कारवां का खुलासा: राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के बेटे की कंपनी टैक्स हेवन में

डी-कंपनी नाम से अब तक दाऊद का गैंग ही होता था. भारत में एक और डी कंपनी आ गई है. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और उनके बेटे विवेक और शौर्य के कारनामों को उजागर करने वाली कारवां पत्रिका की रिपोर्ट में यही शीर्षक दिया गया है.

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अजित डोभाल के बेटे विवेक डोभाल (बाएं) और शौर्य डोभाल (दाएं). (फोटो साभार: ​कारवां पत्रिका)

डी-कंपनी नाम से अब तक दाऊद का गैंग ही होता था. भारत में एक और डी कंपनी आ गई है. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और उनके बेटे विवेक और शौर्य के कारनामों को उजागर करने वाली कारवां पत्रिका की रिपोर्ट में यही शीर्षक दिया गया है.

अजित डोभाल के बेटे विवेक डोभाल (बाएं) और शौर्य डोभाल (दाएं). (फोटो साभार: कारवां पत्रिका)
अजित डोभाल के बेटे विवेक डोभाल (बाएं) और शौर्य डोभाल (दाएं). (फोटो साभार: कारवां पत्रिका)

डी-कंपनी नाम से अब तक दाऊद का गैंग ही होता था. भारत में एक और डी कंपनी आ गई है. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और उनके बेटे विवेक और शौर्य के कारनामों को उजागर करने वाली कारवां पत्रिका की रिपोर्ट में यही शीर्षक दिया गया है.

साल दो साल पहले हिन्दी के चैनल दाऊद को भारत लाने के कई प्रोपेगैंडा प्रोग्राम करते थे. उसमें डोभाल को नायक की तरह पेश किया जाता था. किसने सोचा होगा कि 2019 की जनवरी में जज लोया की मौत पर 27 रिपोर्ट छापने वाली कारवां पत्रिका डोवाल को डी-कंपनी का तमगा दे देगी.

कौशल श्रॉफ नाम के एक खोजी पत्रकार ने अमरीका, इंग्लैंड, सिंगापुर और केमैन आइलैंड से दस्तावेज़ जुटा कर डोभाल के बेटों की कंपनी का खुलासा किया है. कारवां पत्रिका के अनुसार ये कंपनियां हेज फंड और ऑफशोर के दायरे में आती हैं. टैक्स हेवन वाली जगहों में कंपनी खोलने का मतलब ही है कि संदिग्धता का प्रश्न आ जाता है और नैतिकता का भी.

यह कंपनी 13 दिन बाद 21 नवंबर 2016 को टैक्स केमैन आइलैंड में विवेक डोभाल अपनी कंपनी का पंजीकरण कराते हैं. कारवां के एडिटर विनोद होज़े ने ट्वीट किया है कि नोटबंदी के बाद विदेशी निवेश के तौर पर सबसे अधिक पैसा भारत में केमैन आइलैंड से आया था. 2017 में केमैन आइलैंड से आने वाले निवेश में 2,226 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी. अब इसका मतलब सीधे भ्रष्टाचार से है या महज़ नैतिकता से.

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के बेटे विवेक डोवाल भारत के नागरिक नहीं हैं. वे इंग्लैंड के नागरिक हैं. सिंगापुर में रहते हैं. GNY ASIA Fund का निदेशक है. केमैन आइलैंड, टैक्स चोरों के गिरोह का अड्डा माना जाता है.

कौशल श्रॉफ ने लिखा है कि विवेक डोवाल यहीं पर ‘हेज फंड’ का कारोबार करते हैं. बीजेपी नेता और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के बेटे शौर्य और विवेक का बिजनेस एक दूसरे से जुड़ा हुआ है. रिपोर्ट में कुछ जटिल बातें भी हैं जिन्हें समझने के लिए बिजनेस अकाउंट को देखने की तकनीकि समझ होनी चाहिए. कारवां की रिपोर्ट में विस्तार से पढ़ा जा सकता है.

2011 में अजित डोभाल ने एक रिपोर्ट लिखी थी कि टैक्स चोरी के अड्डों पर कार्रवाई करनी चाहिए. और उनके ही बेटे की कंपनी का नाम हेज फंड और ऐसी जगहों पर कंपनी बनाकर कारोबार करने के मामले में सामने आता है.

विवेक डोभाल की कंपनी के इसके निदेशक हैं डॉन डब्ल्यू ईबैंक्स और मोहम्मद अलताफ मुस्लियाम. ईबैंक्स का नाम पैराडाइज़ पेपर्स में आ चुका है. ऐसी कई फर्ज़ी कंपनियों के लाखों दस्तावेज़ जब लीक हुए थे तो इंडियन एक्सप्रेस ने भारत में पैराडाइज़ पेपर्स के नाम से छापा था.

उसके पहले इसी तरह फर्ज़ी कंपनियां बनाकर निवेश के नाम पर पैसे को इधर से उधर करने का गोरखधंधा पनामा पेपर्स के नाम से छपा था. पैराडाइज़ पेपर्स और पनामा पेपर्स दोनों में ही वॉल्कर्स कॉरपोरेट लिमिटेड का नाम है, जो विवेक डोवाल की कंपनी की संरक्षक कंपनी है.

कारवां ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि विवेक डोभाल की कंपनी में काम करने वाले कई अधिकारी शौर्य डोभाल की कंपनी में काम करते हैं. पत्रिका ने लिखा है कि इसका मतलब यह हुआ है कि कोई बहुत बड़ा फाइनेंशियल नेटवर्क चल रहा है.

इनकी कंपनी का नाता सऊदी अरब के शाही ख़ानदान की कंपनी से भी है. भारत की ग़रीब जनता को हिंदू-मुस्लिम परोस कर सऊदी मुसलमानों की मदद से धंधा हो रहा है. वाह मोदी जी वाह.

हिंदी के अख़बार ऐसी रिपोर्ट सात जनम में नहीं कर सकते. उनके यहां संपादक चुनावी और जातीय समीकरण का विश्लेषण लिखने के लिए होते हैं. पत्रकारिता के हर छात्र को कारवां की इस रिपोर्ट का विशेष अध्ययन करना चाहिए.

देखना चाहिए कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और उनके बेटों का काला धन बनाने का कारखाना पकड़ने के लिए किन-किन दस्तावेज़ों को जुटाया गया है. ऐसी ख़बरें किस सावधानी से लिखी जाती हैं. यह सब सीखने की बात है. हम जैसों के लिए भी. मैंने भी इस लेवल की एक भी रिपोर्ट नहीं की है.

अपने रद्दी अखबारों को बंद कर ऐसी पत्रकारिता को सपोर्ट करें. अगली बार कोई हिंदी का संपादक किसी चैनल के मीडिया कॉन्क्लेव में बड़बड़ा रहा होगा तो बस इतना पूछिएगा कि हिंदी के पत्रकार ऐसी ख़बरें क्यों नहीं करते हैं? क्या संपादकों की औकात नहीं है? हिंदी के अख़बारों में ऐसी ख़बरें नहीं छपेंगी इसलिए आप कारवां की इस रिपोर्ट को ख़ूब शेयर करें. लोगों तक पहुंचा दें. हम हिंदी वाले कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं.

(एक लेख मूल रूप से रवीश कुमार के फेसबुक पेज पर प्रकाशित हुआ है. रवीश कुमार ने अपने मूल लेख को संशोधित किया है. इस लेख में भी वो संशोधन किए गए हैं.)