पाकिस्तान का दायित्व है कि वो अपनी ज़मीन पर पनप रहे आतंकी समूहों के ख़िलाफ़ कदम उठाए. प्रधानमंत्री इमरान खान को यह समझना होगा कि उनके ऐसा न करने की स्थिति में बातचीत के प्रस्ताव से कुछ हासिल नहीं होगा.
पाकिस्तान के बालाकोट में जैश ए मोहम्मद के खिलाफ भारत की ‘गैर-सैन्य’ सैन्य कार्रवाई और इसके बदले में पाकिस्तान की राजौरी में बम गिराने की ‘बिना बदले की भावना’ की कार्रवाई ने दोनों देशों को आमने-सामने लेकर खड़ा कर दिया है.
यहां से एक अनिश्चित और खतरनाक रास्ता ऐसी मंज़िल की ओर जाता है जहां दोनों पक्षों में से कोई नहीं पहुंचना चाहेगा. दूसरी ओर तनाव कम करने का विकल्प है. भारत और पाकिस्तान के लिए ज़रूरी है कि वे यह विकल्प चुनें.
भारत और पाकिस्तान का अपने-अपने लड़ाकू विमान खोना और एक भारतीय पायलट का पाकिस्तान की हिरासत में पहुंचना किसी सशस्त्र संघर्ष के अप्रत्याशित स्वरूप को दिखाता है.
पायलट को जल्द ही रिहा कर भारत को सौंप दिया गया. उनका लौटना भारत के लिए एक मौका है कि वो अपनी बेवजह की बयानबाजी में बदलाव लाए और उसके अनुसार पिछले तीन दिनों की आतंकवाद के खिलाफ उसकी कार्रवाई का जो भी हासिल है, उसे आगे बढ़ाने के कूटनीतिक रास्ते तलाशे.
सैन्य ऑपरेशन के रणनीतिक स्तर पर तो फायदे हो सकते हैं लेकिन यह सोचना बेवकूफी है कि अकेले इसी के बल पर आतंकवाद की समस्या से निपटा जा सकता है. आज़ादी के बाद से भारत ने पाकिस्तान से चार युद्ध लड़े हैं लेकिन देश के राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व के उद्देश्य हमेशा स्पष्ट थे- उन लड़ाइयों के लिए भी, जो उन्होंने शुरू नहीं कीं.
मिसाल के तौर पर कारगिल के समय उद्देश्य पाकिस्तानी घुसपैठियों को भारतीय नियंत्रण रेखा (एलओसी) में आने वाले इलाकों से बाहर निकालते हुए एलओसी की शुचिता सुनिश्चित करना था.
आतंक का खात्मा भारत की नीति का एक जायज़ मकसद है, लेकिन केवल टीवी पर आने वाले उन्मादी एंकर और गर्म दिमाग वाले रिटायर्ड सेना अधिकारियों को यह लगता है कि ऐसा करने के लिए तनाव/दबाव बढ़ाना ही एक रास्ता है, बालाकोट एयरस्ट्राइक जिसका पहला कदम था.
नरेंद्र मोदी सरकार, जिसने अति-राष्ट्रवाद की चिंगारी को हवा दी और इसका राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की, को इस मसले पर बेहतर राजनीतिक फैसले के लिए इस तरह की गैर-ज़िम्मेदाराना बयानबाजियों की अनुमति नहीं देनी चाहिए.
आधिकारिक स्टैंड यही है कि ‘बातचीत और आतंकवाद साथ-साथ नहीं चल सकते. लेकिन इस फॉर्मूला का उलट कुछ नहीं है- बातचीत नहीं लेकिन आतंक फिर भी बना है, जैसा हम बीते कुछ सालों में देख ही चुके हैं.
और चूंकि यह समस्या बनी हुई है, यह डर भी बना हुआ है कि नेता इस बात पर यकीन करने लगेंगे कि आतंक को ख़त्म करने का एकमात्र रास्ता जंग ही है. जबकि आतंक से लड़ने के लिए मुख्य रूप से सैन्य माध्यमों के इस्तेमाल की सीमाओं और खतरों के बारे में दुनिया भर में पर्याप्त उदाहरण देखने को मिलते हैं, भारत-पाक के बारे में भी जोखिम स्पष्ट हैं.
पाकिस्तान का दायित्व है कि वो अपनी ज़मीन पर पनप रहे आतंकी समूहों के खिलाफ कदम उठाये. प्रधानमंत्री इमरान खान को यह समझना होगा कि उनके जैश ए मोहम्मद और अन्य के खिलाफ कोई कदम न उठाने की स्थिति में उनके बातचीत के प्रस्ताव से कुछ हासिल नहीं होगा.
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