राजनीति में परिवारवाद से दूर रहने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत दलित-पिछड़े नेतृत्व को है, लेकिन दुखद यह है कि ये ताकतें सबसे पहले अपने परिवार को ही अपनी विरासत सौंपती हैं.
मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर अपने और बसपा के उत्तराधिकारी के कयासों पर विराम लगा दिया है. घोषित तौर पर अब आनंद की हैसियत नंबर दो की हो गई है.
कई साल पहले 2009 में मायावती ने आज़मगढ़ के रहने वाले वर्तमान राज्यसभा सदस्य राजाराम को अपना राजनीतिक वारिस घोषित किया था और पूरी पार्टी तत्कालीन विधान परिषद के सदस्य के पांव में लोटने लगी थी.
मायावती ने अपने ख़राब स्वास्थ्य को इसका कारण बताया और इसके लिए भी भाजपा पर हमला किया. अपने लिखित भाषण में मायावती ने कहा कि मेरे सगे संबंधियों की लिस्ट बनाई जा रही है, मेरे ख़िलाफ़ साज़िश की जा रही है जिससे कि मैं भाजपा और उसकी ग़लत नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ ना उठा सकूं. लेकिन ऐसा नहीं होगा, मेरे मरते दम तक नहीं होगा. मेरे भाई आनंद को फंसाया जा रहा है. मैं आनंद को अब बसपा संगठन में महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दे रही हूं.
मायावती ने इसमें चालाकी से यह भी बताया कि आनंद कभी भी पार्टी में विधायक, सांसद या सीएम नहीं बनेगा इसी शर्त पर मैं उसे बसपा का पार्टी उपाध्यक्ष बनाती हूं.
परिवर्तनकामी समर्थक हैं दुखी
मायावती की राजनीति पर नजर रखने वाले लोगों के लिए यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है. पार्टी में कब कौन नंबर दो हो जाए और कब किसे किस परिस्थिति में बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए, कहा नहीं जा सकता है.
लेकिन बसपा की राजनीति और बामसेफ से जुड़े लोगों के लिए यह ख़बर चौंकाने वाली थी. वे मानते हैं कि मायावती के इस कदम से कांशीराम का आदर्श धराशायी हो गया है.
बसपा से जुड़े पुराने कार्यकर्ताओं का मानना है कि पार्टी क्लास में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) और बसपा के कार्यकर्ताओं को यह बताया जाता था कि मान्यवर और बहनजी ने दलित समाज के लिए अपनी नौकरी और परिवार छोड़ दिया है.
उन्होंने बाबा साहब भीमराव आंबेडकर के सपने को साकार करने के लिए पहले बामसेफ और फिर बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की.
बाबा साहब के महाप्रयाण दिवस पर 1978 में कांशीराम ने बामसेफ की स्थापना करके पूरे देश में दलित-बहुजन समाज के पढ़े-लिखे लोगों को संगठित करना शुरू किया.
वह साइकिल से घूमते थे, मोची और चाय की दुकान पर बैठकर उन समाज के लोगों को संगठित करने के लिए घंटों बैठा करते थे. छह साल की अनवरत मेहनत के बाद 1984 में उन्होंने बसपा की स्थापना कर दलितों को राजनीतिक धुरी बनाने में जुट गए.
कांशीराम ने सार्वजनिक रूप से अपने परिवार से संबंध तोड़ने, जीवन भर अपना मकान न बनाने, संपत्ति अर्जित न करने और पद प्रतिष्ठा का मोह छोड़ने की घोषणा की.
अपने जीवनकाल में वे अपने पिता और परिजनों के मृत्यु समाचार सुनने के बाद भी घर वापस नहीं गए. कांशीराम की छत्रछाया में मायावती ने भी भी दलित समाज की बेहतरी के लिए न सिर्फ़ अपनी नौकरी छोड़ी बल्कि अपने घर-परिवार से नाता ख़त्म कर लिया.
कांशीराम का मानना था कि अब वह केवल एक परिवार के नहीं हैं बल्कि देशभर के दलित, वंचित और शोषित तबका उनके अपने परिवार जैसा है. इस व्रत का कांशीराम ने आजीवन पालन किया.
इसी घोषणा और व्रत का हवाला देते हुए मायावती ने कांशीराम के सगे भाई और परिजनों को 2006 में उनके निधन के बाद भी अंतिम संस्कार से दूर रखा.
