जब प्रधानमंत्री कार्यालय पर ही सवाल हों, तब प्रधानमंत्री उससे जुड़े किसी मामले में फ़ैसला कैसे कर सकते हैं?
केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के निदेशक आलोक वर्मा को सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनके पद पर फिर से बहाल किए जाने के 72 घंटे के भीतर जिस तरह से प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति ने फिर से उन्हें पद से हटा दिया वह नैतिक और प्रक्रियागत दोनों ही मानदंडों पर बुनियादी तौर पर दोषपूर्ण है.
निश्चित तौर पर समिति ने नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन किया है, क्योंकि इसने वर्मा का पक्ष सुने बिना आनन-फानन में उनका तबादला कर दिया. लेकिन यह समस्या का बस एक हिस्सा है. बड़ा नैतिक-कानूनी मुद्दा यह है कि प्रधानमंत्री एक ऐसे मामले पर फैसला कर रहे थे, जिसमें उनका कार्यालय ही आरोपों के घेरे में है.
क्या मोदी को भी खुद को इस मामले से अलग नहीं कर लेना चाहिए था? प्रधानमंत्री वैसे मामलों में फैसला लेनेवाले की कुर्सी पर कैसे बैठ सकते हैं, जहां उनका अपना ही कार्यालय सवालों से घिरा हुआ है?
यहीं पर स्वतंत्र लोकतंत्र का न होना खलता है, जिसकी निगरानी में सीबीआई वैसे मामलों की जांच करती, जिसमें प्रधानमंत्री या पीएमओ पर आरोप हों.
आखिर, सिर्फ आलोक वर्मा ही नहीं, बल्कि एमके सिन्हा और एके शर्मा जैसे दूसरे प्रतिष्ठित सीबीआई अधिकारियों ने भी प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) पर कुछ महत्वपूर्ण मामलों में निष्पक्ष जांच में अड़ंगा लगाने का आरोप लगाया है.
एक योग्य और ईमानदार अधिकारी की छवि वाले सिन्हा सीबीआई की भ्रष्टाचार विरोधी शाखा (एंटी करप्शन ब्रांच) के मुखिया थे. उन्होंने सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के खिलाफ दायर किए गए रिश्वतखोरी के मामले में पीएमओ के हस्तक्षेप के सिलसिले में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल का नाम लिया है.
इससे भी ज्यादा खराब यह है कि सिन्हा ने आलोक वर्मा के मामले में सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने तीखे हलफनामे में सीबीआई को ‘सेंटर फॉर बोगस इन्वेस्टिगेशन’ (फर्जी जांच केंद्र) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को एक्सटॉर्शन डायरेक्टरेट (हफ्तावसूली निदेशालय) करार दिया है.
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अगर सीबीआई की एंटी करप्शन ब्रांच का मुखिया- मध्यरात्रि को वर्मा को हटाए जाने के बाद उनका तबादला कर दिया गया था- सीबीआई और ईडी के बारे में ऐसी राय रखता है, तो यह केवल पीएमओ और आमतौर पर राजनीतिक प्रतिष्ठान की सड़न की ओर ही इशारा करता है.
इसलिए यह कभी भी ‘सीबीआई बनाम सीबीआई’ का मामला था ही नहीं, जैसा कि मीडिया के एक बड़े हिस्से ने इसे बना दिया. यह काफी साफ है कि पीएमओ नियमित तौर पर सीबीआई और ईडी के कामकाज में दखलंदाजी कर रहा है.
जिस चीज के बारे में लोगों को ज्यादा नहीं पता है वह ईडी और पीएमओ के अधिकारियों के बीच चल रही लड़ाई है. ईडी के मुखिया, जो पिछले साल सेवानिवृत्त हो गए, ने ईडी अधिकारी राजेश्वर सिंह का बचाव करके खुले तौर पर पीएमओ की नाफरमानी की थी. सिंह कारोबारियों और राजनेताओं द्वारा मनी लॉन्ड्रिंग (काला धन को सफेद बनाने) की जांच कर रहे थे.
