नरेंद्र मोदी के पास विपक्ष पर भ्रष्टाचार के मामले चलाने लायक विश्वसनीयता नहीं बची है

मोदी सरकार द्वारा किसी भी तरह की फास्ट ट्रैक कार्यवाही के इरादे के बिना जांच एजेंसियों के कथित पक्षपातपूर्ण इस्तेमाल को संगठित विपक्ष द्वारा बखूबी भुनाया जाएगा.

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मोदी सरकार द्वारा किसी भी तरह की फास्ट ट्रैक कार्यवाही के इरादे के बिना जांच एजेंसियों के कथित पक्षपातपूर्ण इस्तेमाल को संगठित विपक्ष द्वारा बखूबी भुनाया जाएगा.

India's Prime Minister Narendra Modi looks on before launching a digital payment app linked with a nationwide biometric database during the "DigiDhan" fair, in New Delhi, India, December 30, 2016. REUTERS/Adnan Abidi
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फोटो: पीटीआई)

इस बात में शक की गुंजाइश कम है कि कोलकाता पुलिस कमिश्नर के खिलाफ सीबीआई की कार्रवाई का समय और उसका तरीका एक किस्म की राजनीति से प्रेरित था, जिससे मैकियावेली का सिर भी गर्व से ऊंचा हो सकता था.

मैकियावेली 16वीं सदी का इतालवी राजनयिक और राजनीतिक विचारक था, जिसे धोखे और बेईमानी को राजनीति के प्रभावशाली औजार के तौर पर स्थापित करने और उसे स्वाभाविक बनाने का श्रेय दिया जाता है.

2014 में सत्ता आने के बाद से भारतीय निज़ाम इसका इस्तेमाल प्रभावशाली ढंग से कर रहा है. निश्चय ही ऐसे तरीकों के जरूरत के ज्यादा इस्तेमाल के कारण कई मौकों पर प्रधानमंत्री कार्यालय ने भी बुरी तरह से गलतियां की हैं. जाहिर है एक सीमा के बाद ऐसे तरीके उतने प्रभावशाली साबित नहीं होते.

विपक्ष की बढ़ती लामबंदी में बहुत हद तक सत्ताधारी निजाम के द्वारा इस्तेमाल में लाये जाने वाले ब्लैकमेल के इन भोथरे औजारों की भूमिका रही है. फिर भी नरेंद्र मोदी, अमित शाह और अजित डोभाल की तिकड़ी राजनीतिक बल-प्रयोग के औजार के तौर पर सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और इनकम टैक्स विभाग का इस्तेमाल करने से बाज नहीं आ रही है.

और ज्यादा दिलचस्प यह है कि उन्होंने विपक्षी नेताओं के खिलाफ लगे आरोपों में से किसी भी आरोप को एक निश्चित समय सीमा के भीतर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचाया है. जबकि 2014 में मोदी ने ऐसे मामलों का निपटारा एक निश्चित समय-सीमा के भीतर करने का वादा किया था.

मोदी ने राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामलों की सुनवाई करने के लिए फास्ट ट्रैक अदालतों का वादा सार्वजनिक तौर पर किया था. उन्होंने एक प्रभावशाली लोकपाल और उसके साथ ही साथ एक साफ-सुथरे चुनाव फंडिंग तंत्र का भी वादा किया था.

जाहिर है, प्रधानमंत्री का ऐसा कुछ भी करने का इरादा नहीं था. त्वरित सुनवाई करवाने का उनका कोई इरादा नहीं था, क्योंकि एक बार किसी मामले का फैसला हो जाने पर- किसी को सजा मिल जाए या कोई छूट जाए- बल-प्रयोग का एक औजार सत्ता के हाथ से निकल जाता है.

