उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण फैसले और प्रस्ताव मुख्य न्यायाधीश द्वारा कॉलेजियम की सहमति दरकिनार करते हुए मनमाने और अनौपचारिक तरीके से लिए जा रहे हैं.
क्या 12 जनवरी के ‘प्रेस कॉन्फ्रेंस’ के बाद सुप्रीम कोर्ट के सूरत-ए-हाल में बदलाव आया है? जवाब है हां. आधिकारिक सूत्रों से मुझे जिन चिंताजनक तथ्यों की जानकारी मिली है, उनसे पता चलता है कि मास्टर ऑफ रोस्टर अब इसके अतिरिक्त मास्टर ऑफ कॉलेजियम भी बन गए हैं और ऐसा उन्होंने पूरे धूम-धड़ाके के साथ किया है.
इस पर विचार कीजिए: 12 दिसंबर, 2018 को कॉलेजियम की एक बैठक हुई, जिसमें इसने कुछ निश्चित फैसले लिए. यह बात 10 जनवरी, 2019 के इस प्रस्ताव से स्पष्ट है, जिसमें अन्य बातों के साथ यह कहा गया है कि ‘उस समय के कॉलेजियम ने 12 दिसंबर, 2018 को कुछ निश्चित फैसले लिए थे.’
लिए गए फैसले और सुलझाए गए मसलों में राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश प्रदीप नंदराजोग और दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र मेनन की सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति शामिल थी. 10 जनवरी के प्रस्ताव ने इन फैसलों को पलट दिया.
मौजूदा परंपरा के मुताबिक, प्रस्ताव को सरकार को भेजा जाना चाहिए था और उसे सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट पर अपलोड किया जाना चाहिए था. लेकिन ये दोनों कदम नहीं उठाए गए. क्यों?
वजह जो भी रही हो, ज्यादा मौजूं सवाल यह है: क्या मुख्य न्यायाधीश- अपनी मर्जी के अनुसार काम करते हुए- सरकार को फैसले की जानकारी देने और कॉलेजियम के प्रस्ताव के प्रकाशन को ठंडे बस्ते में डाल सकता है? अगर ऐसा है, तो मुख्य न्यायाधीश के पास ऐसी मनमानी शक्ति का स्रोत क्या है?
10 जनवरी- जब 31 दिसंबर को जस्टिस लोकुर की सेवानिवृत्ति के बाद कॉलेजियम में बदलाव हुआ- की बैठक के कॉलेजियम के प्रस्ताव से यह साफतौर पर पता चलता है कि 12 दिसंबर, 2018 को लिए गए फैसले को इसलिए सरकार को नहीं भेजा गया और उसे सार्वजनिक नहीं किया गया, क्योंकि ‘शीतकालीन अवकाश के कारण जरूरी विचार-विमर्श नहीं किया जा सका.’
इसमें मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) की उपधारा 8 का संदर्भ दिया गया है, जो कि सर्वोच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति से जुड़ा है. इस उपधारा के मुताबिक :
‘भारत के मुख्य न्यायाधीश, कॉलेजियम के दूसरे जजों के साथ सलाह-मशविरा करके, सर्वोच्च न्यायालय के उन न्यायाधीशों के विचारों को जानेंगे, जो उस उच्च न्यायालय में काम कर चुके हैं, जिसमें पदोन्नति के लिए विचाराधीन व्यक्ति काम कर चुके हों.’
उस समय कॉलेजियम के तीन जज मुख्य न्यायाधीश नंदराजोग के साथ काम कर चुके थे और एक मुख्य न्यायाधीश मेनन के साथ काम कर चुके थे, जबकि तीन अन्य दिल्ली उच्च न्यायालय में जज होने के नाते उनके कामकाज से परिचित थे.
इसलिए सवाल पैदा होता है कि क्या कॉलेजियम के बाहर के उन न्यायाधीशों के दृष्टिकोणों को जानना जरूरी था, जो उन उच्च न्यायालयों से संबद्ध थे, जिनमें इन दो मुख्य न्यायाधीशों ने काम किया था.
एमओपी का उपनियम 8 अनिवार्य नहीं है- मुख्य न्यायाधीश ‘कॉलेजियम के अन्य जजों के साथ विचार-विमर्श करके’ कॉलेजियम के बाहर के जजों के विचारों को जानेंगे. यह उपनियम तभी उपयोग में लाया जाता है जब कॉलेजियम का कोई जज सीधे तौर पर सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति के लिए विचाराधीन न्यायाधीश के कामकाज और कार्य-प्रणाली से वाकिफ न हो.
