने भी अधिकार दिए सब कांग्रेस पार्टी ने ही दिए हैं. चाहे वन अधिकार क़ानून हो या पेसा क़ानून. ट्राइबल बेल्ट कांग्रेस के लिए काफी स्ट्रॉन्ग बेल्ट है इसीलिए हारने के कारणों पर मंथन किया जाएगा.’

वे कहते हैं, ‘जो कमियां रही हैं उन्हें सुधारेंगे. जब बीटीपी छात्रसंघ चुनाव जीती तब ही हमें आशंका थी कि इसका कांग्रेस को नुकसान होगा. सरकार बन रही है तो डूंगरपुर ज़िले की ज़रूरतों को ध्यान में रखा जाएगा.’

डूंगरपुर में काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता मानसिंह कहते हैं, ‘हाल की राजनीति में आदिवासी क्षेत्र में यह एक नया राजनीतिक प्रयोग है. इस पार्टी ने तीन साल में ख़ुद को गांव-गांव जाकर भील समाज के लोगों के लोगों के साथ जोड़ा. हालांकि कई बार आदिवासी और ग़ैर-आदिवासी लोगों में तनातनी भी हुई लेकिन कोई बड़ी हिंसा की घटना नहीं हुई.’

वे कहते हैं, ‘बीटीपी को भील समुदाय के लोगों ने पूरा समर्थन दिया है. दो विधायक जीतने के बाद लोगों में भरोसा भी बढ़ेगा लेकिन इससे क्षेत्र में जातिवाद को बढ़ावा भी मिल रहा है क्योंकि इस क्षेत्र में ग़ैर-आदिवासी लोग भी हैं. हालांकि ये सच है कि बीजेपी-कांग्रेस ने आदिवासियों के लिए बने क़ानूनों को ठीक से लागू नहीं किया, अगर लागू किए जाते तो बीटीपी जैसी पार्टी का उभार नहीं होता.’

क्या है भारतीय ट्राइबल पार्टी

भारतीय ट्राइबल पार्टी का गठन 2017 में छोटू भाई वसावा ने गुजरात में किया था. वसावा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जेडीयू से जुड़े थे. बीटीपी का महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात और राजस्थान के आदिवासी क्षेत्रों में प्रभाव है. डूंगरपुर की 14 लाख की आबादी में से करीब 73 फीसदी आदिवासी की है.

उदयपुर संभाग की 17 सीटों पर 70% से ज़्यादा वोटर आदिवासी समुदाय से आते हैं. राजस्थान में बीटीपी ने 12 उम्मीदवार उतारे थे. डूंगरपुर, आसपुर, सागवाड़ा, चौरासी, पिंडवाड़ा, खेरवाड़ा, घाटोल, गरही, धरियावद, कुंभलगढ़, बागीदौर और कुशलगढ़ विधानसभा सीट से उम्मीदवार खड़े हुए थे.

भारतीय ट्राइबल पार्टी की मांग

भारतीय ट्राइबल पार्टी की मुख्य मांग संविधान की 5वीं अनुसूची के मुताबिक अधिकार दिए जाने की है. साथ ही आदिवासी क्षेत्र में वन अधिकार मान्यता क़ानून और पेसा क़ानून को पूरी तरह लागू करने की मांग मुख्य है.

बीटीपी की कहना है कि आज़ादी के बाद राज्यों के गठन के समय भील खंड था जिसका राज्यों के गठन के समय ध्यान नहीं रखा गया. इसीलिए देश में आदिवासियों के लिए भील प्रदेश की मांग भी पार्टी के एजेंडे में शामिल है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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