1984 नरसंहार: सज्जन कुमार के बाद अब पुलिस की जवाबदेही तय करने का वक़्त है

भारतीय लोकतंत्र का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि इस तरह के जघन्य अपराध भुलाए नहीं जाएंगे और दोषी किसी क़ीमत पर नहीं बचेंगे.

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(फोटोः रॉयटर्स)

भारतीय लोकतंत्र का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि इस तरह के जघन्य अपराध भुलाए नहीं जाएंगे और दोषी किसी क़ीमत पर नहीं बचेंगे.

Police stand guard outside the residence of the Chief of India's ruling Congress party Sonia Gandhi during a protest in New Delhi May 2, 2013. Hundreds of Sikh protesters on Thursday held a demonstration outside the residence of Sonia Gandhi against the acquittal of Congress leader Sajjan Kumar in a 1984 anti-Sikh riots case, protesters said. More than 2,500 people died in a wave of attacks on Sikhs in 1984 after the then Prime Minister Indira Gandhi was shot dead by her Sikh bodyguards. REUTERS/Mansi Thapliyal (INDIA - Tags: CRIME LAW POLITICS CIVIL UNREST) - RTXZ7AY
फोटो: रॉयटर्स

नवंबर, 1984 में चार दिनों तक चली हिंसा में हिंसक गिरोहों द्वारा राष्ट्रीय राजधानी में संसद भवन के कुछ किलोमीटर के दायरे में 2,733- संभवतः इससे ज्यादा- सिखों की हत्या कर दी गई.

चार दिनों तक चली इस मारकाट में पुलिस की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मिलीभगत थी. चार दिनों तक अधिकारीगण कर्फ्यू लगाने से इनकार करते रहे. चार दिनों तक तत्कालीन सरकार ने सेना को तैनान नहीं किया.

उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा, ‘जब बड़ा पेड़ गिरता है, तब पृथ्वी थोड़ी कांपती ही है.’ उस समय दूरदर्शन और आकाशवाणी को तो छोड़ ही दीजिए, इस नरसंहार की कोई मुख्यधारा में कोई कवरेज भी नहीं हुई.

34 सालों के बाद, 17 दिसंबर को दिल्ली उच्च न्यायालय ने 1984 के सिख विरोधी नरसंहार में सज्जन कुमार को दोषी करार दिया. उन्हें दोषी करार देते हुए उच्च न्यायालय ने इस मामले में कांग्रेस नेता को बरी करने के निचली अदालत के फैसले को पलट दिया.

जस्टिस एस. मुरलीधर और विनोद गोयल की पीठ ने 1984 की हत्याओं को ‘मानवता के खिलाफ अपराध’ की संज्ञा दी, जिसे राजनीतिक संरक्षण प्राप्त लोगों द्वारा अंजाम दिया गया और जिसमें कानून लागू करने वाली संस्थाओं के उदासीन रवैये ने मदद पहुंचाई.’

दिल्ली उच्च न्यायालय ने ‘हिंसा को रोकने और नियंत्रित करने में नाकाम रहने के लिए’ दिल्ली पुलिस को भी आड़े हाथों लिया. न्यायालय ने कहा, ‘पुलिस अलग-अलग एफआईआर दर्ज करने में नाकाम रही और पुलिस की रोजाना डायरियों में कुछ भी दर्ज नहीं था.’

पुलिस और उनके नेताओं, भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्यों ने उन चार दिनों के दौरान क्या किया और वे नरसंहार को अंजाम देनेवालों को 34 साल तक शान से खुला घूमने देने में किस तरह से मददगार हो सके?

यहां इसका ब्यौरा है.

एक, यह तथ्य कि पुलिस को 1 नवंबर से दिल्ली भर में हो रही मारकाट की पूरी जानकारी थी, खुद पुलिस द्वारा दर्ज प्राथमिकियों में ही दस्तावेज के तौर पर मौजूद है.

