भारत छोड़ो आंदोलन के डेढ़ साल बाद ब्रिटिश राज की बॉम्बे सरकार ने एक मेमो में खुशी व्यक्त करते हुए लिखा था कि संघ ने पूरी ईमानदारी से ख़ुद को क़ानून के दायरे में रखा, ख़ासतौर पर अगस्त, 1942 में भड़की अशांति में वो शामिल नहीं हुआ.
(यह लेख मूलतः 20 अप्रैल 2017 को प्रकाशित किया गया था)
मामला चाहे दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के हालिया हमले का हो, या पिछले साल फरवरी में हुई जेएनयू की घटना का, या मोदी सरकार के कार्यकाल में ‘देशद्रोही’ कलाकारों, पत्रकारों पर हुए हमलों का- प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कई संस्थान ख़ुशी-ख़ुशी इन संघर्षों को ‘अभिव्यक्ति की आजादी बनाम राष्ट्रवाद’ की लड़ाई के झूठे युग्मक (बाइनरी) के तौर पर पेश करने की कोशिश करते दिखे हैं.
संघ परिवार ने बड़ी चतुराई से अपने और अपने कृत्यों पर ‘राष्ट्रवादी’ होने का जो लेबल चिपका लिया है, उसे बिना सोचे-विचारे इन मीडिया संस्थानों ने स्वीकार कर लिया है. यह स्वीकृति दरअसल हमारे कई वरिष्ठ पत्रकारों के इतिहास के कम ज्ञान की गवाही देती है. आज़ादी के राष्ट्रीय संघर्ष के साथ हिंदुत्ववादी शक्तियों द्वारा किया गया धोखा, उनके सीने पर ऐतिहासिक शर्म की गठरी की तरह रहना चाहिए था, लेकिन इतिहास को लेकर पत्रकारों की कूपमंडूकता हिंदुत्ववादी शक्तियों की ताक़त बन गयी है और वे इसका इस्तेमाल इस बोझ को उतार फेंकने के लिए कर रहे हैं. झूठे आत्मप्रचार को मिल रही स्वीकृति का इस्तेमाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कट्टर राष्ट्रवादी के तौर पर अपनी नयी झूठी मूर्ति गढ़ने के लिए कर रहा है. वह ख़ुद को एक ऐसे संगठन के तौर पर पेश कर रहा है, जिसके लिए राष्ट्र की चिंता सर्वोपरि है.
भारत में राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय आजादी के लिए संघर्ष के बीच अटूट संबंध है. अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते इन स्वयंभू राष्ट्रवादियों के दावों की हक़ीक़त जांचने के लिए उपनिवेशवाद से आज़ादी की लड़ाई के दौर में आरएसएस की भूमिका को फिर से याद करना मुनासिब होगा.
दांडी मार्च में आरएसएस की भूमिका
18 मार्च, 1999 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संघ के कार्यकताओं से भरी एक सभा में आरएसएस के संस्थापक केबी हेडगेवार को महान स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा देते हुए उनकी याद में एक डाक टिकट जारी किया था. इस पर शम्सुल इस्लाम ने लिखा था कि यह चाल ‘आज़ादी से पहले आरएसएस की राजनीतिक लाइन को उपनिवेश-विरोधी संघर्ष की विरासत के तौर पर स्थापित करने की कोशिश थी जबकि वास्तविकता में आरएसएस कभी भी उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष का हिस्सा नहीं रहा था. इसके विपरीत 1925 में अपने गठन के बाद से आरएसएस ने सिर्फ़ अंग्रेज़ी हुक़ूमूत के ख़िलाफ़ भारतीय जनता के महान उपनिवेश विरोधी संघर्ष में अड़चनें डालने का काम किया.’
‘स्वतंत्रता सेनानी’ हेडगेवार आरएएस की स्थापना से पहले कांग्रेस के सदस्य हुआ करते थे. ख़िलाफ़त आंदोलन (1919-24) में उनकी भूमिका के कारण उन्हें गिरफ़्तार किया गया और उन्हें एक साल क़ैद की सज़ा सुनाई गई थी. आज़ादी की लड़ाई में यह उनकी आख़िरी भागीदारी थी. रिहा होने के ठीक बाद, सावरकर के हिंदुत्व के विचार से प्रभावित होकर हेडगेवार ने सितंबर, 1925 में आरएसएस की स्थापना की. अपनी स्थापना के बाद ब्रिटिश शासन के पूरे दौर में यह संगठन न सिर्फ़ उपनिवेशी ताक़तों का आज्ञाकारी बना रहा, बल्कि इसने भारत की आज़ादी के वास्ते किए जाने वाले जन-संघर्षों का हर दौर में विरोध किया.