बाहरी परामर्श
वास्तव में ऐसी जरूरत महसूस पड़ने पर कॉलेजियम के बाहर के जजों से कब मशविरा लिया जाना चाहिए? एमओपी इस पर खामोश है, लेकिन यह जरूर माना जाना चाहिए कि यह सलाह-मशविरा कॉलेजियम द्वारा प्रस्ताव पारित करने से पहले किया जाना चाहिए, ताकि यह जानकारियों के आधार पर लिया गया फैसला हो.
निर्णय ले लेने के बाद सलाह-मशविरा करने का कोई तुक नहीं है, क्योंकि इससे यह संदेश जाएगा कि कॉलेजियम का फैसला बिना सोचे-विचारे किया गया- जो कि बेहद दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति होगी.
क्या फैसला हो जाने के बाद मशविरा देनेवाले न्यायाधीश के विचार के आधार पर कॉलेजियम अपने फैसले को उलट देगा? क्या ऐसा कभी हुआ है? संयोग यह है कि 10 जनवरी, 2019 को लिया गया फैसला भी मशविरा देनेवाले संबंधित न्यायाधीशों के साथ किसी पूर्व परामर्श के ही था.
मौजूदा परंपरा के हिसाब से, 10 जनवरी का फैसला, इसके साथ ही मशविरा देनेवाले न्यायाधीशों का विचार निश्चित तौर पर सरकार को भेज दिया गया होगा, क्योंकि इसे सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट पर अपलोड कर दिया गया है.
अब सरकार के पास कॉलेजियम के फैसले को पुनर्विचार के लिए लौटाने, मशविरा लिए गए जजों के विचारों का समावेश करने या उनके विचारों को खारिज करने का विकल्प है.
खारिज कर दिया जाना दुर्भाग्यपूर्ण होगा, लेकिन अगर वर्तमान मामले में विचारों को स्वीकार कर लिया जाता है, तब सरकार प्रस्ताव को पुनर्विचार के लिए कॉलेजियम के पास भेज सकती है. उस स्थिति में कॉलेजियम पहली बार परामर्श देनेवाले जजों के विचारों पर गौर फरमाएगा और या तो अपने फैसले को दोहराएगा या उसे वापस ले लेगा.
यह घुमावदार प्रक्रिया है और इसे तार्किक बनाने का तरीका यह है कि परामर्श देनेवाले जजों के विचारों को कॉलेजियम द्वारा प्रस्ताव पारित करने से पहले ही जान लिया जाए.
सवाल ‘कब’ का
मुख्य न्यायाधीश को कब यह बोध हुआ कि ‘कॉलेजियम के अन्य जजों के साथ सलाह-मशविरे किए बगैर’ निर्णय उपरान्त मशविरा देनेवाले जजों के विचारों को जानने की जरूरत थी?
क्या यह विचार उनके मन में सर्वोच्च न्यायालय के सर्दियों की छुट्टी के लिए बंद होने से पहले या उस छुट्टी के दौरान आया या उसके बाद आया. प्रस्ताव की भाषा तीसरे संभावना समाप्त करनेवाली है.
पहली संभावना यह है कि मुख्य न्यायाधीश ने आवश्यक विचार-विमर्श की जरूरत सुप्रीम कोर्ट की सर्दियों की छुट्टी के लिए बंद होने से पहले महसूस की. अगर ऐसा था, तो क्या यह उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वे फौरन कॉलेजियम के सभी जजों को इस ‘चूक’ से अवगत कराएं, ताकि इसे सुप्रीम कोर्ट के सर्दियों की छुट्टी के लिए बंद होने से पहले ही या कम से कम उसके दौरान सुधारा जा सके?
मुख्य न्यायाधीश के पास चूक को (अगर कोई चूक हुई थी) को दुरुस्त करने के लिए पर्याप्त वक्त था, लेकिन इसमें सुधार करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया. क्यों?
दूसरी संभावना है कि मुख्य न्यायाधीश को इसका बोध सर्दियों की छुट्टी के दौरान हुआ- इस स्थिति में, क्या यह उनका दायित्व नहीं बनता था कि वे बिना कोई समय गंवाए कॉलेजियम के जजों को, कम से कम इसके गठन में बदलाव आने से पहले- उनके पास 31 दिसंबर, 2018 तक का वक्त था, इसकी सूचना दें.
इस बोध की तारीख काफी अहम है मगर फिर भी यह किसी को नहीं मालूम कि आखिर यह कब हुआ.
मुख्य न्यायाधीश फैसले के बाद विचार-विमर्श की प्रक्रिया 2 जनवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट के फिर से खुलने के बाद शुरू कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा शायद इसलिए नहीं किया, क्योंकि कॉलेजियम की बनावट बदल गई थी.
