पश्चिम बंगाल के हावड़ा ज़िले का देउलपुर गांव कभी बांस की जड़ों से पोलो गेंद तैयार करने के लिए जाना जाता था, लेकिन आज इस कारोबार से जुड़े लोगों के हुनर की सुध लेने वाला कोई नहीं है.
पश्चिम बंगाल के हावड़ा ज़िले में धूलागढ़ बस स्टैंड से करीब चार किलोमीटर दूर स्थित देउलपुर गांव में छेनी-हथौड़ी और आरी की आवाज़ अब खामोश हो चुकी है. घरों के किसी कोने में ये सामान मुर्दे की तरह पड़े रहते हैं.
देउलपुर गांव में बांस की जड़ों से पोलो गेंद तैयार की जाती थी, कहा जाता है कि उस ज़माने में वह इकलौता गांव था. यहां तैयार पोलो गेंदों की तमाम देशों में सप्लाई होती थी मगर, वो एक अलग दौर था.
25 सालों से बांस की जड़ों से पोलो बॉल बना रहे रंजीत माल गर्व के साथ कहते हैं, ‘साठ-सत्तर के दशक तक यहां से हर साल दो से ढाई लाख पोलो बॉल अमेरिका, अर्जेंटीना, इंग्लैंड, नाइज़ीरिया, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में भेजे जाते थे. उस वक़्त इस गांव के 100 से ज़्यादा कारीगर बांस की जड़ों से पोलो बॉल बनाया करते थे.’
बांस के पोलो बॉल की मांग पर अपने उफान पर थी, तो देउलपुर में तीन-चार कंपनियां थीं, जो लोगों से गेंद बनवा कर सप्लाई किया करतीं.
लेकिन, अब सिर्फ रंजीत माल ही बांस की जड़ से पोलो गेंद बनाते हैं. बाकी लोगों ने अन्य पेशा चुन लिया, क्योंकि बांस के पोलो गेंद का बाज़ार अब दम तोड़ चुका है.
दरअसल, बांस के बॉल का बाज़ार ख़त्म होना तब शुरू हुआ, जब एक प्रयोग करते हुए अर्जेंटीना ने फाइबर से पोलो गेंद बनाना शुरू किया. वर्ष 1993 के आसपास बाज़ार में फाइबर की गेंद आई. इसे लोगों ने हाथोंहाथ लिया और देखते ही देखते दुनिया के तमाम पोलो ग्राउंड में फाइबर की गेंद की एंट्री हो गई, नतीजतन बांस के गेंद की मांग घटने लगी.
फाइबर की गेंद के मार्केट का फैलाव कई वजहों से हुआ. अव्वल तो फाइबर की गेंद टिकाऊ होती है. पोलो के एक गेम में 200 से 250 बांस की गेंद लगती है, मगर फाइबर की दो गेंदों से ही गेम पूरा हो जाता है.
दूसरा ये कि फाइबर की गेंद का वज़न एक समान रहता है. इसके विपरीत बांस की गेंद चूंकि हाथ से बनती है, तो कभी गेंद का वज़न 100 ग्राम का रहता है और कभी यह 150 ग्राम की भी हो जाती है.
रंजीत माल बताते हैं, ‘बांस का गेंद टिकाऊ नहीं होता है. बहुत जल्दी फट जाता है. फाइबर लंबा चलता है. जब फाइबर की गेंद ने बांस की गेंद का बाज़ार निगल लिया, तो हमने यह जानने की कोशिश की थी कि बॉल किन चीजों से बनता है, ताकि हम भी बना पाते, लेकिन जिस केमिकल से वे बनाते हैं, वो केमिकल भारत में नहीं मिलता.’
‘राजाओं का खेल’ के रूप में मशहूर पोलो की शुरुआत इरान और तुर्की से मानी जाती है. बाद में यह खेल जापान समेत तमाम देशों तक पहुंचा. लेकिन, अभी इस खेल का जो स्वरूप नज़र आता है, वह मणिपुर की देन है.
मणिपुर में पोलो की तर्ज पर ही एक पारंपरिक खेल हुआ करता था, जिसमें अंग्रेज़ों ने कुछ तब्दीलियां कर एक अलग ही शक्ल-ओ-सूरत दे दी. ये सब 19वीं शताब्दी में हुआ था. धीरे-धीरे इस खेल की लोकप्रियता बढ़ने लगी.
उन दिनों लकड़ी की गेंद से पोलो खेला जाता था. बताया जाता है कि 1860 में बांस से पोलो गेंद बननी शुरू हुई थर और इसका श्रेय देउलपुर के ही बिपिन चंद्र बाग को जाता है.
बिपिन चंद्र मूलतः किसान थे. वह बांस की जड़ का इस्तेमाल हंसिया की मुट्ठी बनाने में किया करते थे. उनके कुछ साथियों का फिरंगियों से संपर्क था. बिपिन चंद्र बाग ने बांस की जड़ के साथ प्रयोग किया और पोलो गेंद बनाकर अपने साथियों की मदद से अंग्रेज़ों को गिफ्ट कर दिया. यह गेंद फिरंगियों को पसंद आ गई. फिर क्या था, देउलपुर गांव पोलो गेंद का इकलौता सप्लायर बन गया.