सामाजिक परिवर्तन का नारा देने वाली पार्टियां इसका अधिक शिकार
लेकिन मायावती के इस फैसले को अलहदा करके देखना मायावती और बसपा के साथ नाइंसाफी होगी. इस देश में सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई को सबसे मजबूती से लड़ने वाली पार्टी डीएमके की विरासत का कुछ हद तक फैसला अभी थोड़े दिन पहले हुआ है जिसमें करुणानिधि ने अपने बेटे स्टालिन को ही अपनी विरासत सौंपी है.
इसी तरह गांधी-नेहरू के परिवारवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने वाले लोहियावादी व चौधरी चरण सिंह के शिष्य मुलायम सिंह यादव ने जब समाजवादी पार्टी बनाई तो राजनीतिक उत्तराधिकार अपने बेटे को सौंपा.
इतना ही नहीं, जब मुलायम सिंह अखिलेश यादव को ‘राजपथ’ पर ला रहे थे तो छोटे लोहिया के नाम से मशहूर जनेश्वर मिश्र उस साइकिल यात्रा को हरी झंडी दिखा रहे थे. यह वही ‘छोटे लोहिया’ थे जो जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी का परिवारवाद को बढ़ावा देने के लिए धज्जिया उड़ाने का कोई अवसर चूकते नहीं थे.
इसके अलावा कर्पूरी ठाकुर और जय प्रकाश नारायण के सबसे ‘प्रतिभाशाली’ शिष्य लालू प्रसाद यादव को सामाजिक न्याय का सबसे बड़ा झंडाबरदार अपने परिवार में ही मिला. सबसे पहले उन्होंने अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनाया और बाद में छोटे बेटे को उपमुख्यमंत्री, बड़े बेटे को मंत्री और बड़ी बेटी को राज्यसभा में जगह दिलवाई.
कुछ बड़े नेता रहे हैं इसके अपवाद
ऐसा नहीं है कि यह परंपरा सामाजिक परिवर्तन चाहने वाली राजनीतिक दलों के साथ हमेशा से रही है. इसी धारा में अनेक ऐसे व्यक्ति रहे हैं जिन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत वैसे लोगों को सौंपी जिनका अपने परिवार और जाति से दूर-दूर तक का वास्ता नहीं था.
जब जनता पार्टी ने कर्पूरी ठाकुर के साथ-साथ उनके बड़े बेटे रामनाथ ठाकुर को टिकट दे दिया था तो कर्पूरी ठाकुर ने अपना नाम यह कहते हुए उस लिस्ट से काट दिया था कि एक परिवार से एक व्यक्ति ही रहेगा, अगर पार्टी मेरे बेटे में इतनी राजनीतिक प्रतिभा देखती है तो मैं अपना नाम वापस लेता हूं.
इसी तरह, चौधरी चरण सिंह जब तक स्वस्थ रहे अपने बेटे को राजनीति में नहीं आने दिया. स्वास्थ्य कारणों से जब वे और कमज़ोर पड़ गए तो आंतरिक राजनीति में अजीत सिंह को लोकदल में बा-हैसियत रोपा गया.
यही हाल बीजू पटनायक का था. उनके जीते जी परिवार का कोई भी व्यक्ति राजनीति में नहीं आया. बीजू पटनायक के निधन के बाद नवीन पटनायक ने बीजू जनता दल का गठन किया और राज्य के मुख्यमंत्री बने.
भाजपा और उसके सहयोगी दलों का भी वही हाल
लेकिन ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ सामाजिक न्याय की बात करने वाली पार्टियां ही अपनी विरासत अपने परिवारवालों को सौंपी है. उदाहरण के लिए शिवसेना को लिया जा सकता है.
बालासाहेब ठाकरे ने यह पार्टी बनाई और अपने बेटे उद्धव ठाकरे को राजनीतिक विरासत सौंपी. उद्धव ने अपने बेटे आदित्य को युवा विंग का कमान थमा दिया है. कांग्रेस के ख़िलाफ़ परिवारवाद का आरोप लगाकर ही सारी राजनीतिक पार्टियां कामयाब हुई हैं, इसलिए उस पर बात करने की बहुत ज़रूरत नहीं है.
जिस भाजपा द्वारा राजनीतिक सुचिता पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है, वह भी पारिवारिक दलदल में किसी से कम नहीं धंसी है.
भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में अटल, आडवाणी के साथ ही विजयाराजे सिधिंया भी रही हैं. इसमें आडवाणी के परिवार का कोई व्यक्ति अभी तक राजनीति में नहीं है. लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के कई रिश्तेदार विभिन्न हैसियत से मध्य प्रदेश से लेकर उत्तर प्रदेश तक विभिन्न राजनीतिक पदों पर रहे.