यह फैसले के बाद विचार-विमर्श की प्रक्रिया शुरू नहीं करने का कोई कारण नहीं हो सकता. कॉलेजियम के दूसरे जजों के विचारों को जानने का काम 31 दिसंबर, 2018 से पहले किया जा सकता था.
इसके अलावा, कॉलेजियम द्वारा लिए गए फैसले को दूसरे कॉलेजियम द्वारा अनुमोदन की जरूरत नहीं होती है, इसलिए मुख्य न्यायाधीश के लिए 5-6 जनवरी को नव-गठित कॉलेजियम के साथ इस मामले पर नए सिरे से विचार करने के लिए विस्तृत मंत्रणा की कोई जरूरत नहीं थी.
किसी दिए गए मामले में ऐसी प्रक्रिया की इजाज़त देने का परिणाम विनाशकारी हो सकता है, क्योंकि यह मुख्य न्यायाधीश को कॉलेजियम का पुनर्गठन हो जाने तक कॉलेजियम के फैसले पर कुंडली मार कर बैठने और इसकी इत्तला सरकार को (और अन्य सभी को) न देने का अधिकार दे देता है. यह मुख्य न्यायाधीश को मनमानी और निरंकुश शक्ति प्रदान करता है.
‘अतिरिक्त दस्तावेज’
10 जनवरी, 2019 को लिए गए फैसले में कहा गया है कि मुख्य न्यायाधीश (जैसा नजर आता है) को मिली कुछ अतिरिक्त सामग्री के आलोक में 12 दिसंबर, 2018 को लिए गए फैसले पर पुनर्विचार करना उचित लगा था.
इस फैसले में कहा गया: 5-6 जनवरी, 2019 को को विस्तृत चर्चा के बाद नवगठित कॉलेजियम को इस मामले पर नए सिरे से विचार करना और उपलब्ध हुई कुछ अतिरिक्त सामग्री के आलोक में प्रस्ताव पर विचार करना उचित प्रतीत हुआ.’
यह अतिरिक्त सामग्री कब उपलब्ध हुई? निश्चित तौर पर यह सर्दियों की छुट्टी के दौरान नहीं हुआ, अन्यथा मुख्य न्यायाधीश ने कॉलेजियम के सभी जजों को इसके बारे में बताया होता- उनके ऐसा न करने की संभावना तभी बनती है, जब वे इसे गोपनीय रखना चाहते. इसलिए मुख्य न्यायाधीश को अतिरिक्त सामग्री 2 जनवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट के फिर से खुलने के बाद ही मिली होगी.
ऐसा लगता है कि 5-6 जून को अनौपचारिक तरीके से इस अतिरिक्त सामग्री पर विस्तारपूर्वक चर्चा की गई, क्योंकि 10 जून, 2019 को नव-गठित कॉलेजियम का फैसला 12 दिसंबर, 2018 के फैसले की जगह लेने पर मौन है.
क्या सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति को प्रभावित करने वाले फैसले और प्रस्ताव ऐसे अनौपचारिक तरीके से लिए जा सकते हैं? अगर कॉलेजियम के फैसले को पलटने की जरूरत है, तो क्या इसे औपचारिक तरीके से नहीं किया जाना चाहिए?
क्या सर्वोच्च न्यायालय के जजों को नियुक्त करने की प्रक्रिया गीली मिट्टी की तरह है, जिसे मुख्य न्यायाधीश या कॉलेजियम की इच्छा के मुताबिक कोई भी रूप/आकार दिया जा सकता है?
यह स्पष्ट है कि 12 दिसंबर, 2018 से लेकर जनवरी, 2019 तक का घटनाक्रम सिर्फ एक निष्कर्ष की ओर लेकर जाता है और वह यह है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कॉलेजियम के दूसरे जजों की मौन सहमति से मास्टर ऑफ कॉलेजियम की भूमिका ग्रहण कर ली है.
12 दिसंबर, 2018 के प्रस्ताव को लागू न करने का फैसला प्रक्रियागत रूप से गलत और रहस्य की चादर में लिपटा हुआ. न्यायपालिका की स्वतंत्रता दांव पर लगी है और मौका हाथ से निकल जाने से पहले कॉलेजियम सिस्टम पर निश्चित तौर पर पुनर्विचार की जरूरत है.
मुख्य न्यायाधीश को खुद से एक सवाल पूछना चाहिए: क्या इसी लिए उन्होंने 12 जनवरी, 2018 को पारदर्शिता और जवाबदेही ‘प्रेस कॉन्फ्रेंस में भाग लिया था?’
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं.)
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