मोदी सरकार ने वास्तव में गरीब सवर्णों को आरक्षण दिया ही नहीं है, बल्कि चुनाव जीतने के लिए उनकी आंखों में धूल झोंकी है.
नरेंद्र मोदी सरकार ने सवर्ण गरीबों को आर्थिक मापदंड पर आधारित आरक्षण देने का निर्णय किया है. इस मापदंड के अनुसार आठ लाख रुपये प्रति वर्ष, अर्थात 66,600 रुपये प्रतिमाह से कम आय पाने वाले लोग अब आर्थिक मापदंड से पिछड़े माने जाएंगे.
इसका सीधा मतलब यह है कि मोदी सरकार ने वास्तविक दृष्टि से गरीब सवर्णों को आरक्षण दिया ही नहीं है, बल्कि चुनाव जीतने के लिए उनकी आंखों में धूल झोंकी है.
आर्थिक आरक्षण का उद्देश्य अगर सवर्णों में आर्थिक दृष्टि से पिछड़ों को नौकरियों के अवसर देना था और ऐसा अवसर देने का पूरा मौका होते हुए भी नरेंद्र मोदी ने गरीब सवर्णों के मुंह का निवाला क्यों छीन लिया?
सवर्ण गरीबों की भावनाओं के साथ जो चाहे मनमर्जी खिलवाड़ हो और इसके खिलाफ आवाज उठाने के लिए इन गरीब सवर्णों को कोई प्रतिनिधित्व भी ना मिले यह दुर्भाग्यपूर्ण है.
आर्थिक और सामाजिक विषमताओं में उलझे इस देश में सामाजिक न्याय के लिए कोई कदम उठाना हमेशा से बड़ा ही पेंचीदगी भरा काम रहा है.
स्वतंत्रता के बाद (और कुछ जगहों पर स्वतंत्रता से पहले भी) सबसे पहले दलित और आदिवासियों को आरक्षण दिया गया. हजारों वर्ष इस तबके ने अत्यंत अन्यायपूर्ण व्यवस्था के जुल्म सहा है और आज भी सह रहे है. ऐसे तबके को आरक्षण के माध्यम से प्रतिनिधित्व मिला.
फिर मंडल कमीशन लागू होने पर अन्य पिछड़े वर्ग को भी आरक्षण का लाभ हुआ. इन सबके बीच सवर्ण गरीबों में हीनता की भावना पनपती गई. माना कि हमें सामाजिक विषमता का सामना नहीं करना पड़ा, पर आर्थिक असमर्थता का क्या कीजिएगा?
यह भावना वास्तविक है. सवर्णों के बीच एक बड़ा तबका आर्थिक विषमताओं का सामना करता आया है. यह विषमता सामाजिक विषमता से अलग अवश्य है.
यह तो जाहिर है कि दलितों की सैकड़ों पीढ़ियों की जाति व्यवस्था के बोझ तले जिस प्रकार की मानसिक हताशा हुई है, वैसी सवर्ण गरीबों की नहीं हुई पर आर्थिक विषमता भी अपने आप में हताशा का कारण तो है ही. इसी कारण से आर्थिक मापदंड पर आरक्षण हो, इस मांग को राजकीय समर्थन मिलता गया.
इस पृष्टभूमि पर अगर कोई आर्थिक मापदंडों पर आधारित आरक्षण देकर आर्थिक विषमता के कारण सवर्ण गरीबों को न्याय दिलाने की कोशिश करे तो इसका स्वागत ही होता, पर दुर्भाग्य से वैसा हुआ नहीं. आर्थिक दृष्टि से पिछड़े सवर्णों के जले पर नमक छिड़का गया, उनकी भावनाओं का मज़ाक बनाया गया.
आर्थिक पिछड़ेपन की जो परिभाषा मोदी सरकार ने निश्चित की, उस परिभाषा से लगभग सभी सवर्ण आर्थिक दृष्टि से पिछड़े माने जाते है. इस परिभाषा ने सवर्ण गरीबों के साथ धोखाधड़ी की है.