दो, 1 नवंबर, की सुबह दिल्ली पुलिस के एक रेडियो आदेश ने सभी सिख पुलिस अधिकारियों को अपने हथियार जमा करा देने और ड्यूटी से अवकाश लेने का निर्देश दिया गया. जब वे पुलिस स्टेशन छोड़कर निकले, उन्हें यह मालूम नहीं था कि वे एक होलोकॉस्ट में दाखिल हो रहे हैं, ‘… कुछ अपने घरों को जानेवाले रास्ते में मार डाले गए और कुछ बाद में अपने परिवारों के साथ.’

29 सालों के बाद कोबरापोस्ट ने 1984 की हिंसा की जांच पर ‘चैप्टर 84’ का प्रसारण किया, जिसमें दिल्ली पुलिस के 8 पूर्व अधिकारियों ने बताया कि ‘कैसे उन्होंने ऊपर से आए आदेश के अनुसार काम किया था’, जो तत्कालीन कांग्रेसी सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाला था.

सज्जन कुमार (फोटो: पीटीआई)
सज्जन कुमार (फोटो: पीटीआई)

तीन, प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक पुलिस ने सिखों से हथियार जमा करवा कर उन्हें अपनी रक्षा करने से रोका. उसके बाद उन्होंने गिरोहों को हमला करने की इजाजत दी. पुलिस ने सिखों को बाहर निकालने के लिए मनाया और उसके बाद हाथ पर हाथ रख उनकी हत्या होता देखती रही.

एक बयान के मुताबिक एक पुलिस अधिकारी को यह कहते हुए सुना गया, ‘तुम्हारे पास अपने मन के मुताबिक करने के लिए 36 घंटे हैं.’ बाद में दिल्ली फायर सर्विस ने यह शिकायत की कि पुलिस ने आगजनी वाले स्थलों तक उसके साथ जाने से इनकार कर दिया था.

चार, सरकार द्वारा केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) और सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के अर्धसैनिक बलों की तैनाती की घोषणा के बावजूद वे कहीं मौजूद नहीं थे. निजामुद्दीन पुलिस स्टेशन के ड्यूटी अधिकारी ने बताया, ‘मैंने हर दस मिनट में सीआरपीएफ और बीएसएफ के कंट्रोल रूम में फोन लगाया, लेकिन हर बार मुझे कहा गया कि वे कुछ नहीं कर सकते हैं.’

पांच, सब कुछ पूरे इत्मीनान के साथ किया जा रहा था- हत्याएं, आगजनी और लूटपाट. आउटलुक की एक रिपोर्ट के मुताबिक:

शराब पानी की तरह बह रही थी, अपने स्टूल पर बैठी ‘चौकन्नी’ पुलिस को चाय परोसी जा रही थी, चुटकुलों का दौर चल रहा था, चारों तरफ ठहाके और आनंद का माहौल था, ट्रक के ट्रक आते थे और उनमें लूट का माल भरकर उन्हें बिना किसी जल्दबाजी के सुरक्षित जगहों की ओर भेज दिया जाता था- सूट-बूट पहने आदमियों से भरी कारें कुछ देर के लिए यह देखने आतीं कि सब योजना के मुताबिक चल रहा है कि नहीं.’

छह, यह मिलीभगत इतनी व्यापक थी कि त्रिलोकपुरी के ब्लॉक 32 के नरसंहार की खबर के बाहर आने में 36 घंटे का वक्त लगा, जबकि यह दिल्ली पुलिस मुख्यालय से बमुश्किल 10 किलोमीटर की दूरी पर था. लेकिन सिर्फ कुछ पुलिस अधिकारी, जिनमें एक मैक्सवेल परेरा थे, पीड़ितों के पक्ष में खड़े हुए.

बाकी के शीर्ष अधिकारी सत्ताधारी दल के सामने नतमस्तक हो गए और पुलिस मशीनरी को प्रशासनिक रूप से जाम कर दिया. आमोद कंठ को तो वीरता पुरस्कार तक प्रदान किया गया, जबकि रंगनाथ मिश्रा समिति ने यह टिप्पणी की थी कि वे पुलिसकर्मी होने के योग्य नहीं थे.

