बस्तर में चलने वाले नक्सल राज की खूनी कहानी हर गांव में आपको सुनने को मिलेगी. बंदूक और हिंसा की राजनीति का नतीजा यह हुआ है कि शांतिपूर्ण जीवन के आदी आदिवासियों का जीवन बिखर चुका है.
बस्तर में सीआरपीएफ के 25 जवानों की मौत ने भले ही मीडियाकर्मियोें और राजनेताओं को देशभक्ति दिखाने का एक और मौका दे डाला हो, वास्तव में यह घटना भारत में लोकतंत्र की मौजूदा हालत पर सवाल खड़े करती है.
अभी महीना भर से कुछ ज्यादा दिन पहले इसी इलाके में सीआरपीएफ के 12 जवानों को माओवादियों ने मार डाला था. सुकमा में हुई इन दोनों घटनाओं के बारे में जिस तथ्य पर ज्यादा जोर नहीं दिया जा रहा है वह यह है कि सड़क-निर्माण के विरोध में लगातार हिंसा हो रही है.
इस तथ्य पर सरकार और मीडिया पूरी तरह खामोश है कि सरकार इन इलाकों को सड़क से जोड़ने पर क्यों अमादा है जबकि स्थानीय आदिवासी इसका जमकर विरोध कर रहे हैं.
सच्चाई यह है कि माओवादी इस विरोध को आवाज दे रहे हैं और बदले में उन्हें अपनी हिंसा आधारित राजनीति के लिए समर्थन मिल रहा है.
भारतीय लोकतंत्र किस हालत को पहुच गया है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सुकमा मुठभेड़ में मारे गए स्थानीय आदिवासियों के बारे में कुछ भी नही बताया जा रहा है.
सीआरपीएफ के जवान शेख मोहम्मद ने 25 अप्रैल की घटना का जो ब्योरा दिया है उससे गांव वालों के मारे जाने का कुछ अंदाजा मिलता है. उन्होंने बताया कि माओवादियों के आने के पहले गांव वाले आए थे और वे हथियारोें से लैस थे.
उन्होंने माओवदियों के मारे जाने की बात तो कही, लेकिन गांववालों के बारे में खामोश है. सरकारी आकडें तो देर से मिलते हैं लेकिन इसमें मरने वाले नागरिकों की संख्या भी दी जाती है.
एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक 2015 में नक्सली हिंसा में मरने वाले सीआरपीएफ, माओवादियों और ग्रामीणों की संख्या लगभग बराबर थी. सीआरपीएफ के 47 जवान, 46 माओवादी और 47 ग्रामीण मारे गए थे.
हिंसा किस हद को पार कर गई है इसका अंदाजा मई, 2013 में सुकमा में 27 कांग्रेसी नेताओं की हत्या से लगाया जा सकता है. इस घटना में कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व का सफाया ही हो गया था.
जब राज्य के पूर्व मंत्रियों, विपक्ष के नेता और विधायकों की जान जा सकती है तो बाकी नागरिकों की सुरक्षा की गारंटी सरकार किस मुंह से दे सकती है?
हिंसा के इस दुष्चक्र में स्थानीय आदिवासियों, खासकर महिलाओं के उत्पीड़न का जायजा भी लेना जरूरी है. अभी दो महीने पहले ही छतीसगढ़ हाईकोर्ट ने 28 महिलाओं के सामूहिक बलात्कार के मामले में सरकार को नोटिस भेजा है.
यह आदेश राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक जांच रिपोर्ट के आधार पर आया है जिसने पहली दृष्टि में इस आरोप को सही पाया है कि पुलिस और सुरक्षा बल ने सामूहिक बलात्कार के अपराध किए हैं.
बस्तर की आदिवासी महिलाओं के उत्पीड़न का अंदाजा तो इसी से लगाया जा सकता है कि उन्हें इसका सबूत देना होता है कि वे विवाहित हैं क्योंकि अविवाहित होने का अर्थ माओवादियो का समर्थक होना है. लेकिन पुलिस और सुरक्षा बल इसका पता बड़े अपमानजनक ढंग से करते हैं.