चलिए इस मुद्दे को जरा विस्तार से समझते है. आर्थिक दृष्टि से पिछड़े स्वर्णों को आरक्षण देने का अर्थ इस वर्ग के लिए नौकरियों तथा शिक्षा में कुछ सीटें अलग से आरक्षित करना होना चाहिए. अर्थात इन सीटों के लिए गरीब सवर्णों को आर्थिक दृष्टि से उन्नत सवर्णों से प्रतिस्पर्धा करने की आवश्यकता न हो यह सुनिश्चित होना चाहिए.
पर जब आर्थिक पिछड़ेपन की परिभाषा ही आठ लाख रुपये प्रति वर्ष की आय तय की गई है, जो बहुत ही उच्च स्तर की आय है. इस पिछड़ेपन की सीमा का सुस्पष्ट अर्थ शायद बहुतों को ठीक-ठीक समझ नहीं आया है.
देश के सवर्ण मध्यम वर्ग को उनकी संख्या का सही अनुमान आज भी नहीं है. क्योंकि पिछले तीन दशकों से इस वर्ग का गरीबी से नाता टूटता चला आ रहा है, फिर वह गरीबी चाहे उनके ही सवर्ण बिरादरी की ही क्यों न हो.
तो देश के कितने प्रतिशत लोग इस आठ लाख रुपये प्रति वर्ष आय की परिभाषा से आर्थिक पिछड़ों में गिने जाएंगे? एनएसएसओ के सर्वे के आधार पर अर्थशास्त्री डॉ. नीरज हातेकर और डॉ. संध्या कृष्णन के अध्ययन से चौंका देने वाला तथ्य सामने आता है.
देश के ग्रामीण इलाकों में 99.89 प्रतिशत और शहरी इलाकों में 98.6 प्रतिशत लोग इस परिभाषा से आर्थिक पिछड़े कहलाएंगे. मतलब नरेंद्र मोदी ने सवर्ण गरीबों को किसी भी प्रकार का आरक्षण नहीं दिया है, बस आंखों में धूल झोंकी है.
मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने शिक्षा में आर्थिक पिछड़ों के लिए 20 प्रतिशत सीटें बढ़ने की जो बात कही है, वह भी इस परिभाषा से धोखाधड़ी है.
यहां ध्यान रखने वाली बात यह है कि अन्न सुरक्षा क़ानून में जिस प्रकार सरकार ने 66 प्रतिशत लोगों को सस्ता अनाज मुहैया करने के लिए ज्यादा अनाज मुहैया कराई थी, वैसे इस आरक्षण के लिए सरकारी नौकरियों में किसी भी प्रकार की वृद्धि नहीं की गई है.
उपलब्ध नौकरियों में ही अन्य सभी वर्गों के साथ गरीब सवर्णों को अमीर सवर्णों के साथ भी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है और ऊपर से यह जताया जा रहा है कि देखो, हमने आर्थिक पिछड़ों को आरक्षण दिया है. यह धोखा नहीं तो और क्या है?
कांग्रेस पर अलग-अलग प्रकार के तुष्टिकरण के आरोप लगाने वाले नरेंद्र मोदी जी ने प्रत्यक्ष यही किया है. सवर्णों में आर्थिक पिछड़ों में पनप रही भावना दूर करने का अच्छा मौका मोदी सरकार के पास था.
अगर वे चाहते तो जो थोड़ी बहुत सरकारी नौकरियां उपलब्ध हैं उनमें से दस प्रतिशत नौकरियां सच्चे लाभार्थियों को मिले इस तरह के पिछड़ेपन की परिभाषा वह तय कर सकते थे, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया.
वोटों की तुष्टिकरण राजनीति में मोदी सरकार ने गरीब सवर्णों के हितों की बलि चढ़ा दी. उन्हें सवर्णों के वोट बैंक में दिलचस्पी है, सवर्ण गरीबों के हितों में नहीं.
भारतीय जनता पार्टी ने सवर्णों का एक वोट बैंक जातिगत अस्मिता के आधार पर तैयार किया और इस वर्ग का तुष्टिकरण किया. इस प्रकार की राजनीति में हमेशा समाज के दुर्बल हिस्सों की बलि चढ़ती है. आज दुर्भाग्य से नरेंद्र मोदी की इस सस्ती और तुष्टिकरण की राजनीति का विरोध करने की हिम्मत किसी भी विपक्षी दल ने नहीं किया. शायद सवर्णों के वोट खोने का डर उन्हें ऐसा करने से रोक रहा हो.
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.)