पुलवामा हमले के बाद हालात ऐसे हैं कि भाजपा इसका राजनीतिक लाभ लेने के लोभ से बच ही नहीं सकती. नरेंद्र मोदी के लिए इससे बेहतर और क्या होगा कि नौकरियों की कमी और कृषि संकट से ध्यान हटाकर चुनावी बहस इस बात पर ले आएं कि देश की रक्षा के लिए सर्वाधिक योग्य कौन है?
पुलवामा हमले के बाद बुलाई गई सर्वदलीय बैठक को बीते 72 घंटे भी नहीं हुए थे कि तलवारें म्यानों से बाहर आ गईं. ये समझदारी कि सियासी पार्टियां जम्मू-श्रीनगर हाइवे पर हुए आतंकी हमले, जिसमें केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के 44 से ज्यादा जवान शहीद हो गए, का राजनीतिकरण नहीं करेंगी, हवा हो चुकी थी.
यहां तक कि केंद्र द्वारा नियुक्त एक संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति ने सार्वजनिक तौर पर कश्मीर, कश्मीरियों और उनके सामानों का बहिष्कार करने का आह्वान तक कर डाला.
हमेशा की तरह प्रधानमंत्री ने बजरंग दल जैसे संघ परिवार के संगठनों द्वारा मध्य और उत्तर भारत में रह रहे और पढ़ाई कर रहे कश्मीरी युवाओं को डराने-धमकाने को लेकर चुप्पी ओढ़ ली है. इस बीच नरेंद्र मोदी खुद पटना, वाराणसी आदि जगहों पर भाषण दे रहे हैं और काफी कूट भाषा में बदला लेने की बात कर रहे हैं.
उन्होंने पटना में एक गुस्साई भीड़ के सामने कहा, ‘जो आग आपके दिल में जल रही है, वही आग मेरे दिल में भी जल रही है. अफसोस की बात यह है कि हमारे पहले से ही ध्रुवीकृत राजनीतिक माहौल में, जहां पिछले साढ़े चार सालों में जहरीली बहुसंख्यकवादी भावनाओं को नियमित अंतराल पर हवा देने का काम किया जाता रहा है, इस आग के निशाने पर मुख्य तौर पर हमारे अपने ही देशवासी हैं.’
तथ्य यह है कि पुलावामा के बाद के हालात ऐसे हैं कि भारतीय जनता पार्टी इसका राजनीतिक फायदा उठाने के लोभ से बच ही नहीं सकती. मोदी के लिए इससे अच्छा और क्या हो सकता है कि वे नौकरियों की कमी और कृषि संकट की तरफ से सबका ध्यान हटाकर बहस को इस बिंदु पर लाकर टिका दें कि इस देश की रक्षा करने के लिए सर्वाधिक योग्य व्यक्ति कौन है?
भाजपा के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे में कश्मीर को लेकर बहुसंख्यकवादी गुस्से की एक सही मात्रा को मिलाने के लालच से बच पाना भी मुश्किल होगा. यह एक मारक गठजोड़ हो सकता है और विपक्षी पार्टियों को अगले दो महीने के चुनाव अभियान के दौरान इसका मुकाबला करने के लिए तैयार रहना चाहिए.
इसलिए सच्चाई यही है कि हम भले इसे पसंद करें या न करें, पुलवामा का राजनीतिकरण किया जाना तय है. विपक्षी पार्टियों को पूरी तरह से इसके लिए तैयार रहना चाहिए.
एक जानकार राजनीतिक विशेषज्ञ ने इस बात को रेखांकित किया कि पुलवामा आत्मघाती हमलावर का संदेश, जिसके जैश-ए-मोहम्मद के दिमाग की उपज होने की संभावना सबसे ज्यादा है, मुख्य तौर पर भाजपा की गो-राजनीति के संदर्भ में हिंदुत्ववादी बहुसंख्यकवाद की बात करता है.
यह काफी दिलचस्प है, क्योंकि दशकों से कश्मीरी मुस्लिम बहुमत सिर्फ अधिकतम स्वायत्तता या आज़ादी के सवाल पर केंद्रित रहा है और देश के बाकी हिस्सों में, चाहे उत्तर प्रदेश हो, बिहार या गुजरात हो, अल्पसंख्यक मुस्लिमों को निरंतर परेशान करने वाले सवालों से या तो वह खुद को जोड़ नहीं पाया या उसे समझ नहीं पाया.
राइजिंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी, जो श्रीनगर में एक आतंकवादी के हाथों मारे गए, ने एक बार मुझे कहा था कि अतीत में कश्मीरी मुस्लिमों ने 2002 के गुजरात दंगों पर भी ज्यादा गुस्से का प्रदर्शन नहीं किया था.
लेकिन, शुजात ने आगाह किया था कि एनडीए सरकार के दौर में हालात बदल रहे थे और युवा कश्मीरियों ने भारत के बाकी हिस्सों में मुस्लिमों की गाय के नाम पर की जाने वाली लिंचिंग जैसे मसलों पर खुद को पहले से ज्यादा अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया था.
शुजात की यह बात उस फिदायीन मानव बम के वीडियो संदेश को देखकर याद आती है. और ऐसा लगता है कि पाकिस्तान भी भारत के बाकी हिस्सों में अल्पसंख्यक मुस्लिमों के प्रति युवा कश्मीरियों की सहानुभूति के बढ़ते प्रदर्शन से खुश है.
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्या कारण है कि मुस्लिम बहुसंख्यक कश्मीर, जो इन दशकों में पूर्ण स्वायत्तता या आजादी के ख्याल में डूबा हुआ था, हिंदुत्व और भारत के बाकी हिस्सों, खासकर हिंदी पट्टी की बहुसंख्यकवादी राजनीति से जुड़ी बहस में शामिल हो रहा है?
यह एक बेहद अहम सवाल है, जिसकी तहों में जाने की जरूरत है. भाजपा द्वारा अपनी हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद की राजनीति को हवा देने के लिए कश्मीर का इस्तेमाल का लोभ महज पुलवामा हमले के बाद नहीं हुआ है.
पुलवामा के बाद की स्थिति चीजों पर पड़े पर्दे को और उठा देती है. यहां यह याद किया जा सकता है कि कैसे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से करीब आठ महीने पहले एक सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल मोदी से मिला था. यह उस समय की बात है जब कश्मीर एक एनकाउंटर में बुरहान वानी के मारे जाने से पैदा हुए संकट से जूझ रहा था.
ऐसे में जब कि कश्मीर के अस्पताल पैलेट गन के पीड़ितों से खचाखच भरा हुआ था, एक सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल यह मांग लेकर प्रधानमंत्री से मिला था कि भारत के बाकी हिस्सों में, खासकर उत्तर प्रदेश में सियासी फसल काटने के लिए कश्मीर का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए.
मोदी ने इस प्रतिनिधिमंडल को आश्वासन दिया था कि ऐसा नहीं होगा. लेकिन अगर चुनाव से पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के भाषणों को सुनें, तो यह साफ हो जाएगा कि प्रधानमंत्री ने अपना वादा नहीं निभाया.
अगर उन्होंने उस वक्त अपने वादे को नहीं निभाया, तो इस बात पर यकीन करने का कोई ठोस कारण नहीं है कि वे अब ऐसा करेंगे. मोदी इस तरह के नेता होने का दिखावा तक नहीं करते, जो बहुसंख्यकवादी भीड़ की भावनाओं के खिलाफ जाने का खतरा मोल लेगा.
मोदी ने अब तक सिर्फ भीड़ की भावनाओं को पढ़ने और उसको लेकर तटस्थ रहने या कभी-कभी कूट भाषा में उसे हवा देने की अपनी अचूक क्षमता का ही परिचय दिया है. और किसी को भ्रम में रहने की जरूरत नहीं है. चुनाव से पहले के अगले दो महीने में वे एक बार फिर ऐसा करेंगे.
पिछले करीब 70 सालों से कश्मीर एक समाधान से परे मसला रहा है, लेकिन इसने कभी भी किसी आम चुनाव के परिणाम को तय करने में बड़ी भूमिका नहीं निभाई है. हालांकि आगामी आम चुनावों में भाजपा की राष्ट्रीय सुरक्षा और बहुसंख्यक गोलबंदी को लेकर बुनी जा रही रणनीति के चलते कश्मीर का मसला मुख्यधारा में शामिल हो जाएगा.
हम उत्तर प्रदेश में आदित्यनाथ जैसे किसी व्यक्ति को इसका नेतृत्व करते हुए देख सकते हैं, जो संभवतः भाजपा के लिए सबसे ज्यादा अहमियत रखने वाला राज्य है. खासकर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन के बाद.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पाकिस्तान सेना के भू-राजनीतिक विशेषज्ञों और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को सलाह देनेवाले भारत में बनने वाली इन स्थितियों का स्वागत करेंगे.
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