माओवाद का समर्थक होने का आरोप लगाकर पुलिस आदिवासियों को ज्यादतियों का शिकार बनाती है और माओवादी यह कहकर उन्हें सताते हैं कि वे पुलिस की मदद कर रहे हैं.
पुलिस के लिए मुखबिरी के आरोप में आए दिन माओवादी ग्रामीणों की हत्या करते रहते हैं. यह आम हो चला है. सलवा जुडूम का कार्यक्रम कांग्रेस के वरिष्ठ नेता महेंद्र कर्मा ने कुछ बरस पहले चलाया था.
भाजपा सरकार ने भी उस कार्यक्रम को जारी रखा. इस कार्यक्रम के तहत माओवादियों से लडने के लिए आदिवासियों को ही सामने कर दिया गया था.
इस कार्यक्रम ने बस्तर के गांवों को खूनी संघर्ष में भेज दिया था. आदिवासी ही आदिवासी के खिलाफ खड़े थे. केंद्र और राज्य की भाजपा सरकारें वही किस्सा दोहराने की फिराक में हैं.
स्थानीय स्वशासन, पंचायती राज और संसाधनों पर लोगों के हक के दावोें के बीच किसी में यह पूछने की हिम्मत नहीं है कि अपने इलाके में बन रही सड़कों के बारे में सवाल करने का हक आदिवासियों को क्यों नहीं है.
गरीबी और भुखमरी के चंगुल में फंसे आदिवासियों की हालत का फायदा दोनों ओर से उठाया जा रहा है. देश में हिंसक क्रांति के जरिए कथित सर्वहारा राज लाने की जिद में माओवादयों ने उन्हें हिंसा की आग में झोेंक रखा है.
यह पक्का है कि उनकी सेना में भर्ती होने वाले नौजवान और नवयुवती माकर्सवाद-लेनिनवाद के आकर्षण में और एक नया निजाम लाने के लिए उनके पास नहीं गए हैं.
वे तो अपने समाज, अपनी संपदा और अपनी संस्कृति या यूं कहिए कि अपना जीवन बचाने की मजबूरी में वहां गए हैं.
बस्तर के लोगों की दयनीय स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जंगल पर उनका अधिकार पहले ही जा चुका है और खनन तथा विकास के नाम पर उनकी ज्यादातर जमीन आज सरकार, बहुराष्ट्रीय कंपनियों या व्यापारियों के हाथ में है. उनके सामने आजीविका का कोई साधन नहीं है.
सरकार की ओर से चलने वाले कल्याण के कार्यक्रमों में इतना भ्रष्टाचार है कि इसका फायदा नीचे तक नहीं पहुंचता. यह बताने की जरूरत नहीं है कि अपना राज्य होने के बाद भी अधिकारी-कर्मचारी बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों को अपना उपनिवेश समझते हैं और स्थानीय लोगों को आदमी का दर्जा देने को तैयार नहीं हैं.
बस्तर में सक्रिय किसी भी लोकतांत्रिक पार्टी के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि वे आदिवासियों के हितों की रक्षा करने का काम कर रही हैं. उनका निहित स्वार्थ-ठेकेदार, सूदखोर व्यापारी और कॉरपोरेट से गहरा संबंध है.
वे इस क्षेत्र की अमूल्य संपदा के दोहन में लगी कंपनियों के इशारे पर ही काम करती हैं. लोकतंत्र के संचालकों की ऐसी हालत है तो आदिवासियों के सामने कौन सा रास्ता बचता है?
बस्तर में चलने वाले नक्सल राज की खूनी कहानी हर गांव में आपको सुनने को मिलेगी. बंदूक और हिंसा की राजनीति का नतीजा यह हुआ है कि शांतिपूर्ण जीवन के आदी आदिवासियों का जीवन बिखर चुका है.
अपनी जमीन और जंगल को बचाने के लिए आदिवासी माओवादियों की शरण में जाते हैं और माओवादी इसकी एवज में उन्हें हिंसा के एक न खत्म होने वाले खेल में शामिल कर लेते हैं.