इस बात की नजीर अयोध्या में राम मंदिर है. अगर इसका निर्माण कर दिया जाए, तो एक राजनीतिक मुद्दा समाप्त हो जाएगा. इसलिए मोदी-शाह की जोड़ी ने मामलों को भट्टी पर चढ़ाए रखने का रास्ता अपनाया है, ताकि जरूरत पड़ने पर इनका इस्तेमाल विपक्षी नेताओं के खिलाफ किया जा सके.

एक दिखाई पड़नेवाली रणनीति

कोई भी साधारण व्यक्ति इस रणनीति को देखे बिना नहीं रह सकता. तथ्य यह है कि इस निजाम ने जांच एजेंसियों का दुरुपयोग इतना खुलकर किया है कि इनमें से कुछ संस्थाओं में एक तरह से अंदरूनी विस्फोट हो गया है, जिसका नतीजा ईमानदार अधिकारियों के विद्रोह के तौर पर निकला है.

हाल के समय में ऐसा सीबीआई में और कुछ हद तक प्रवर्तन निदेशालय के भीतर देखा गया.

वर्तमान में एक विद्रोह इनकम टैक्स विभाग में खदबदा रहा है, जहां के वरिष्ठ अधिकारी सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेशन के अध्यक्ष की मिल्कियत वाली कथित तौर पर करोड़ों रुपये की बेनामी संपत्तियों की जानकारी लीक कर रहे हैं. इसके अध्यक्ष को सेवानिवृत्ति के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से अप्रत्याशित सेवा-विस्तार मिल रहा है, जिसका कारण किसी को भी समझ में आ सकता है.

अगर सीबीआई के भ्रष्टाचार विरोधी इकाई का नेतृत्व कर चुके एक ईमानदार अधिकारी को सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा देकर सीबीआई के कामकाज में पीएमओ की दखलंदाजी के बारे में बताना पड़ा, तो इसकी कोई ठोस वजह रही होगी.

उसी हलफनामे में सीबीआई में बतौर डीआईजी सेवा दे रहे एमके सिन्हा ने जो कहा है, उसका अर्थ यह निकलता है कि पूरा सरकारी तंत्र घूसखोरी के एक मामले में सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना को बचाने की कोशिश कर रहा था.

सिन्हा ने सीबीआई को सेंटर फॉर बोगस इनवेस्टीगेशन (फर्जी जांच केंद्र) और ईडी को एक्सटॉर्शन डायरक्टोरेट (रंगदारी निदेशालय) कह कर पुकारा. ऐसे आरोप साठ सालों में पहले कभी नहीं लगे थे.

कोई यह अनुमान लगा सकता है कि राजनीतिक आकाओं के द्वारा जांच एजेंसियों के साथ जो किया जा रहा है, यह सब उसी की प्रतिक्रिया में हो रहा है.

कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सोमवार को पूछा कि ममता बनर्जी कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार का बचाव क्यों कर रहीं हैं? प्रसाद ने सवाल किया, ‘उनके पास कौन से राज दबे हैं?’

यही सवाल समान रूप से पीएमओ पर भी लागू हो सकता है, जिसने अस्थाना को पूछताछ से बचाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी. ऐसे में विपक्ष भी पलटकर यह सवाल दाग सकता है,‘ अस्थाना के पास कौन से राज दबे हैं?’

अस्थाना की कड़ी

मोदी और ममता बनर्जी के बीच मौजूदा टकराव में राकेश अस्थाना एक अहम कड़ी हैं.

अब यह साफ है कि सीबीआई के स्पेशल डायरेक्टर के तौर पर पदोन्नति दिए जाने के बाद, राकेश अस्थाना 2017 के उत्तरार्ध से कोलकाता के पुलिस कमिश्नर को काफी आक्रामक तरीके से समन भेज रहे थे.

पुलिस कमिश्नर ने सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा खत लिख कर जो कहा उसका अर्थ यह निकलता है कि सीबीआई ऐसे पुलिस अधिकारियों को निशाना बनाती दिख रही है, जो मामले में गवाह हैं, जबकि असली अभियुक्तों के खिलाफ, जो अब भाजपा का हिस्सा हैं, कोई कार्यवाही नहीं कर रही है.