आरएसएस द्वारा प्रकाशित की गई हेडगेवार की जीवनी के मुताबिक जब गांधी ने 1930 में अपना नमक सत्याग्रह शुरू किया, तब उन्होंने (हेडगेवार ने) ‘हर जगह यह सूचना भेजी कि संघ इस सत्याग्रह में शामिल नहीं होगा. हालांकि, जो लोग व्यक्तिगत तौर पर इसमें शामिल होना चाहते हैं, उनके लिए ऐसा करने से कोई रोक नहीं है. इसका मतलब यह था कि संघ का कोई भी जिम्मेदार कार्यकर्ता इस सत्याग्रह में शामिल नहीं हो सकता था’.
वैसे तो, संघ के कार्यकर्ताओं में इस ऐतिहासिक घटना में शामिल होने के लिए उत्साह की कमी नहीं थी, लेकिन हेडगेवार ने सक्रिय रूप से इस उत्साह पर पानी डालने का काम किया. हेडगेवार के बाद संघ की बागडोर संभालने वाले एमएस गोलवलकर ने एक घटना का उल्लेख किया है, जो आरएसएस नेतृत्व की भूमिका के बारे में काफी कुछ बताता है:
‘1930-31 में एक आंदोलन हुआ था. उस समय कई लोग डॉक्टरजी (हेडगेवार) के पास गए थे. इस प्रतिनिधिमंडल ने डॉक्टरजी से अनुरोध किया था कि यह आंदोलन देश को आजादी दिलाने वाला है, इसलिए संघ को इसमें पीछे नहीं रहना चाहिए. उस समय एक भद्र व्यक्ति ने डॉक्टरजी से कहा था कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं. इस पर डॉक्टरजी का जवाब था: ज़रूर जाइए, मगर आपके परिवार का तब ख़्याल कौन रखेगा?’
उस भद्र व्यक्ति ने जवाब दिया: ‘मैंने न सिर्फ़ दो वर्षों तक परिवार चलाने के लिए ज़रूरी संसाधन जुटा लिए हैं, बल्कि मैंने इतना पैसा भी जमा कर लिया है कि ज़रूरत पड़ने पर ज़ुर्माना भरा जा सके’.
इस पर डॉक्टरजी ने उस व्यक्ति से कहा: ‘अगर तुमने संसाधन जुटा लिए हैं तो आओ संघ के लिए दो वर्षों तक काम करो’. घर लौट कर आने पर वह भद्र व्यक्ति न तो जेल गया, न ही वह संघ के लिए काम करने के लिए ही आया.’
हालांकि, हेडगेवार ने व्यक्तिगत क्षमता में इस आंदोलन में भाग लिया और जेल गए. लेकिन जेल जाने का उनका मकसद स्वतंत्रता सेनानियों के मक़सद से बिल्कुल अलग था. आरएसएस द्वारा प्रकाशित उनकी जीवनी के मुताबिक वे ‘इस विश्वास के साथ जेल गए कि वे आज़ादी से मोहब्बत करने वाले, अपनी क़ुर्बानी देने को तैयार, प्रतिष्ठित लोगों के साथ रहते हुए, उनके साथ संघ के बारे में विचार-विमर्श करेंगे और उन्हें संघ के लिए काम करने के लिए तैयार करेंगे’.
हिंदू और मुस्लिम फ़िरक़ापरस्त समूहों की इस मंशा को भांप कर कि वे कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का इस्तेमाल अपने विध्वंसकारी मक़सदों के लिए करना चाहते हैं, अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने 1934 में एक प्रस्ताव पारित करके अपने सदस्यों के आरएसएस, हिंदू महासभा या मुस्लिम लीग की सदस्यता लेने पर रोक लगा दी.
