उन 35 लाख लोगों को प्रधानमंत्री सपने में आते होंगे, जिनके एक सनक भरे फैसले के कारण नौकरियां चली गईं. नोटबंदी से दर-ब-दर हुए इन लोगों तक सपनों की सप्लाई कम न हो इसलिए विज्ञापनों में हज़ारों करोड़ फूंके जा रहे हैं. मोदी सरकार ने साढ़े चार साल में करीब 5000 करोड़ रुपये इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट के विज्ञापनों पर ख़र्च किए हैं.
उन 35 लाख लोगों को प्रधानमंत्री सपने में आते होंगे, जिनके एक सनक भरे फैसले के कारण नौकरियां चली गईं. नोटबंदी से दर-ब-दर हुए इन लोगों तक सपनों की सप्लाई कम न हो इसलिए विज्ञापनों में हज़ारों करोड़ फूंके जा रहे हैं.
मोदी सरकार ने साढ़े चार साल में करीब 5000 करोड़ रुपये इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट के विज्ञापनों पर ख़र्च किए हैं. मनमोहन सिंह की पिछली सरकार साल में 500 करोड़ ख़र्च करती थी, मौजूदा सरकार साल में करीब 1000 करोड़ ख़र्च कर रही है.
विज्ञापनों का यह पूरा हिसाब नहीं है. अभी यह हिसाब आना बाकी है कि 5000 करोड़ में से किन किन चैनलों और अख़बारों पर विशेष कृपा बरसाई गई है और किन्हें नहीं दिया गया है.
35 लाख लोग इन विज्ञापनों में उस उम्मीद को खोज रहे होंगे, जो उन्हें नोटबंदी की रात के बाद मिली थी. बोगस धारणा परोसी गई कि गरीब और निम्न मध्यमवर्ग सरकार के इस फैसले के साथ है. क्योंकि उसके पास कुछ नहीं है. एक चिढ़ है जो अमीरों को लेकर है.
नोटबंदी भारत की आर्थिक संप्रभुता पर किया गया हमला था. इसके नीचे दबी कहानियां धीरे-धीरे करवटें बदल रही हैं. चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने रिटायर होने के तुरंत बाद कह दिया कि चुनावों में काला धन में कोई कमी नहीं आई.
भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और मोदी सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम भी खुलकर कह रहे हैं कि नोटबंदी के कारण भारत की आर्थिक रफ्तार धीमी हुई है. इस धीमेपन के कारण कितनों को नौकरियां नहीं मिली हैं और कितनों की चली गई हैं, हमारे पास समग्र और व्यापक आंकड़े नहीं हैं.
जिनकी नौकरियां गईं वो चुप रह गए कि भारत के लिए कुर्बानी कर रही हैं. एक फ्रॉड फैसले के लिए लोग ऐसी मूर्खता कर सकते हैं इसका भी प्रमाण मिलता है. बैंकों में सैंकड़ों कैशियरों ने अपनी जेब से नोटबंदी के दौरान 5000 से 2 लाख तक जुर्माने भरे.
अचानक थोप दिए गए नोटों की गिनती में जो चूक हुई उसकी भरपाई अपनी जेब से की, यह सोच कर कि देश के लिए कुछ कर रहे हैं.
ऑल इंडिया मैन्युफैक्चरर एसोसिएशन (एएमआईओ) ने ट्रेडर, माइक्रो, स्मॉल और मीडियम सेक्टर में एक सर्वे कराया है. इस सर्वे में इस सेक्टर के 34,000 उपक्रमों को शामिल किया गया है.
किसी सर्वे के लिए यह छोटी-मोटी संख्या नहीं है. इसी सर्वे से यह बात सामने आई है कि इस सेक्टर में 35 लाख नौकरियां चली गई हैं. ट्रेडर सेगमेंट में नौकरियों में 43 फीसदी, माइक्रो सेक्टर में 32 फीसदी, स्मॉल सेगमेंट में 35 फीसदी और मीडियम सेक्टर में 24 फीसदी नौकरियां चली गई हैं.