राकेश अस्थाना (फोटो: पीटीआई)
राकेश अस्थाना (फोटो: पीटीआई)

वे मुकुल रॉय और असम के उप-मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा की तरफ इशारा कर रहे थे, जो शारदा चिटफंड को असम में काम करने देने के एवज में प्रति माह कथित तौर पर 20 लाख रुपये लेते थे. मुकुल रॉय शारदा चिटफंड के मालिक सुदीप्त सेन को बंगाल से सुरक्षित निकलने का रास्ता देने के आरोपी थे.

आलोक वर्मा को पश्चिम बंगाल के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) ने शारदा जांच से जुड़े मसलों पर सीबीआई और कोलकाता पुलिस को आपस में मिलकर बातचीत करने का प्रस्ताव भी दिया. लेकिन ऐसा लगता है कि अस्थाना कोलकाता पुलिस के अधिकारियों से पूछताछ करने पर अड़े रहे. इसलिए यह पूरा मामला पक्षपातपूर्ण लगता है.

हमने कर्नाटक चुनाव से पहले एजेंसियों के पक्षपातपूर्ण व्यवहार को देखा, जब सीबीआई ने रेड्डी बंधुओं को एक ऐसे मामले में राहत दे दी, जिसे राज्य के लोकपाल ने गैरकानूनी लोहा निर्यात का आसानी से साबित होने वाला मामला बताया था. उसके बाद हम कर्नाटक के कांग्रेसी नेता डी शिवकुमार के परिसरों पर डाले गए अनेक छापों के भी गवाह बने.

हाल की बात करें तो मायावती और अखिलेश यादव के बीच 2019 के लिए चुनावी गठबंधन किए जाने के बाद अखिलेश के खिलाफ बालू खनन एक 12 साल पुराने मामले में एक ताजा केस दर्ज कर दिया गया.

इसी तरह से चंद्रबाबू नायडू द्वारा भाजपा से रिश्ता तोड़ लिए जाने के बाद उनके खिलाफ भी शांति-व्यवस्था भंग करने के कुछ पुराने मामलों को फिर से शुरू कर दिया गया. यहां तक कि हाल में मायावती भी ईडी की जांच के दायरे में आ गईं.

इन सभी नेताओं ने ममता बनर्जी के साथ एकजुटता दिखाई है. ममता के धरने ने बीजद के नवीन पटनायक को भी भड़का दिया, जिन्होंने कहा कि सीबीआई का इस्तेमाल उनकी पार्टी के खिलाफ भी किया जा रहा है.

ऐसे में अगर विपक्ष यह दावा करे कि वह भाजपा, सीबीआई और ईडी और इनकम टैक्स विभाग के गठबंधन के खिलाफ एकजुट हो रहा है, तो इसमें हैरान होनेवाली कोई बात नहीं है!

मोदी के सामने समस्या यह है कि इन पक्षपातपूर्ण कार्रवाइयों और मामलों के त्वरित निपटारे की किसी मंशा के बगैर जांच एजेंसियों के ढीठ इस्तेमाल ने एनडीए के सामने विश्वसनीयता का एक गंभीर संकट पैदा कर दिया है.

अब जबकि मोदी का कार्यकाल समाप्त हो रहा है और चुनाव सिर पर है, आधी रात में की जानेवाली हर छापेमारी या एफआईआर को बदले की कार्रवाई के तौर पर देखा जाएगा और विपक्ष इसका अपने फायदे के लिए अधिक से अधिक इस्तेमाल करेगा.

मोदी इस चुनाव में भ्रष्टाचार का इस्तेमाल उस तरह से एक मुद्दे के तौर पर नहीं कर सकते हैं, जैसा कि उन्होंने 2014 में किया था. इसके उलट उन्हें अपने शासनकाल में बेकाबू क्रोनी कैपिटलिज़्म से जुड़े सवालों का भी जवाब देना पड़ सकता है.

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