दिसंबर, 1940 में जब महात्मा गांधी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ (व्यक्तिगत) सत्याग्रह चला रहे थे, तब जैसा कि गृह विभाग की तरफ़ से उपनिवेशवादी सरकार को भेजे गये एक नोट से पता चलता है, आरएसएस नेताओं ने गृह विभाग के सचिव से मुलाक़ात की थी और ‘सचिव महोदय से यह वादा किया था कि वे संघ के सदस्यों को ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में सिविल गार्ड के तौर भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित करेंगे.’ ग़ौरतलब है कि उपनिवेशी शासन ने सिविल गार्ड की स्थापना ‘देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक विशेष पहल’ के तौर पर की थी.
भारत छोड़ो आंदोलन का आरएसएस द्वारा विरोध
भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होने के डेढ़ साल बाद, ब्रिटिश राज की बॉम्बे सरकार ने एक मेमो में बेहद संतुष्टि के साथ नोट किया कि ‘संघ ने पूरी ईमानदारी के साथ ख़ुद को क़ानून के दायरे में रखा है. ख़ासतौर पर अगस्त, 1942 में भड़की अशांति में यह शामिल नहीं हुआ है.’
लेकिन दांडी मार्च की ही तरह आरएसएस के कार्यकर्ता आंदोलन में शामिल होने से रोकने की अपने नेताओं की कोशिशों से काफ़ी हताश थे. ‘1942 में भी’ जैसा कि गोलवलकर ने खुद लिखा है, “कार्यकताओं के दिलों में आंदोलन के प्रति गहरा जज़्बा था… न सिर्फ़ बाहरी लोग, बल्कि हमारे कई स्वयंसेवकों ने भी ऐसी बातें शुरू कर दी थीं कि संघ निकम्मे लोगों का संगठन है, उनकी बातें किसी काम की नहीं हैं. वे काफ़ी हताश भी हो गए थे.”
लेकिन आरएसएस नेतृत्व के पास आज़ादी की लड़ाई में शामिल न होने की एक विचित्र वजह थी. जून, 1942 में- बंगाल में अंग्रेज़ों द्वारा निर्मित अकाल, जिसमें कम से कम 30 लाख लोग मारे गए, से कई महीने पहले- दिए गए एक अपने एक भाषण में गोलवलकर ने कहा था:
”संघ समाज की वर्तमान बदहाली के लिए किसी को भी दोष नहीं देना चाहता. जब लोग दूसरों पर आरोप लगाना शुरू करते हैं तो इसका मतलब होता है कि कमज़ोरी मूल रूप से उनमें ही है. कमज़ोरों के साथ किए गए अन्याय के लिए ताक़तवर पर दोष मढ़ना बेकार है…संघ अपना क़ीमती वक्त दूसरों की आलोचना करने या उनकी बुराई करने में नष्ट नहीं करना चाहता. अगर हमें पता है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है, तो इसके लिए बड़ी मछली को दोष देना पूरी तरह पागलपन है. प्रकृति का नियम, भले ही वह अच्छा हो या ख़राब, हमेशा सच होता है. इस नियम को अन्यायपूर्ण क़रार देने से नियम नहीं बदल जाता.”
यहां तक कि मार्च, 1947 में जब अंग्रेज़ों ने आख़िरकार एक साल पहले हुए नौसेनिक विद्रोह के बाद भारत छोड़कर जाने का फैसला कर लिया था, गोलवलकर ने आरएसएस के उन कार्यकर्ताओं की आलोचना जारी रखी, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में हिस्सा लिया था. आरएसएस के वार्षिक दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने एक घटना सुनाई:
“एक बार एक सम्मानित वरिष्ठ भद्र व्यक्ति हमारी शाखा में आए. वे अपने साथ आरएसएस के स्वयंसेवकों के लिए एक नया संदेश लेकर आए थे. जब उन्हें शाखा के स्वयंसेवकों को संबोधित करने का मौक़ा दिया गया, तब उन्होंने काफ़ी प्रभावशाली लहजे में अपनी बात रखी, ‘अब केवल एक काम करें. ब्रिटिशों के गिरेबान को पकड़ें, उनकी लानत-मलामत करें और उन्हें बाहर फेंक दें. इसका जो भी परिणाम होगा, उससे हम बाद में निपट लेंगे.’ इतना कह कर वे सज्जन बैठ गए. इस विचारधारा के पीछे राज्य शक्ति के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा और नफ़रत पर टिकी प्रवृत्ति का हाथ है. आज की राजनीतिक संवेदनशीलता की बुराई यह है कि यह प्रतिक्रिया, क्रोध और मित्रता को भूलते हुए विजेताओं के विरोध पर आधारित है.”
