टिकट वितरण और मुख्यमंत्री पद के लिए अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच हुई रस्साकशी मंत्रिमंडल के गठन में भी जारी रही. यदि दोनों के बीच ज़ोर आजमाइश यूं ही चलती रही तो कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ सकता है.
11, 14 और 24 दिसंबर. ये तीनों तारीख़ें राजस्थान में कांग्रेस के भीतर हुई खींचतान और आलाकमान की दख़ल से निकली सरकार की गवाह हैं. इन 13 दिनों के दौरान राजनीति ने ज़ोर आज़माइश, ज़िद और जज़्बात के वो नज़ारे दिखाए, जिनका अमूमन राजस्थान की राजनीति में अकाल रहता है. यह सिलसिला आगे भी जारी रहने के आसार हैं, क्योंकि घटनाक्रम में शामिल कोई भी किरदार पीछे हटने को तैयार नहीं है.
11 दिसंबर को दोपहर बाद कांग्रेस के 99 सीटों तक पहुंचने और भाजपा के 73 पर अटकने के बाद यह तय हो गया था कि राजस्थान में इस बार कांग्रेस की सरकार बनेगी.
आमतौर पर विधानसभा के चुनावों में कौतूहल का विषय यही रहता है कि सत्ता के सिंहासन तक कौन-सा राजनीतिक दल पहुंचा है, लेकिन राजस्थान के चुनाव में इससे ज़्यादा रोमांच कौन बनेगा मुख्यमंत्री के खेल में रहा.
नई दिल्ली में तीन दिन तक चली उठापटक के बाद आख़िरकार राहुल गांधी ने सूबे में सत्ता का सेहरा अशोक गहलोत के सिर बांधा. वहीं, मुख्यमंत्री बनने के लिए पूरी ताक़त झोंकने के बावजूद सचिन पायलट को उप-मुख्यमंत्री के पद से संतोष करना पड़ा.
इस निर्णय से पहले राहुल गांधी ने जिस तरह से ‘यूनाइटेड कलर्स आॅफ राजस्थान’ के संदेश के साथ गहलोत-पायलट का फोटो ट्वीट कर यह जताना चाहा कि मुख्यमंत्री पद का विवाद दोनों की सहमति से सुलझ गया है.
The united colours of Rajasthan! pic.twitter.com/D1mjKaaBsa
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) December 14, 2018
14 दिसंबर को पर्यवेक्षक केसी वेणुगोपाल ने एआईसीसी के दफ्तर में जब अधिकृत रूप से मुख्यमंत्री पद के लिए अशोक गहलोत के नाम पर मुहर लगाई तब भी सचिन पायलट ने मीडिया के सामने यह दिखाना चाहा कि उन्हें पद की कोई लालसा नहीं थी और इसे नहीं मिलने का मन में कोई मलाल नहीं है, लेकिन इसके बाद हुआ घटनाक्रम उलट कहानी बयां कर रहा है.
टिकट वितरण और मुख्यमंत्री पद के लिए हुई खींचतान के बाद मंत्रियों के चयन में भी गहलोत और पायलट के बीच ज़ोर-आज़माइश हुई. संभवत: आलाकमान को इसका अंदेशा पहले से था इसीलिए मंत्रियों के नाम दिल्ली की देखरेख में तय हुए. हालांकि इसके बावजूद सचिन पायलट अपने चहेते विधायकों को मनमुताबिक संख्या में मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करवा पाए.
सोमवार को जिन 23 मंत्रियों को राज्यपाल कल्याण सिंह ने पद और गोपनीयता की शपथ दिलवाई, उनमें 13 कैबिनेट और 10 राज्यमंत्री हैं. कैबिनेट मंत्रियों में डॉ. बीडी कल्ला, शांति धारीवाल, परसादी लाल मीणा, विश्वेंद्र सिंह, लालचंद कटारिया, सालेह मोहम्मद, उदय लाल आंजना को अशोक गहलोत खेमे का जबकि प्रताप सिंह खाचरियावास, रमेश मीणा, प्रमोद जैन भाया, डॉ. रघु शर्मा व मास्टर भंवर लाल मेघवाल को सचिन पायलट खेमे का माना जाता है.
