पहलू ख़ान के गांव से ग्राउंड रिपोर्ट: मेरा क़सूर बस ये था कि मैं, मैं था!

हम सब मौत से वाक़िफ़ हैं. अपने अजीज़ लोगों को खोने की तकलीफ हम सबने सही है. हमने न भरे जा सकने वाले खालीपन को महसूस किया है. लेकिन इस मौत का एहसास अलग है. यह एक बेक़सूर की मौत है. यह नफ़रत से हुई मौत है. आप इसे जयसिंहपुर में देख सकते हैं.

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हम सब मौत से वाक़िफ़ हैं. अपने अजीज़ लोगों को खोने की तकलीफ हम सबने सही है. हमने न भरे जा सकने वाले खालीपन को महसूस किया है. लेकिन इस मौत का एहसास अलग है. यह एक बेक़सूर की मौत है. यह नफ़रत से हुई मौत है. आप इसे जयसिंहपुर में देख सकते हैं.

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पहलू खान की पत्नी ज़ैबुना और बेटी आबिदा.(फोटो क्रेडिट: फराह नक़वी)

जयसिंहपुर, हरियाणा: अंगूरी बेगम देख नहीं सकतीं. इस कमी ने उन्हें अपने इकलौते बेटे पहलू खान का वीडियो देखने की तक़लीफ से बचा लिया. लेकिन, उनके दिल को सब पता है और न देखने वाली आंखों से आंसुओं का सैलाब रुकने का नाम नहीं लेता.

मैं बेबसी में उन्हें देखती हूं. तभी अचानक ज़मीन पर गिरी गौरैया जैसा उनका बदन जोर-जोर से कांपने लगता है, जैसे कोई ज़लजला आया हो. उनके आसपास जमा औरतों का कहना है, कि उनकी हालत ऐसी ही हो गई है.

दूसरे लोगों की तक़लीफ़ों के बारे में लिखना काफ़ी कठिन है. ऐसा लगता है कि आप दूसरों के दुख में सुख पा रहे हैं, लेकिन आपको अन्याय का गवाह भी बनना है. इसलिए मैं मेहनत करती हूं. पास की चारपाई पर पहलू खान की पत्नी ज़ैबुना बेजान सी बैठी हैं.

जब हम अंदर वाले बरामदे में दाखिल होते हैं, जहां घर की औरतें जमा होती हैं, वे नज़रें ऊपर करती हैं, मगर कुछ देखती नहीं. जो चीज आप पर सबसे ज़्यादा चोट करती है, वह है निजी नर्क का वह घेरा जिसने जैसे उनके पूरे बदन को ढक लिया है. मैं धीरे से उनकी बांहों को छूती हूं.

जैसे एक इंसान, दूसरे इंसान को छूता है. सम्मोहन चिटकता है. ऐसा लगता है, जैसे उन्होंने मुझे पहली बार देखा है. ‘तड़पा-तड़पा कर मारा’. वे जोर-जोर से बिलखने लगती हैं और अपने दुपट्टे से चेहरे को ढक लेती हैं. मैं उन्हें अपनी बांहों में भर लेती हूं और उनकी सिसकियों देर तक थामे रहती हूं.

पहलू खान की बड़ी बेटी आबिदा बताती है कि उसकी मां ने वह वह वीडियो देखा, लेकिन वे उस ख़ौफ़नाक मंज़र को पूरा नहीं देख सकीं. वे ऐसा नहीं कर सकीं क्योंकि वे बहुत जल्दी टूट गयीं.

मैं बुदबुदाते हुए ज़ैबुना को खोखला दिलासा देती हूं-‘हिम्मत रखिए, अम्मी’….‘ऐसे वक्त पर ताकत चाहिए’. आबिदा मेरी ओर पलटती है, तक़लीफ में उसका चेहरा पथरीला हो गया है. वह लड़खड़ाती ज़बान सेकहती है, ‘इंसाफ चाहिए, फांसी चाहिए’.

हम सब मौत से वाक़िफ़ हैं. अपने अजीज़ लोगों को खोने की तक़लीफ हम सबने सही है. हमने न भरे जा सकने वाले खालीपन को महसूस किया है. लेकिन इस मौत का एहसास अलग है. यह एक बेक़सूर की मौत है. यह नफ़रत से हुई मौत है. आप इसे जयसिंहपुर में देख सकते हैं.

उन सारे गांववालों के चेहरों पर, जो वहां हिफाज़ती जमात के तौर पर जमा हैं, मानो वे निस्सहाय परिवार की रखवाली कर रहे हैं. यह वह नज़र है, जिसे मैं पहले भी देख चुकी हूं. गुजरात में और मुज़फ्फरनगर में.

यह नफ़रती हिंसा का शिकार होने वाले की नज़र है. एक ऐसा अपराध, जिसे इंसानी रूह कभी पचा नहीं कर सकती- आपको बस आपके वजूद, आपकी पहचान के कारण हिंसा का शिकार बनाया जाए. एक ऐसी चीज जिसे आप न कभी बदल सकते हैं, न कुबूल कर सकते हैं.