यहां बनने वाली बांस की गेंद की मांग में और तेज़ी सन 1862 के बाद आई, जब कलकत्ता पोलो क्लब की स्थापना हुई. इसके बाद तो अमेरिका, न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, अर्जेंटीना और अन्य देशों में भी यहां से गेंद भेजी जाने लगी.
दरअसल, देउलपुर में जो बांस होता है, उसकी जड़ पोलो गेंद बनाने के अनुकूल होती है, ये भी एक बड़ी वजह है कि यहां से ही पोल की गेंद बननी शुरू हुई.
रंजीत माल बताते हैं, ‘बिहार का बांस पतला होता है. उसकी जड़ भी पतली होती है. लेकिन, घोरू (बांस की एक प्रजाति) बांस मोटे होता है. उसकी जड़ का आकार भी बड़ा होता है. करीब दो किलोग्राम वजन होता है. इसे काटकर 100 से 150 ग्राम की गेंद बनाई जाती है. पोलो गेंद का आकार 10 इंच का होना चाहिए. घोरू बांस की जड़ मोटी होती है. इस कारण काट-छांट के बाद भी 10 इंच की गेंद बन जाती है.’
बांस की गेंद बनाना बेहद महीन काम है. छेनी-हथौड़ी और रंदा की मदद से ही गेंद गोल बनाना होता है. रंजीत माल उत्साह के साथ गेंद बनाने की पूरी प्रक्रिया समझाते हैं, ‘हम बांस काट लेते हैं और उसकी जड़ मिट्टी में छोड़ देते हैं. जब जड़ की नमी ख़त्म हो जाता है, तब उसे बाहर निकालते हैं. बाहर निकाल कर कुछ दिन के लिए धूप में छोड़ देते हैं. इसके बाद छेनी और हथौड़ी से काट कर गोल आकार देते हैं. उसके उबड़-खाबड़ हिस्से को बराबर करने के लिए रंदे का इस्तेमाल करते हैं.’
इसके बाद सेरेस कागज से गेंद को रगड़ा जाता है. सेरेस कागज से गेंद को रगड़ने का काम महिलाएं किया करती थीं.
रंजीत माल की मां बताती हैं, ‘पहले तो इतना काम रहता था कि खाने की भी फुर्सत मुश्किल से मिलती थी. उन दिनों 100 गेंद को रगड़ने के एवज़ में डेढ़ रुपये मिलते थे. एक-एक महिला रोज़ाना 300 से 400 गेंद रगड़ देती थी. फिर 100 गेंद पर 10 रुपये मिलने लगे. मज़दूरी तो बढ़ गई, लेकिन काम कम हो गया.’
सेरेस कागज से रगड़ने के बाद गेंद पर एनामेल पेंट चढ़ाया जाता है और इस तरह गेंद तैयार हो जाती है.
रंजीत माल ने बताया कि उन्होंने कई बार राज्य के खेल मंत्री से मुलाकात कर बांस की गेंद बनाने की कला को बचाए रखने के लिए पहल करने की गुज़ारिश की, लेकिन उनकी तरफ से कोई क़दम नहीं उठाया गया.
अभी भारत के ही कुछ क्लब प्रैक्टिस के लिए बांस की गेंद खरीदते हैं, लेकिन बहुत कम संख्या में. इतनी कम सप्लाई से रंजीत माल को परिवार के भरण-पोषण में दिक्कतें आ रही हैं, लेकिन उनके पास और कोई विकल्प भी तो नहीं है.
पोलो के खेल में घोड़ा खिलाड़ी होता है. बांस के गेंद को हिट करने पर जो आवाज़ होती है, वह आवाज़ ही इस गेम की खासियत है. घोड़े इस आवाज़ को ही पहचानते हैं. फाइबर गेंद से वह आवाज़ नहीं आती.
बांस की जगह फाइबर की गेंद ने बांस से गेंद बनाने वाले कारीगरों को तो नुकसान पहुंचाया ही है, पोलो खेल की तासीर पर भी फाइबर ने असर डाला है.
फाइबर की गेंद में ठोकर मारने से बांस की गेंद वाली ट्रेडमार्क आवाज़ नहीं निकलती है. ये आवाज़ घोड़े पहचानते थे. फाइबर की गेंद टिकाऊ तो है, लेकिन उसमें बांस की गेंद जैसी तासीर नहीं है.
रंजीत माल से लंबी बातचीत कर जब लौटने लगा, तो उनकी मां भी साथ-साथ बाहर निकलीं. गुज़ारिश भरे लहज़े में उन्होंने कहा, ‘सर देखिएगा, अगर हमारे लिए कुछ हो जाए. बहुत मुश्किल में जी रहे हैं.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)