पीएमओ ने भ्रष्टाचार के आरोपों के इर्द-गिर्द राजेश्वर सिंह के खिलाफ एक विस्तृत शिकायत तैयार की थी, लेकिन ईडी के मुखिया, जिनकी नियुक्ति भी मोदी ने ही की थी, संयुक्त रैंक के अधिकारी राजेश्वर का पूरी मजबूती से बचाव कर रहे थे.
यह बात किसी को मालूम नहीं है कि राजेश्वर के खिलाफ पीएमओ द्वारा लगाए गए आरोप सही हैं या नहीं, लेकिन इस बात में किसी को कोई शक नहीं है कि राजेश्वर और ईडी के मुखिया पीएमओ के लिए एक सीमा तक ही उपयोगी थे और उसके बाद वे अवांछित हो गए.
सीबीआई भी इसी से मिलते-जुलते पैटर्न की गवाह रही है. आलोक वर्मा का चयन पीएमओ, बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि अजित डोभाल द्वारा किया गया था. लेकिन अचानक गले में पड़ी हड्डी बन गए, क्योंकि उन्होंने उनका हुक्म बजाने से इनकार कर दिया.
इसी तरह से गुजरात कैडर के एक और योग्य आईपीएस अधिकारी एके शर्मा को पीएमओ (पीएमओ) द्वारा सीबीआई में लाए गए थे. लेकिन आज शर्मा भी खुद को हाशिये पर पा रहे हैं, क्योंकि उन्होंने आलोक वर्मा के साथ अच्छा काम किया था.
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वर्मा दुश्मन भी बन गए क्योंकि वे यशवंत सिन्हा, प्रशांत भूषण और अरुण शौरी से राफेल करार पर मिली शिकायत पर प्रथमद्रष्टया जांच के मामले में स्वतंत्र सोच का संकेत दे रहे थे. वर्मा के पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ एक ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी भास्कर खुल्बे द्वारा कोयला आवंटन में भ्रष्टाचार का चल रहा मामला भी है.
यह सब राजनीतिक प्रतिष्ठान के सर्वोच्च स्तर पर फैले कीचड़ की तरफ इशारा करता है. इसलिए आलोक वर्मा का मामला कभी भी ‘सीबीआई बनाम सीबीआई’ जैसा सरल मामला नहीं था.
यह कभी भी सीबीआई के भीतर की अंदरूनी लड़ाई थी ही नहीं. इसका स्रोत राजनीतिक प्रतिष्ठान का सर्वोच्च स्तर था, जो राजनीतिक तौर पर संवेदनशील कई मामलों की दिशा को तय करना चाहता था. कठपुतली की डोर उन लोगों के हाथों में थी, जो ढेर के बिल्कुल शीर्ष पर बैठे थे.
राजनीतिक भ्रष्टाचार और मनी लॉन्ड्रिंग के कुछ कथित मामलों की दिशा तय करने में पीएमओ की प्रत्यक्ष संलिप्तता से इनकार नहीं किया जा सकता है. सीबीआई और ईडी के भीतर की लड़ाइयां इस तनाव का प्रकटीकरण थीं.
ऐसा गुजरात में भी मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के शासन में देखा गया जब राजनीतिक प्रतिष्ठान के प्रति अंधभक्ति रखनेवाले अधिकारियों और संवैधानिक प्रक्रियाओं के उल्लंघन का विरोध करनेवाले आईपीएस अधिकारियों के बीच सतत संघर्ष की स्थिति बनी हुई थी.
नई दिल्ली में ‘गुजरात मॉडल’ को इसलिए सफल नहीं हो पाया क्योंकि केंद्र में एक-दूसरे पर अंकुश लगाने की कहीं ज्यादा व्यवस्था है. मोदी और शाह ने इसका अंदाजा नहीं था.
इसमें कोई शक नहीं है कि आज हम जांच एजेंसियों में जो हम सांस्थानिक संकट देख रहे हैं, वह शीर्षस्थ स्तर से पैदा हुआ है. इसलिए यह बेहद बेतुका है कि प्रधानमंत्री सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा को हटाए जाने के लिए बैठी समिति की अध्यक्षता करें. नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत साथ इससे भद्दा मजाक और कुछ नहीं हो सकता.
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