किसानों को उल्लू बनाने के लिए बहुत ज़रूरी हैं राष्ट्रवाद के नारे

ग्रामीण क्षेत्रों में न सिर्फ कृषि आय घटी है बल्कि इससे जुड़े काम करने वालों की मज़दूरी भी घटी है. प्रधानमंत्री मोदी कृषि आय और मज़दूरी घटने को जोशीले नारों से ढंकने की कोशिश में हैं.

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The Prime Minister, Shri Narendra Modi celebrating the Diwali with the jawans of the Indian Army and BSF, in the Gurez Valley, near the Line of Control, in Jammu and Kashmir, on October 19, 2017.

ग्रामीण क्षेत्रों में न सिर्फ कृषि आय घटी है बल्कि इससे जुड़े काम करने वालों की मज़दूरी भी घटी है. प्रधानमंत्री मोदी कृषि आय और मज़दूरी घटने को जोशीले नारों से ढंकने की कोशिश में हैं.

The Prime Minister, Shri Narendra Modi celebrating the Diwali with the jawans of the Indian Army and BSF, in the Gurez Valley, near the Line of Control, in Jammu and Kashmir, on October 19, 2017.
कश्मीर में सेना और बीएसएफ जवानों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फाइल फोटो, साभार: पीआईबी)

ग्रामीण इलाके में न सिर्फ खेती से आय घटी है बल्कि खेती से जुड़े काम करने वालों की मज़दूरी भी घटी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी इस असफलता को आतंकवाद और राष्ट्रवाद के जोशीले नारों से ढंकने की कोशिश में हैं मगर पांच साल में उस जगह को बर्बाद किया है जहां से किसान आता है और सेना के लिए जवान आता है.

इसके बाद भी अगर चैनलों के सर्वे में मोदी की लोकप्रियता 100 में 60 और 70 के स्केल को छू रही है तो इसका मतलब है कि लोग वाकई अपनी आमदनी गंवाकर इस सरकार से बेहद ख़ुश हैं. यह एक नया राजनीतिक बदलाव है.

अफसोस कि इस बारे में उन हिन्दी अख़बारों में कुछ नहीं छपता जिसके पत्रकार और संपादक गांवों से आते हैं. इंडियन एक्सप्रेस के हरीश दामोदरन खेती पर लिखने वाले गंभीर रिपोर्टर हैं. दिल्ली के मीडिया में उनके अलावा कोई है भी नहीं.

हरीश ने अपनी पिछली रिपोर्ट में बताया था कि सितंबर-अक्तूबर 2018 में खेती से होने वाली आमदनी 14 साल में सबसे कम दर्ज की गई है. किसानों को 14 साल बाद आमदनी में इस दर्जे की गिरावट का सामना करना पड़ रहा है. आमदनी घटी है तो खेती से जुड़े कामों की मज़दूरी भी घटी है.

नोटबंदी और जीएसटी की तबाही के बाद गांवों में लौटे मज़दूरों की हालत और बिगड़ी ही होगी. हरीश दामोदरन ने 2009-13 और 2014-18 के बीच यूपीए और एनडीए के दौर में औसत मज़दूरी की तुलना की है.

2009-2013 के बीच यूपीए के दौरान खेती से जुड़े कामों की मज़दूरी 17.8 प्रतिशत की दर से बढ़ी थी, जो 2014-18 में घटकर 4.7 फीसदी हो गई और अब 2017 दिसंबर से लेकर 2018 दिसंबर के दौरान गिरकर 3.8 प्रतिशत हो गई है.

आप अंदाज़ा नहीं कर सकते हैं कि 17.8 प्रतिशत से 4.7 और वहां से 3.8 प्रतिशत पर आने का क्या असर रहा होगा. पूरा मीडिया खेती के ऐसे विश्लेषणों को गायब कर चुका है. आख़िर कब तक हम इस समस्या से भागेंगे.

सरकार बनने के बाद भी यह समस्या सबके सामने होगी. खेती के संकट के सवाल को हल्के में लेने की आदत किसानों को भारी पड़ेगी और समाज को भी.

विपक्ष को भी कोई ठोस प्रस्ताव सुझाव निकालना होगा. अब इसे ज़्यादा नहीं टाला जा सकता है. जिस सेक्टर पर भारत में काम करने वालों की आबादी का 47 प्रतिशत टिका हो और वहां उनकी मज़दूरी घट रही हो यह चिंता की बात है. यही कारण है कि जोशीले नारों के ज़रिये गांवों में किसानों की आवाज़ दबाई जा रही है. किसान भी उन नारों में बह रहे हैं.

नोटबंदी भारत की आर्थिक संप्रभुता पर हमला था. प्रधानमंत्री भले इस फ्रॉड पर बात करने से बच जाते हैं या जनता की आंखों में धूल झोंककर निकल जाते हैं मगर इसकी हकीकत लोगों से बात करने पर सामने आ जाती है.

उनकी लोकप्रियता उनके हर झूठ और धूल का जवाब बन गई है. उनके लिए भी, समर्थकों के लिए भी और मीडिया के लिए भी. इस बात के कोई प्रमाण न पहले थे और न अब हैं कि नोटबंदी से काला धन समाप्त होता है. कम भी नहीं हुआ, समाप्त होने की तो बात ही छोड़िए.

आरटीआई कार्यकर्ता वेंकटेश नायक ने रिज़र्व बैंक से सवाल पूछे थे, जिसके जवाब में बताया गया है कि नोटबंदी वाले दिन यानी 8 नवंबर 2016 की अपनी बैठक में रिज़र्व बैंक ने साफ-साफ कहा था कि 500 और 1000 के नोट समाप्त करने से काला धन समाप्त नहीं होता क्योंकि इसका व्यापक स्वरूप सोना और मकान-दुकान की संपत्तियों में खपाया गया है.

रिज़र्व बैंक की बैठक में सरकार की हर दलील को अस्वीकार किया गया था. इसके बाद भी कहा जाता है कि नोटबंदी को लेकर रिज़र्व बैंक सहमत था. इस तरह के झूठ आप तभी बोल सकते हैं जब आपकी लोकप्रियता चैनलों के मुताबिक 60 प्रतिशत हो.

यही नहीं नोटबंदी के समय आदेश हुआ था कि पुराने 500 और 1000 के नोट पेट्रोल पंप, हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन पर इस्तेमाल होंगे. इसके ज़रिये कितना पैसा सिस्टम में आया, कहीं उसके जरिए काले धन को सफेद तो नहीं किया गया, इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है.

आरटीआई से पूछे गए प्रश्न के उत्तर में भारतीय रिज़र्व बैंक ने यही कहा है कि इसका रिकॉर्ड नहीं है. पेट्रोल पंप किसके होते हैं, आपको पता है.

आज के ही बिजनेस स्टैंडर्ड में नम्रता आचार्य की ख़बर छपी है कि भीम ऐप के ज़रिए भुगतान में कमी आने लगी है. अक्तूबर 2016 के ज़रिए 82 अरब भुगतान हुआ था. फरवरी 2019 में 56.24 अरब का भुगतान हुआ.

पांच महीने में 31 प्रतिशत की गिरावट है. देरी का कारण यह भी है कि भीम ऐप के ज़रिये भुगतान में औसतन दो मिनट का समय लगता है, जबकि डेबिट कार्ड से चंद सेकेंड में हो जाता है. बाकी मामलों में बैंकों ने डिजिटल लक्ष्य को पूरा कर लिया है.

(यह लेख मूल रूप से रवीश कुमार के ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ है.)