वहीं, हरीश चौधरी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के क़रीबी हैं. उनके दोनों दिग्गज नेताओं से अच्छे संबंध हैं. वे ख़ुद पर किसी का ठप्पा लगाना नहीं चाहते. 10 राज्यमंत्रियों में से गोविंद सिंह डोटासरा, ममता भूपेश, भंवर सिंह भाटी, सुखराम विश्नोई, अशोक चांदना, टीकाराम जूली, राजेंद्र यादव व सुभाष गर्ग मुख्यमंत्री गहलोत के चहेते हैं जबकि अर्जुन बामनिया व भजन लाल जाटव उपमुख्यमंत्री पायलट के क़रीबी हैं.
यानी 23 मंंत्रियों में से 15 गहलोत और 7 पायलट खेमे के हैं जबकि एक मंत्री किसी धड़े में शामिल नहीं है. पायलट के चहेतों को मंत्रिमंडल में अपेक्षाकृत कम जगह मिलने की बड़ी वजह पहली बार चुनाव जीते विधायकों को मंत्री नहीं बनाने का निर्णय रहा.
सूत्रों के अनुसार, पायलट ने आलकमान के सामने युवाओं को तरजीह देने का तर्क देकर नवोदित विधायकों को मंत्रिमंडल में जगह देने की गुज़ारिश की, लेकिन राहुल गांधी ने इसे सिरे से ख़ारिज कर दिया.
हालांकि अशोक गहलोत के चहेते सुभाष गर्ग पहली बार विधायक बनने के बावजूद मंत्री बनने में सफल रहे. माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष रहे गर्ग भरतपुर से लगातार तीन बार विधायक रहे विजय बंसल को हराकर विधानसभा पहुंचे हैं. वे राष्ट्रीय लोकदल के टिकट पर चुनाव लड़े थे.
गौरतलब है कि कांग्रेस ने पांच सीटों पर राष्ट्रीय लोकदल, राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी व लोकतांत्रिक जनता दल से गठबंधन किया था. इनमें से दो सीटों पर लोकदल ने उम्मीदवार खड़े किए थे.
मंत्रिमंडल के चेहरे सामने आने के बाद इस कयास को विराम लग गया है कि राहुल गांधी ने सचिन पायलट से मुख्यमंत्री पद की ज़िद छोड़ने की एवज में उपमुख्यमंत्री के साथ मंत्रिमंडल में उनके पसंदीदा चेहरों को 50 फीसदी जगह का वादा किया था.
गौरतलब है कि मुख्यमंत्री पद के लिए हुए खींचतान का पटाक्षेप होने के बाद सत्ता में बंटवारे का यह फॉर्मूला मीडिया के ज़रिये बाहर आया था.
यह पहला मौका नहीं है जब अशोक गहलोत और सचिन पालयट के बीच खींचतान हुई हो और पायलट को पीछे हटना पड़ा हो. मंत्रिमंडल गठन से पहले टिकट वितरण और मुख्यमंत्री पद के लिए हुई रस्साकशी में गहलोत पायलट पर भारी पड़े थे. लगातार तीसरी बार गहलोत के मुकाबले उन्नीस रहने के बावजूद पायलट प्रदेश में सत्ता का दूसरा केंद्र बनने में क़ामयाब रहे हैं.
हालांकि सरकार के नीतिगत और प्रशासनिक निर्णयों में सचिन पायलट का दख़ल अब तक सामने नहीं आया है. किसानों की क़र्ज़माफ़ी और पुलिस महानिदेशक, अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक व अतिरिक्त मुख्य सचिव स्तर के अधिकारियों की नियुक्ति और तबादलों में पूरी तरह से अशोक गहलोत की चली है. मुख्यमंत्री ने अपनी पसंद के अफसरों को सभी प्रमुख विभागों में तैनात कर दिया है.