आज़ादी के बाद का ‘देशद्रोह’
भारत की आज़ादी के उपलक्ष्य में आरएसएस के मुखपत्र ‘द ऑर्गेनाइजर’ में प्रकाशित संपादकीय में संघ ने भारत के तिरंगे झंडे का विरोध किया था, और यह घोषणा की थी कि ‘‘हिंदू इस झंडे को न कभी अपनाएंगे, न कभी इसका सम्मान करेंगे.’’ बात को स्पष्ट करते हुए संपादकीय में कहा गया कि ‘‘ ये ‘तीन’ शब्द ही अपने आप में अनिष्टकारी है और तीन रंगों वाला झंडा निश्चित तौर पर ख़राब मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगा और यह देश के लिए हानिकारक साबित होगा.’’
आजादी के कुछ महीनों के बाद 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे ने- जो कि हिंदू महासभा और आरएसएस, दोनों का सदस्य था- महात्मा गांधी पर नज़दीक से गोलियां दागीं. एजी नूरानी ने उस समय गांधीजी के निजी सचिव प्यारेलाल नैय्यर के रिकॉर्ड से उद्धृत करते हुए लिखा है:
‘‘उस दुर्भाग्यपूर्ण शुक्रवार को कुछ जगहों पर आरएसएस के सदस्यों को पहले से ही ‘अच्छी ख़बर’ के लिए अपने रेडियो सेट चालू रखने की हिदायत दी गई थी.’’
सरदार पटेल को एक युवक, ‘‘जिसे, उसके ख़ुद के बयान के मुताबिक, धोखा देकर आरएसएस में शामिल किया गया था, लेकिन जिसका बाद में मोहभंग हो गया’’, से मिली एक चिट्ठी के अनुसार ‘‘इस समाचार के आने के बाद कई जगहों पर आरएसएस से जुड़े हलकों में मिठाइयां बांटी गई थीं.’’
कुछ दिनों के बाद आरएसएस के नेताओं की गिरफ़्तारियां हुई थीं और संगठन को प्रतिबंधित कर दिया गया था. 4 फरवरी के एक सरकारी पत्राचार में सरकार ने यह स्पष्टीकरण दिया था:
‘‘देश में सक्रिय नफ़रत और हिंसा की शक्तियों को, जो देश की आज़ादी को ख़तरे में डालने का काम कर रही हैं, जड़ से उखाड़ने के लिए… भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ग़ैरक़ानूनी घोषित करने का फ़ैसला किया है. देश के कई हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कई व्यक्ति हिंसा, आगजनी, लूटपाट, डकैती, हत्या आदि की घटनाओं में शामिल रहे हैं और उन्होंने अवैध हथियार तथा गोला-बारूद जमा कर रखा है. वे ऐसे पर्चे बांटते पकड़े गए हैं, जिनमें लोगों को आतंकी तरीक़े से बंदूक आदि जमा करने को कहा जा रहा है…संघ की गतिविधियों से प्रभावित और प्रायोजित होनेवाले हिंसक पंथ ने कई लोगों को अपना शिकार बनाया है. उन्होंने गांधी जी, जिनका जीवन हमारे लिए अमूल्य था, को अपना सबसे नया शिकार बनाया है. इन परिस्थितियों में सरकार इस ज़िम्मेदारी से बंध गई है कि वह हिंसा को फिर से इतने ज़हरीले रूप में प्रकट होने से रोके. इस दिशा में पहले क़दम के तौर पर सरकार ने संघ को एक ग़ैरक़ानूनी संगठन घोषित करने का फ़ैसला किया है.’’