मैंने क्या किया. मेरा क़सूर बस ये था कि मैं, मैं था!

पहलू खान का गांव जयसिंहपुर, हरियाणा के नूह जिले में है. खान को पीट-पीटकर मार देने और कुछ अन्य को जख्मी कर देने का वाकया राजस्थान के बहरोड़ का है.

कानूनी कार्यवाही वहीं होगी. हम कह सकते हैं कि हमारे सिर पर एक नहीं, दो राज्य सरकारें हैं, जिनके पास अन्याय का शिकार हुए एक नागरिक के साथ न्याय करने का मौका है. लेकिन अब तक दोनों ही सरकारों की तरफ से कोई हलचल देखने को नहीं मिली है.

सत्ताधारी दल की तरफ से कोई हाल पूछने भी नहीं आया है. ये परिवार इंसाफ की फरियाद किससे करें? मैं सवालभरी निगाहों से इरशाद की ओर देखती हूं. इरशाद दो भाइयों में बड़ा है. हमले के वक्त वह मवेशी से लदी उस गाड़ी को चला रहा था.

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अंगूरी बेगम (फोटो: फराह नक़वी)

वह बिल्कुल बेइख्तियारी की हालत में है, उलझन में है कि क्या कहीं कोई जगह है जहां फरियाद की जा सके. पर उसके पास न लड़ने की ज़्यादा शक्ति है, न बहुत गुस्सा ही है. शायद यह सब सोचना जल्दबाजी है. शायद गुस्से के उबलने के लिए वक़्त की दरकार होती है. फिलहाल, रोज़ का शोक और अस्तित्व बचाने का सवाल सबसे अहम है.

किसी भी पैमाने पर यह परिवार गरीब ही कहा जाएगा. पहलू खान इस परिवार का मुख्य कमाई करने वाला था. सबसे अच्छे दिनों में वह महीने का आठ से बारह हजार (8000-12000) घर ला पाता था, जिससे उसकी बूढ़ी मां, बीवी, चार बेटे जिनमें दो की शादी हो चुकी है, और दो कुंवारी बेटियों का पेट भरता था.

वह खर्च चलाने के लिए कभी-कभी सब्जियां बेचा करता था, कभी-कभी बटाई पर खेती भी कर लिया करता था. पर उस बदनसीब वक़्त में  वह उन पांच-दस लोगों के छोटे से समूह का हिस्सा था, जो अक्सर जयपुर मेले जाकर कम दामों पर मवेशी खरीदते और फिर उन्हें स्थानीय बाजारों में कुछ हज़ार के मुनाफ़े पर बेचा करते थे.

55 वर्षीय पहलू खान चाहते थे कि उनके दोनों बेटे मवेशी व्यापार की बारीकियां सीखें. इसलिए इरशाद (24) और आरिफ (19) उनके साथ थे. इनके साथ गांव के दो और युवा रफ़ीक़ और अज़मत भी थे.

इस बार उन्हें एक अतिरिक्त लालच भी था- रमज़ान का महीना आने वाला था, जिसके लिए वे अच्छे दुधारू पशु चाहते थे, जिनसे अच्छी मात्रा में दूध और दही मिल सके, जो सहरी की ख़ास ज़रूरत होता है.

मेले में भैंसों की कीमत काफी ज़्यादा थी, इसलिए इन सबने गाय खरीदने का फैसला किया. पहलू खान और उनके बेटों ने हाल ही में जन्मे बछड़ों के साथ दो दुधारू गायें खरीदीं. आरिफ ने हमें बताया कि गायें ने बस 12 दिन पहले बछड़ों को जन्म दिया था.

रमज़ान में इन गायों से अच्छा दूध मिलता और ये लोग उनका ख़र्च भी उठा सकते थे. गायों के इस जोड़े की कीमत 45,000 थी. यह पैसा पास के ठाकुर गांव से 5-6 प्रतिशत सूद पर लिया गया था.

जयसिंहपुर के एक और युवा मवेशी व्यापारी अज़मत ने 75,000 रुपये में तीन गायें खरीदीं. पहलू खान के घर से कुछ ही दूरी पर अज़मत रीढ़ की हड्डी में चोट के कारण अपने घर के बरामदे की चारपाई पर पड़ा है. वह हिल भी नहीं सकता. उसका दर्द उसके कमज़ोर चेहरे पर साफ नज़र आता है.

अपनी नवजात बेटी खुशनुमा को गोद में लिये हुए उसकी पत्नी नफीसा कहती है, ‘बस 4-5 दिन की बियाई थी हमारी गाय. 10-15 लीटर दूध देनेवाली’.

हमारी बातचीत की क्रूर भयावहता से बेख़बर उसकी बेटी अपने नाम के मानी को सच करती हुई सोते-सोते मुस्कुराती है. अज़मत की मां को अब भी उन पर आई आफ़त पर यकीन नहीं होता और वे बार-बार अविश्वास में अपना सिर झटकती हैं.

