देश के सरकारी स्कूलों में दस लाख शिक्षक नहीं हैं. कॉलेजों में एक लाख से अधिक शिक्षकों की कमी बताई जाती है. सरकारी स्कूलों में आठवीं के बच्चे तीसरी की किताब नहीं पढ़ पाते हैं. ज़ाहिर है वे तनाव से गुज़रेंगे क्योंकि इसके ज़िम्मेदार बच्चे नहीं, वो सिस्टम है जिसे पढ़ाने का काम दिया गया है.
आचार संहिता से पहले एक सौ रैलियां करने निकले प्रधानमंत्री के पास बोर्ड परीक्षा के छात्रों को संबोधित करने के लिए भी वक्त बचा रह गया. एक स्टेडियम बुक हुआ, 2000 छात्रों को बुलाया गया और देश भर के स्कूलों में नोटिस गया कि कार्यक्रम दिखाना है.
लिहाज़ा बच्चों को स्कूलों के ऑडियो विजुअल रूम में ले जाया गया और उन्होंने यह कार्यक्रम देखा. कई स्कूलों में इस कारण पढ़ाई नहीं हुई. प्रधानमंत्री ने जो कहा उसमें नया क्या था या ऐसा क्या था जो स्कूलों में प्रिंसिपल और काउंसलर उन्हें नहीं बताते रहे हैं.
हमने यही जाना है कि प्रधानमंत्री का एक-एक मिनट का वक्त कीमती होता है. मगर साल शुरू होते ही बीस से अधिक कार्य दिवस के बराबर समय वे सौ रैलियां निपटाने में लगे हैं. फिर भाजपा के कार्यकर्ताओं से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग करते हैं. जो काम भाजपा अध्यक्ष को करना चाहिए वो भी प्रधानमंत्री को करना पड़ रहा है.
फिर आप ख़ुद सोचें कि क्या प्रधानमंत्री के पास इतना अतिरिक्त समय है कि वे लगातार जनसंपर्क में ही रहते हैं. क्या प्रधानमंत्री का समय इतना फालतू हो गया है कि उपदेशक की भूमिका में बच्चों को संबोधित कर रहे हैं?
पहली नज़र में तो बहुत अच्छा लगता है कि प्रधानमंत्री परीक्षा पे चर्चा कर रहे हैं. क्या प्रधानमंत्री को नहीं पता कि तनाव बोर्ड की परीक्षा के कारण नहीं बल्कि बोर्ड के बाद शिक्षा की हालत के कारण है?
बारहवीं के बाद भारत में बीस कॉलेज नहीं हैं जहां छात्र बिना सोचे एडमिशन ले ले. सबको दिल्ली यूनिवर्सिटी ही आना है जहां 96 प्रतिशत से कम पर अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीं होता है. क्या प्रधानमंत्री ने इस बारे में कुछ कहा?
प्रधानमंत्री को भी पता है कि भारत घटिया कॉलेजों का महासागर है. शिक्षा को लेकर मूल प्रश्नों का न तो जवाब दे सकते हैं और न चर्चा कर सकते हैं इसलिए सफलता-असफलता के मायनों पर फोकस शिफ्ट कर दो.
जो काम शिव खेड़ा जैसे कॉरपोरेट उपदेशक कर रहे हैं उसे प्रधानमंत्री को क्यों करना पड़ रहा है? उसमें भी विरोधाभास हैं. खुद सौ रैलियां कर रहे हैं किसलिए? क्या वे असफलता के भय और तनाव के कारण ये सब नहीं कर रहे हैं?
क्या उन्होंने इन 5 सालों में शिक्षा पर चर्चा की? बताया कि जहां वे बारह साल मुख्यमंत्री रहे या उनकी पार्टी की सरकारें जहां 15 साल सत्ता में रही वहां भी कोई ढंग का कॉलेज नहीं बन सका. बाकियों ने भी नहीं बनाया चाहें नीतीश हों या ममता हों या बादल हों या कोई हो.
बोर्ड की परीक्षा का तनाव और दबाव इसलिए भी बढ़ता है क्योंकि 12वीं तक आते आते छात्रों का सब कुछ दांव पर लग जाता है. यह तो बताते कि प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने क्या किया है जिससे आगे किसी को तनाव नहीं होगा.
दि प्रिंट की खबर आई थी कि प्राइवेट यूनिवर्सिटी पर इंटेलिजेंस ब्यूरो रिपोर्ट तैयार करती है कि वहां मोदी सरकार की तारीफ होती है या आलोचना. क्या किसी सरकार को ये रिपोर्ट बनवानी चाहिए कि क्लास रूम में सरकार की तारीफ हो रही है या आलोचना.
तो फिर परीक्षा पे चर्चा में बोलना था न कि हमने ऐसा सिस्टम बना दिया है कि आगे जब आप कॉलेज में जाएंगे तो मेरे नाम का भजन करना होगा, तनाव होगा ही नहीं. क्या इस तरह हम प्राइवेट यूनिवर्सिटी खड़ी करेंगे, सरकारी चौपट करने के बाद?
परीक्षा पे चर्चा जनसंपर्क का अतिवाद है. एक किस्म का सतही कार्यक्रम है. यह काम भारत के मानव संसाधन मंत्री से भी हो सकता था. अगर मानव संसाधन मंत्री रहते हुए छात्रों के बीच वे इतनी भी जगह नहीं बना सके हैं तो फिर प्रधानमंत्री को प्रकाश जावड़ेकर से भी ब्लॉग लिखवाना चाहिए.
पिछले साल मुंबई यूनिवर्सिटी को लेकर कई महीनों तक आंदोलन चला. छात्रों की जान अटकी रही. तब तो कोई मंत्री आश्वासन देते नज़र नहीं आया.
देश के सरकारी स्कूलों में दस लाख शिक्षक नहीं हैं. कॉलेजों में एक लाख से अधिक शिक्षकों की कमी बताई जाती है. सरकारी स्कूलों में आठवीं के बच्चे तीसरी की किताब नहीं पढ़ पाते हैं. ज़ाहिर है वे तनाव से गुज़रेंगे. क्योंकि इसके ज़िम्मेदार बच्चे नहीं, वो सिस्टम है जिसे पढ़ाने का काम दिया गया है.
सरकारी नौकरियों की परीक्षा चार-चार साल में पूरी नहीं होती है. खुद रेलवे एक इम्तिहान एक साल में नहीं करा पाता है. प्रधानमंत्री रेलवे की परीक्षा देने जा रहे ढाई करोड़ परीक्षार्थियों के साथ परीक्षा पे चर्चा करनी चाहिए थी. उनसे पूछना चाहिए था कि आप लोगों में जो ग़रीब छात्र हैं वो चार-चार दिन की यात्रा का खर्च कैसे उठाएंगे.
उन्हें पूछना चाहिए था कि 80 लाख से अधिक छात्रों की परीक्षा क्यों छूट गई? सरकारी आयोगों की परीक्षाओं के छात्र चार-चार साल से रिज़ल्ट का इंतज़ार कर रहे हैं. क्या उन्हें यह उपदेश दिया जा सकता है कि तनाव न करें.
क्या प्रधानमंत्री ने शिक्षा, उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरी की परीक्षा पर कुछ कहा? आखिर वे कब तक छवि बनाने की ही सोचते रहेंगे. इस परीक्षा पे चर्चा से हासिल क्या हुआ?
एक जागरूक नागरिक के नाते प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों की प्रासंगिकता का भी हिसाब रखिए. छवि बनाने की धुन की भी एक सीमा होनी चाहिए.
(यह लेख मूल रूप से रवीश कुमार के ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ है.)