विजयाराजे सिंधिया की एक बेटी वसुधंरा राजे सिंधिया राजस्थान की दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी हैं तो उनकी दूसरी बहन यशोधरा राजे सिंधिया शिवराज सिंह चौहान के कैबिनेट में मंत्री हैं. जबकि वसुधंरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह भाजपा से ही कई वर्षों से सांसद हैं.
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के बेटे सांसद हैं तो उत्तर प्रदेश के भाजपा के सबसे बड़े नेता कल्याण सिंह के बेटे सांसद हैं और पोता विधायक. कांग्रेस के परिवारवाद के ख़िलाफ़ बिगुल छेड़ने वाली भाजपा के कई नेताओं के परिवार के सदस्य राजनीति में हैं.
कबीना मंत्री रविशंकर प्रसाद के पिता ठाकुर प्रसाद जनसंघ के बड़े नेता थे और बिहार में संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकार में मंत्री भी थे. इसी तरह वर्तमान ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल के पिता वेद प्रकाश गोयल भी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में कबीना मंत्री थे.
वाजपेयी सरकार में बड़े मंत्री रहे यशवंत सिन्हा के पुत्र जयंत सिन्हा मोदी कैबिनेट में मंत्री हैं, लेकिन यह पार्टी भारतीय जनमानस में पूरी तरह परिवारवाद से मुक्त है.
डीएमके को तो छोड़ ही दीजिए, भाजपा की सहयोगी तेलगु देशम पार्टी के चंद्रबाबू नायडू ने अभी-अभी अपने बेटे को कैबिनेट मंत्री बनाया है तो दूसरे सहयोगी रामविलास पासवान अपने सांसद बेटे व भाई के साथ ख़ुद मोदी कैबिनेट में ही मंत्री हैं.
वामपंथ को छोड़ कोई भी दल अछूता नहीं
जो भी हो, भारतीय राजनीति में वामपंथी दलों को छोड़कर सभी दलों ने अपने परिवार को बढ़ावा दिया है. ऐसा नहीं है कि वामपंथी दलों ने अपने परिवारवालों की मदद नहीं की लेकिन उनका मदद ज़्यादातर मामले में अपने परिवारवालों को स्कॉलरशिप दिलाकर विदेश भेजने तक सीमित रहा.
आंदोलन को होता है नुकसान
इतना तो तय है कि सामाजिक परिवर्तन के लिए काम करने वाली पार्टियों पर इस तरह के आरोप बड़ी आसानी से चस्पा हो जाते हैं क्योंकि उनसे उनके जनमानस को अपेक्षाएं बहुत रहती है.
अपने गरीब-मजलूम समाज के लिए बहुत कुछ करने का दायित्व होता है, लेकिन उनके हितों की कसौटी पर खरा न उतर पाना व सामाजिक और आर्थिक दबाव भी उन्हें अपने परिवारों की आर्थिक हित सुरक्षित रखने के लिए वे परिवार को राजनीति में उतारते हैं.
इसके अलावा इनके हित इतने छोटे-छोटे होते हैं कि सब पर वे विश्वास भी नहीं कर पाते हैं. लेकिन अपनी विरासत अपने परिवार को सौंपने से सामाजिक और राजनीतिक दिशा विचलित होती है और दोनों हितों को नुकसान पहुंचता है.
इसलिए परिवारवाद से दूर रहने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत दलित-पिछड़े नेतृत्व को है, लेकिन दुखद यह है कि ये ताकतें सबसे पहले अपने परिवार को ही अपनी विरासत सौंपती हैं.
यही कारण है कि डीएमके प्रमुख करुणानिधि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को समर्थन देने को तैयार नहीं था लेकिन मुरासोली मारन के मनाने के बाद करुणानिधि ने वाजपेयी को समर्थन दे दिया.
बाद में करुणानिधि ने उसी दिन कहा, ‘कल तक डीएमके एक सामाजिक आंदोलन था आज से यह राजनीतिक पार्टी हो गई है’. यही हाल बसपा का हुआ है.
कांशीराम के नेतृत्व में वह सामाजिक आंदोलन की पार्टी थी, मायावती ने बाद में उसे राजनीतिक पार्टी बनाया और आनंद कुमार को अपनी विरासत सौंपने की घोषणा करके बसपा को प्राइवेट लिमिटेड पार्टी बना दिया.