सरदार पटेल, जिन पर आज आरएसएस अपना दावा करता है, ने गोलवलकर को सितंबर में आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने के कारणों को स्पष्ट करते हुए खत लिखा था. उन्होंने लिखा कि आरएसएस के भाषण ‘‘सांप्रदायिक उत्तेजना से भरे हुए होते हैं… देश को इस ज़हर का अंतिम नतीजा महात्मा गांधी की बेशक़ीमती ज़िंदगी की शहादत के तौर पर भुगतना पड़ा है. इस देश की सरकार और यहां के लोगों के मन में आरएसएस के प्रति रत्ती भर भी सहानुभूति नहीं बची है. हक़ीक़त यह है कि उसका विरोध बढ़ता गया. जब आरएसएस के लोगों ने गांधी जी की हत्या पर ख़ुशी का इज़हार किया और मिठाइयां बाटीं, तो यह विरोध और तेज़ हो गया. इन परिस्थितियों में सरकार के पास आरएसएस पर कार्रवाई करने के अलावा और कोई चारा नहीं था.’’
18 जुलाई, 1948 को लिखे एक और खत में पटेल ने हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को कहा, ‘‘हमारी रिपोर्टों से यह बात पक्की होती है कि इन दोनों संस्थाओं (आरएसएस और हिंदू महासभा) ख़ासकर आरएसएस की गतिविधियों के नतीजे के तौर पर देश में एक ऐसे माहौल का निर्माण हुआ जिसमें इतना डरावना हादसा मुमकिन हो सका.’’
अदालत में गोडसे ने दावा किया कि उसने गांधीजी की हत्या से पहले आरएसएस छोड़ दिया था. यही दावा आरएसएस ने भी किया था. लेकिन इस दावे को सत्यापित नहीं किया जा सका, क्योंकि जैसा कि राजेंद्र प्रसाद ने पटेल को लिखी चिट्ठी में ध्यान दिलाया था, ‘‘आरएसएस अपनी कार्यवाहियों का कोई रिकॉर्ड नहीं रखता… न ही इसमें सदस्यता का ही कोई रजिस्टर रखा जाता है.’’ इन परिस्थितियों में इस बात का कोई सबूत नहीं मिल सका कि गांधी की हत्या के वक़्त गोडसे आरएसएस का सदस्य था.”
लेकिन नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे, जिसे गांधी की हत्या के लिए नाथूराम गोडसे के साथ ही सह-षड्यंत्रकारी के तौर पर गिरफ़्तार किया गया था और जिसे जेल की सज़ा हुई थी, ने जेल से छूटने के 30 वर्षों के बाद फ्रंटलाइन पत्रिका को दिए गए एक इंटरव्यू में कहा था कि नाथूराम गोडसे ने कभी भी आरएसएस नहीं छोड़ा था और इस संबंध में उसने अदालत के सामने झूठ बोला था. उसने कहा, ‘‘हम सभी भाई आरएसएस में थे. नाथूराम, दत्तात्रेय, मैं और गोविंद. आप ये कह सकते हैं कि हमारी परवरिश घर पर न होकर आरएसएस में हुई. यह हमारे लिए परिवार की तरह था. नाथूराम ने अपने बयान में कहा है कि उसने आरएसएस छोड़ दिया था. उसने ऐसा इसलिए कहा था क्योंकि गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आरएसएस बड़े संकट में थे. लेकिन सच्चाई यही है कि उसने आरएसएस नहीं छोड़ा था.’’ उसके परिवार के एक सदस्य द्वारा इकोनॉमिक टाइम्स को दिए गए एक हालिया इंटरव्यू से भी इस बात की पुष्टि होती है.
फ्रंटलाइन को दिए गए इंटरव्यू में गोपाल गोडसे ने और आगे बढ़ते हुए नाथूराम गोडसे से पल्ला झाड़ लेने के लिए लालकृष्ण आडवाणी पर ‘कायरता’ का आरोप लगाया था. गोपाल गोडसे ने शिकायत की थी, ‘‘आप यह कह सकते हैं कि आरएसएस ने यह प्रस्ताव पारित नहीं किया था जिसमें कहा गया था कि ‘जाओ गांधी की हत्या कर दो’ लेकिन आप उसे बेदख़ल नहीं कर सकते.’’
लेकिन गांधी की हत्या के वक़्त नाथूराम गोडसे के आरएसएस के सदस्य होने के बारे में गोपाल गोडसे के क़बूलनामे से काफ़ी पहले जुलाई, 1949 में सरकार ने साक्ष्यों के अभाव में आरएसएस पर लगाया गया प्रतिबंध हटा दिया था. लेकिन ऐसा करने से पहले पटेल के कठोर दबाव में आरएसएस ने अपने लिए एक संविधान का निर्माण किया जिसमें यह स्पष्ट तौर से लिखा गया था कि ‘‘आरएसएस पूरी तरह से सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रति समर्पित रहेगा’’ और किसी तरह की राजनीति मे शामिल नहीं होगा.