अंग्रेजों के जाने के बाद कांग्रेस ने संसाधनों की लूट की नीति को और तेजी से लागू किया. विकास के नाम पर यहां की खनन संपदा का दोहन किया गया और जंगल उजाड़ दिए गए.
सरकारी नीतियों ने आदिवासियों के उन अधिकारों के साथ भी छेड़छाड़ की जो उन्होंने लड़कर अंग्रेजों से लिए थे. देश का कोई भी ऐसा औद्योगिक घराना नहीं है जिसने बस्तर की हजारों एकड़ जमीन अपने कब्जे में न कर रखी हो.
उदारीकरण के नाम पर चली लूट भाजपा के शासन में और भी तेज हो गई है क्योंकि पर्यावरण की रक्षा के कानून ढीले कर दिए गए हैं. बस्तर के जंगलों की रक्षा करने का अब कोई उपाय नहीं बचा है.
अगर माओवादी विकास के नाम पर जंगलों और आदिवासियों को उजाड़े जाने के खिलाफ खड़े हैं तो विकास की बाजारी ताकतों की रक्षा में सरकार और सुरक्षा बल. माओवादियों की हिंसा के जवाब में सुरक्षा बलों की हिंसा का शिकार भी आदिवासी ही हैं.
अब वक्त आ गया है कि इसका लेखा-जोखा लिया जाए कि माओवादियों की करीब पचास साल की हिंसक राजनीति से क्या हासिल हुआ है. इस राजनीति को गलत मानने वालों का कहना है कि इस राजनीति के कारण आदिवासी दमन के शिकार हैं और अपने संसाधन बचाने में भी उन्हें कोई कामयाबी नहीं मिली है.
हजारों लोगों की बलि देकर भी कुछ ऐसा हासिल नहीं हो पाया है जिसका जश्न माओवादी मना सकते हैं. यह कहना भी मुश्किल हैं कि अहिंसक संघर्ष विकास के नाम पर जंगल, नदी, पहाड़ को निगलने की मुहिम को रोक ही लेते. लेकिन इतना तो तय है कि इतने लोगों की जानें नहीं जाती और आदिवासियों की लड़ाई को एक ऊंचा नैतिक धरातल मिलता.
सवाल है कि अहिंसक संघर्ष संगठित कौन करे. छोटे राजनीतिक समूहों के लिए यह संभव नहीं है कि वे एक तरफ सरकार, कॉरपोरेट और पुलिस बल के संयुक्त समूह और दूसरी तरफ माओवादियों की फौज का मुकाबला करें.
कॉरपोरेट लूट को हर राजनीतिक पार्टी का समर्थन है. कांग्रेस और भाजपा इसमें सबसे आगे हैं. सरकार चौड़ी सड़क बनाने में भले लगी है, लेकिन बस्तर पहुंच कर लोकतंत्र का रास्ता तंग हो जाता है.
राज्य में रमन सिंह और केंद्र में मोदी की सरकार संवाद की छोटी संभावनाओं को भी खत्म करने में लगी हैं. उन्होंने विभिन्न पक्षों के बीच संवाद स्थापित करने वाले एनजीओ, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों पर हमले तेज कर रखे हैं.
इससे यही संकेत मिलता है कि लोकतांत्रिक तरीकों से आदिवासियों के विरोध का सामना करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है. हिंसा का सिलसिला खत्म होता नजर नहीं आता है. आदिवासी और सुरक्षाबल दोनों अपनी जान गंवाएंगे.
सरकारी कृपा से चलने वाले अखबारों और चैनलों में से कोई यह भी पूछ सकता है कि बस्तर में सर्जिकल स्ट्राइक कब होगा.
शायद उसे यह नहीं पता यह इलाका देश के भीतर है. फिलहाल कोई रास्ता नजर नहीं आता. एक तरफ गरीब आदिवासी हैं और दूसरी तरफ किसान और ग्रामीण परिवारों से आने वाले सुरक्षा बल के जवान.