सूत्रों के अनुसार, अशोक गहलोत के इस तरह फैसले लेने से सचिन पायलट खुश नहीं हैं. उनके नज़दीकी नेताओं की मानें तो वे सरकार के सभी निर्णयों में अपनी भूमिका चाहते हैं. पायलट किसी भी स्तर पर यह ज़ाहिर नहीं होने देना चाहते कि वे गहलोत के माहतम हैं. जबकि अशोक गहलोत मुख्यमंत्री होने के नाते संविधान की ओर से प्रदत्त विशेषाधिकारों का किसी भी सूरत में बंटवारा नहीं होने देना चाहते. यदि दोनों दिग्गज इस रुख़ पर अड़े रहे तो टकराव बढ़ना तय है.
यह देखना रोचक होगा कि गहलोत सरकार का मंत्रिमंडल किस प्रकार कामकाज करता है. यदि मंत्रियों ने एकजुट होकर कार्य करने की बजाय अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने की कोशिश की तो सिर-फुटव्वल की स्थिति पैदा होना तय है. इससे सरकार का कामकाज तो प्रभावित होगा ही, कांग्रेस को राजनीतिक नुकसान भी झेलना पड़ सकता है.
कांग्रेस से जुड़े सूत्रों के अनुसार राहुल गांधी को अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच टकराव बढ़ने की आशंका है. इससे बचने के लिए बड़े निर्णयों में वे खुद सीधा दख़ल दे रहे हैं. वे कम से कम लोकसभा चुनाव तक दोनों में किसी को नाराज़ नहीं करना चाहते. वे यह सियासी संदेश देना चाहते हैं कि अनुभव और युवा जोश मिलकर राजस्थान की बेहतरी के लिए काम कर रही है.
राहुल गांधी के सचेत होने के बाद भी यदि लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस की फूट जगज़ाहिर हुई तो भाजपा इसे मुद्दा बनाने से नहीं चूकेगी.
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को शिकस्त ज़रूर दी है, लेकिन मत प्रतिशत के लिहाज़ से दोनों पार्टियों में ख़ास अंतर नहीं है. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस एकजुट होकर मैदान में नहीं उतरी तो यह भाजपा के लिए बड़ा मौका होगा.
गहलोत और पायलट के बीच गुटबाजी बढ़ने की स्थिति में भाजपा तो हमलावर होगी ही लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की रणनीति पर भी इसका सीधा असर पड़ेगा. जिस तरह से विधानसभा चुनाव में दोनों नेताओं के बीच टिकट वितरण में खींचतान देखने को मिली, वही नज़ारा लोकसभा चुनाव के 25 उम्मीदवारों के चयन में भी देखने को मिल सकता है. ऐसा होता है तो विधानसभा चुनाव की तरह लोकसभा चुनाव के नतीजे भी प्रभावित हो सकते हैं.
हालांकि कांग्रेस की मीडिया चेयरपर्सन डॉ. अर्चना शर्मा सत्ता के दो केंद्र बनने को शिगूफ़ा मानती हैं. वे कहती हैं, ‘राजस्थान में पूरी कांग्रेस एकजुट है. गुटबाज़ी और खींचतान जैसी कोई बात नहीं है. हमारे सभी नेता विधानसभा चुनाव में एक साथ मैदान में उतरे और जीत हासिल की. सरकार में जिसे जो ज़िम्मेदारी मिली है, उसे वह पूरे मनोयोग से निभा रहा है. सत्ता के दो केंद्र बनने की बात पूरी तरह से निराधार है.’
डॉ. शर्मा टिकट वितरण, मुख्यमंत्री पद और मंत्रिमंडल के लिए खींचतान को कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र क़रार देती हैं. वे कहती हैं, ‘जिसे खींचतान कहा जा रहा है वह कांग्रेस पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र है. किसी पर निर्णय थोपने की बजाय सबसे विचार-विमर्श करने के बाद फ़ैसले लिए जा रहे हैं. इस प्रक्रिया पर सवाल खड़े करने की बजाय इसकी तारीफ़ होनी चाहिए.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)