चार महीने बाद, जबकि संविधान की प्रारूप समिति ने संविधान लिखने की प्रक्रिया पूर्ण कर ली थी, आरएसएस ने अपने मुखपत्र द ऑर्गेनाइजर में 30 नवंबर, 1949 को छपे एक लेख में संविधान के एक अनुच्छेद को लेकर अपना विरोध प्रकट किया:
‘‘लेकिन हमारे संविधान में प्राचीन भारत में हुए अनोखे संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं किया गया है….आज की तारीख में भी मनुस्मृति में लिखे गए क़ानून दुनियाभर को रोमांचित करते हैं और उनमें ख़ुद-ब-ख़ुद एक आज्ञाकारिता और सहमति का भाव जगाते हैं. लेकिन संविधान के पंडितों के लिए इसका कोई मोल नहीं है’’
यहां आरएसएस संविधान की तुलना में मनुस्मृति को श्रेष्ठ बताकर, शायद अपनी या कम से अपने नेताओं की प्रतिक्रियावादी मानसिकता को समझने का मौक़ा दे रहा था. वह उसी मनुस्मृति जो कि एक क़ानूनी संहिता है, को इतना महान दर्जा दे रहा था जिसके मुताबिक, ‘‘शूद्रों के लिए ब्राह्मणों की सेवा से बढ़कर कोई और दूसरा रोज़गार नहीं है; इसके अलावा वह चाहे जो काम कर ले, उसका उसे कोई फल नहीं मिलेगा’’; यह वही शोषणपरक मनुस्मृति है, जो शूद्रों को धन कमाने से रोकती है- ‘‘वह भले सक्षम हो, लेकिन धन संग्रह करनेवाला शूद्र ब्राह्मणों को कष्ट पहुंचाता है’’.
संविधान की जगह मनुस्मृति को लागू कराने का अभियान संविधान को आधिकारिक तौर पर स्वीकार कर लिए जाने के बावजूद अगले साल तक चलता रहा. ‘मनु हमारे दिलों पर राज करते हैं’ शीर्षक से लिखे गए संपादकीय में आरएसएस ने चुनौती के स्वर में लिखा:
‘‘डॉ. आंबेडकर ने हाल ही में बॉम्बे में कथित तौर पर भले ही यह कहा हो कि मनुस्मृति के दिन लद गए हैं, लेकिन इसके बावजूद तथ्य यही है कि आज भी हिंदुओं का दैनिक जीवन मनुस्मृति और दूसरी स्मृतियों में वर्णित सिद्धांतों और आदेशों के आधार पर ज़्यादा चलता है. यहां तक कि आधुनिक हिंदू भी किसी न किसी मामले में ख़ुद को स्मृतियों में वर्णित क़ानूनों से बंधा हुआ पाता है और उन्हें पूरी तरह से नकारने के मामले में ख़ुद को अशक्त महसूस करता है.’’
लेकिन अब वे देशभक्त हैं
इसलिए निष्कर्ष में मैं यह सवाल करना चाहूंगा कि आख़िर कौन सा शब्द उस पंथ के लिए सही बैठेगा जो उपनिवेशी सरकार के सामने घुटनों के बल पर बैठ गया और जिसने देश को आज़ाद कराने के लिए चलाए जा रहे जन आंदोलन का विरोध किया; वह पंथ जिसने देश के राष्ट्रीय झंडे और संविधान का विरोध किया और जिसके लोगों ने देश की जनता द्वारा राष्ट्रपिता कहकर पुकारे जाने वाले महात्मा गांधी की हत्या के बाद ‘‘ख़ुशियां मनाईं और मिठाइयां बांटीं’’? क्या उन्हें गद्दार का दर्जा दिया जाए? नहीं. हमारे समय में जब राजनीतिक बहसों के लिए इतिहास एक बेमानी चीज़ हो गया है, वे ‘‘राष्ट्रवादी’’ हैं और बाकी सब ‘‘देशद्रोही’’.
(पवन कुलकर्णी स्वतंत्र पत्रकार हैं.)
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