(फोटो: रॉयटर्स)
(फोटो: रॉयटर्स)

सात, कुछ जगहों पर ‘पुलिस ने सिखों के शवों को ट्रकों में भरकर हटवा दिया’, ताकि सबूतों को नष्ट किया जा सके. 2 नवंबर की आधी रात से 4 बजे सुबह तक, जैसा कि दिल्ली के सबसे ज्यादा प्रभावित इलाके त्रिलोकपुरी के ब्लॉक 29 के 37 वर्षीय निवासी तेजिंदर सिंह ने बताया, ‘पुलिस ने ब्लॉक 30 और 32 के सिखों के शवों को ट्रकों में भरकर हटाया. मैंने पुलिस को ऐसे आठ ट्रक ले जाते हुए देखा.’

पुलिस के अलावा कांग्रेस पार्टी को न्यायपालिका के भीतर भी कुछ रजामंद समर्थक मिल गए. उस समय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा, जो चाहते थे कि लोग भूल जाएं कि 1984 में क्या हुआ था, 1990 में भारत के मुख्य न्यायाधीश बनाए गए और उसके बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पहले अध्यक्ष और उसके बाद कांग्रेस पार्टी की तरफ से 1998-2004 तक राज्यसभा सांसद बनाए गए. यह एक राष्ट्रीय शर्म की बात है.

क्या आजाद भारत में कांग्रेस इकलौती राजनीतिक पार्टी है, जिसकी सड़कों पर आम लोगों की हत्याओं में भूमिका रही है? क्या ये वो इकलौती पार्टी है जिसके हाथ खून से सने हुए हैं? क्या नवंबर, 1984 एकमात्र उदाहरण है, जब सत्ताधारी दल ने अपने समर्थकों को खुली छूट दी और कानून लागू करने वाली संस्थाओं को हाथ पर हाथ धरे बैठने का निर्देश दिया.

इसका जवाब है, नहीं.

जरूरत है कि भारत के नीति-निर्माता पुलिस और पुलिस का नेतृत्व करने वालों की गलतियों और अपराधों के लिए जवाबदेही तय करें. बार-बार हो रही ऐसी घटनाओं, जिनमें आम लोगों जान गंवाते हैं, के होने की एक वजह यह भी है कि ज्यादातर समय इन सांप्रदायिक भीड़ के रहनुमाओं का बाल भी बांका नहीं होता.

भारतीय संविधान जितनी जिम्मेदारी नियमित तौर पर आम चुनाव कराने को लेकर है, उतनी ही राज्य की मशीनरी- नौकरशाही, पुलिस, सेना आदि- को जनता के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के प्रति जवाबदेह बनाने को लेकर भी है और यह जवाबदेही इसकी औपचारिक कानूनी परिभाषा तक ही सीमित नहीं है.

यह एक लोकतंत्र के तौर पर भारत का भविष्य एक कठोर संकल्प पर निर्भर करता है कि ऐसे जघन्य अपराधों को कभी भुलाया नहीं जाएगा और दोषी कभी बच नहीं पाएंगे.

यह एक बड़ी हिंदू आबादी वाले देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए मौजूद जोखिम का मामला नहीं है-  1984 असल में यह दिखाता है कि कोई आम इंसान ऐसी स्थिति में कितना असुरक्षित हो सकता है, जब उसे ऐसे समूह का हिस्सा मान लिया जाए, जिसे ‘सबक सिखाए जाने की जरूरत है.’

1984 के नवंबर में दिल्ली और देश के दूसरे हिस्सों में सिख समुदाय के साथ जो हुआ, वह किसी भी समय किसी के भी साथ हो सकता है. ऐसा हम 2002 के गुजरात दंगों के समय देख भी चुके हैं.

(बसंत रथ 2000 बैच के जम्मू-कश्मीर कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं.)

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