यह पहली बार था जब अज़मत जो कि एक छोटा-मोटा बटाईदार है, जयपुर पशु मेले में गया था. लेकिन चीजें बुरी तरीके से बिगड़ गयीं. वह कहती हैं, ‘अब कोई नहीं जाएगा, कभी नहीं’.

पहलू खान और अज़मत को मिलाकर 1.2 लाख की कीमत के मवेशी हाथ से चले गए, साथ ही 45,000 नकद जो उनके पास था, पुलिस ने निषिद्ध वस्तु की तरह बिना कोई रसीद या औपचारिक पावती दिए पांच गायें और पांच बछड़े/बछिया जब्त कर लीं.

गोशाला में रखीं इन गायों-बछड़ों को फिर से पाने की किसी को कोई आस नहीं है. इसके अलावा, गांव वालों के अनुसार इन गोशालाओं की बदहाल स्थिति के मद्देनज़र आशंका यह भी है कि जल्द ही इनका दूध सूख जाएगा और ये मृतप्राय हो जायेंगी. इन्हें इसकी भी तकलीफ है.

पहलू खान के परिवार की एक महिला कहती हैं, ‘हम अपने जानवरों से अपने बच्चों की तरह प्यार करते हैं. हम अपने बच्चों की तरह गायों को नहलाते हैं. उन्हें चारा खिलाते हैं. वे हमें दूध और दही देती हैं.’

बाहर मर्दों के जमावड़े में हम ऐसी ही आवाज़ें सुनते हैं, लेकिन इनकी आवाज़ ऊंची और ज़्यादा गुस्से से भरी हुई है, ‘ये जो गोरक्षा की बात करते हैं, गाय की पूंछ भी साफ नहीं करनी आती उन्हें. हमें सिखाते हैं? हम पर गो-हत्या का केस करते हैं?’

ये गोरक्षक ‘स्वघोषित पहरेदार हैं’ और इनसे निपटने के लिए कानूनी प्रावधान हैं. लेकिन सवाल है कि हम एक पहरेदार राज्य का क्या करें, जिसने अपनी ज़मीनी राजनीति को इन समूहों को सुपुर्द कर दिया है?

इन दोनों को मिलाकर जो राजनीतिक संदेश दिया जा रहा है, वह जयसिंहपुर के परिवारों को और हताश करता है. न सिर्फ मुस्लिम मवेशी व्यापारियों को पीटा और जान से मारा जा रहा है, उन्हें उनकी ही मौत का नैतिक क़सूरवार भी ठहराया जा रहा है.

राजस्थान पुलिस के द्वारा जो झूठ रचा गया, वह अवाक करने वाला है. इस घिनौने प्रकरण में पहला कानूनी कदम, पहलू खान और उनके साथी यात्रियों के साथ की गई हिंसा के लिए एफआईआर दर्ज करना नहीं था.

इसकी जगह पहलू खान, आरिफ और इरशाद के खिलाफ ही राजस्थान बोवाइन एनिमल (प्रोहिबिशन ऑफ स्लॉटर एंड रेगुलेशन ऑफ टेंपररी माइग्रेशन ऑर एक्सपोर्ट) एक्ट, 1995 के तहत एफआईआर दर्ज कर दी गई.

यह एफआईआर 2 अप्रैल, को 2 बजकर 43 मिनट पर दर्ज की गयी, इस तथ्य के बावजूद कि इस बात का कोई सबूत नहीं था कि वे गो-तस्कर थे या उनका इरादा इन गायों की हत्या करने का था.

सबूत सीधे-सीधे ये बताते हैं कि वे मवेशियों के व्यापारी थे. इस मामले में दूसरी एफआईआर गो-पहरेदारों के ख़िलाफ़ है. इस एफआईआर की तारीख भी 2 अप्रैल की है, लेकिन इस पर दोपहर 4 बजकर 24 मिनट की मुहर लगी है. यानी पहली एफआईआर से दो घंटे बाद की, इस तथ्य के बावजूद कि पुलिस के सामने जख्मी शरीर न नकारे जा सकनेवाले साक्ष्य की तरह मौजूद थे.

जब हम जयसिंहपुर से लौटने के लिए तैयार होते हैं, तब हम मवेशी व्यापारियों के इस व्यापार से अलग होने की बातें सुनते हैं. हमें बताया जाता है कि एक मुसलमान गाय पालने के नाम से भी डरा हुआ है, उसे लाने-ले जाने की बात तो छोड़ ही दीजिए!

एक व्यक्ति कहता है, अगर गाय, केवल उनकी है, तो उन्हें अपनी गायें रखने दीजिए. एक दूसरा व्यक्ति सहमति में सिर हिलाता है, ‘हां हम लाखों गायें वापस कर देंगे और इसे गो-वापसी का नाम देंगे’.

(फराह नक़वी लेखक और एक्टिविस्ट हैं)

 

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