2015-16 तक इस सेक्टरों में तेज़ी से वृद्धि हो रही थी लेकिन नोटबंदी के बाद गिरावट आ गई जो जीएसटी के कारण और तेज़ हो गई. एएमआईओ ने हिसाब दिया है कि 2015 पहले ट्रेडर्स सेक्टर में 100 कंपनियां मुनाफा कमा रही थीं तो अब उनकी संख्या 30 रह गई है.
संगठन ने बयान दिया है कि सबसे बुरा असर स्व-रोज़गार करने वालों पर पड़ा है. जूते की मरम्मत, हज़ामत, प्लंबर, इलेक्ट्रिशियन का काम करने वालों पर पड़ा है. दिन भर की मेहनत के बाद मामूली कमाई करने वालों पर नोटबंदी ने इतना क्रूर असर डाला है.
2015-16 तक इन सेक्टर में काफी तेज़ी से वृद्धि हो रही थी, लेकिन नोटबंदी के बाद ही इसमें गिरावट आने लगी जो जीएसटी के कारण और भी तेज़ हो गई.
दिल्ली के ओला में चलते हुए तीन लोगों से मिला हूं जिनका जीएसटी और नोटबंदी से पहले लाखों का कारोबार था. तीन-चार सौ लोग काम करते थे. अब सब बर्बाद हो गया है. टैक्सी चलाकर लोन की भरपाई कर रहे हैं. इसमें नोटबंदी और जीसएटी दोनों का योगदान है.
सोचिए मझोले और छोटे उद्योगों में अगर 35 लाख लोगों की नौकरियां गईं हैं तो प्रधानमंत्री और अमित शाह किन लोगों को 7 करोड़ रोज़गार दिए जाने की बातें कर रहे थे. पिछले साल के उनके बयानों को सर्च कीजिए.
मई 2017 में अमित शाह ने दावा किया था कि मुद्रा लोन के कारण 7.28 करोड़ लोगों ने स्व-रोजगार हासिल किया है. सितंबर 2017 में एसकेओसीएच (SKOCH) की किसी रिपोर्ट के हवाले से पीटीआई ने खबर दी थी कि मुद्रा लोन के कारण 5.5 करोड़ लोगों को स्व-रोज़गार मिला है. उस दावे का आधार क्या है?
नौकरी छोड़िए, अब मुद्रा लोन को लेकर ख़बरें आ रही हैं कि बैंकों के पास पैसे नहीं हैं लोन देने के लिए. बहुत सारे मुद्रा लोन भी एनपीए होने के कगार पर हैं.
एनडीटीवी डॉट कॉम पर ऑनिंद्यो चक्रवर्ती ने लिखा है कि 2013-14 में जीडीपी का 2.8 प्रतिशत बैंक लोन मध्यम व लघु उद्योगों को मिला था जो 2017-18 में घटकर 2.8 प्रतिशत पर आ गया. इसी सेक्टर को लोन देने के लिए रिज़र्व बैंक पर कब्ज़े का नाटक किया जा रहा है.
प्राइवेट सेक्टर नौकरियों के मामले में ध्वस्त हो चुका है. जिस इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर पर लाखों-करोड़ के बजट बताकर सरकार वाहवाही लेती है कि इतने लोगों को काम मिलेगा, ज़रा सड़क निर्माण में लगे लोगों से बात कीजिए कि पहले की तुलना में मशीन कितनी लगती है और लेबर कितना लगता है. मामूली काम भी नहीं मिल रहे हैं.
इंजीनियरिंग की डिग्री लिए बेरोज़गारों से पूछिए. सरकारी सेक्टर ही बचा है अभी नौकरियों के लिए. सरकारों को देनी नहीं हैं, उनकी थ्योरी चलती है कि मिनिमम गर्वमेंट और मैक्सिमम गवर्नेंस.
इसी स्लोगन में है कि सरकार अपना आकार छोटा रखेगी तो नौकरियां कहां से आएगी. शायद इसलिए भी नौकरियों का विज्ञापन निकल रहा है, दी नहीं जा रही हैं. उन्हें अटकाया जा रहा है, भटकाया जा रहा है.
(यह लेख मूल रूप से रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा पर प्रकाशित हुआ है.)