मोदी की शख़्सियत से सीधी टक्कर में विपक्षी नेता काफी कमज़ोर ठहरते हैं. विपक्ष को अपने खेल का तरीका बदलना होगा.
दिल्ली नगर निगम चुनावों में आम आदमी पार्टी (आप) के खराब प्रदर्शन पर सबसे मौजूं सवाल स्वराज अभियान के योगेंद्र यादव ने उठाया है.
2015 की शुरुआत में जब दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने सबको चकित करते हुए जीत हासिल की, उस वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अपने शीर्ष पर थी.
आखिर तब से लेकर अब तक ऐसा क्या बदल गया कि नगरपालिका चुनावों में आप बिल्कुल पस्त हो गई?
बात ये है कि जनवरी, 2015 और मई, 2017 के बीच मोदी की लोकप्रियता स्थिर रही है. तो क्या ‘बदलनेवाली चीज’ कुछ और है, जिससे ‘आप’ के ग्राफ के नीचे आने की व्याख्या की जा सकती है? आखिर यह बदलनेवाली चीज क्या है?
यह एक ऐसी चीज है, जिसके बारे में ‘आप’ को ईमानदारी के साथ आत्ममंथन करना होगा. एक तरह से देखें, तो विभिन्न राज्यों में राज कर रही अन्य पार्टियों को भी इस बारे में सोचना होगा कि क्या सिर्फ मोदी के व्यक्तित्व से मुकाबला करने की उनकी रणनीति आने वाले समय में उन्हें मदद पहुंचा सकती है?
ऐसा लगता है कि मतदाता शख्सियतों की लड़ाई से ऊबता जा रहा है और मोदी, जिन्होंने खुद 2014 का चुनाव राष्ट्रपति चुनाव की शैली में लड़ा, लगातार अपनी रणनीति बदल रहे हैं और लोगों के सामने ठोस मुद्दे रख रहे हैं.
आखिरकार उन्होंने गरीबों को सब्सिडी युक्त कुकिंग गैस, सस्ता मकान और कम दाम में जेनेरिक दवाइयां जैसी लक्षित कल्याणकारी योजनाओं का लाभ दिलाने के लिए केंद्र और राज्य के अमले को हरकत में ला दिया है.
निश्चित तौर पर वे सिर्फ इतना ही नहीं कर रहे हैं. वे बेहद चतुराई के साथ कल्याण को आक्रामक राष्ट्रवाद के साथ फेंट रहे हैं और हिंदुत्व को वंचितों और हाशिये के लोगों तक लेकर जा रहे हैं.
ऐसा करते हुए मोदी खुद के संग भाजपा के लिए भी नई पहचान गढ़ रहे हैं. साधारण मतदाता अब यह कहते हुए सुना जा रहा है कि मोदी की भाजपा, पहले की भाजपा से अलग है.
मोदी पर व्यक्तिगत हमला करने को अपना एकमात्र राजनीतिक हथियार बनाने से पहले विपक्षी पार्टियों को इस नई सच्चाई को नजदीक से समझना होगा. उन्हें यह समझना होगा कि मोदी की शख्सियत पर निशाना साध कर वे उन्हें और मजबूत कर रहे हैं.
मोदी की शख्सियत से सीधी टक्कर में विपक्षी नेता काफी कमजोर ठहरते हैं. दरअसल यही बात योगेंद्र यादव कह रहे हैं, जब वे कहते हैं कि केजरीवाल शख्सियत की लड़ाई में मोदी से साफ तौर पर हार गये.
शख्सियतों की इस लड़ाई ने 2007 से दिल्ली नगर निगम पर राज कर रही भाजपा की पहाड़ सी विफलताओं पर पर्दा डाल दिया. आपने आखिरी बार कब यह देखा था कि नगर निगम चुनाव प्रधानमंत्री का चेहरा आगे करके लड़ा गया हो?
अगले एक साल या उसके बाद तक होने वाले सभी विधानसभा चुनावों में भाजपा शख्सियतों की ऐसी लड़ाई को दावत देती रहेगी. चाहे यह गुजरात का चुनाव हो या हिमाचल का या कर्नाटक का.
विपक्ष को अपने खेल का तरीका बदलना होगा, हालांकि मोदी से सीधे व्यक्तिगत तौर पर भिड़ने के उकसावे से बच पाना उनके लिए काफी कठिन होगा.
अगर मोदी उन्हें फुटबाल का मैच खेलने के लिए बुलाते हैं, तो इसकी जगह विपक्ष को मोदी को हॉकी खेलने के लिए बुलाना चाहिए.
यह मुश्किल होगा क्योंकि मोदी ऐसी जगह पर बैठे हैं, जहां से वे एजेंडा तय कर सकते हैं. लेकिन फिर भी विपक्ष को मोदी को एक ऐसे खेल में हाथ आजमाने के लिए बाध्य करने की कोशिश करनी ही होगी, जिसे खेलने के वे पूरी तरह अभ्यस्त नहीं हैं.
नीतीश कुमार एक ऐसे नेता हैं, जिन्होंने एक हद तक यह समझ लिया है. कुछ महीने पहले दिल्ली में पी. चिदंबरम की किताब के लोकार्पण के मौके पर उन्होंने यह सलाह दी थी कि विपक्ष को अपना सारा वक्त सिर्फ मोदी का जवाब देने में लगाने की जगह कम से कम 90 फीसदी वक्त अपना एजेंडा आगे बढ़ाने में खर्च करना चाहिए. सिर्फ 10 फीसदी वक्त उसे प्रतिक्रिया देने में लगाना चाहिए.
वैसे, यह कहना आसान है, करना कठिन. अगर भाजपा राम मंदिर के निर्माण का मुद्दा उठाती है, तो विपक्ष को जवाब देना होगा. वह न तो इससे बच सकता है, न मूकदर्शक बना रह सकता है. लेकिन मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर किसी समानांतर बहस को जन्म देने के लिए वह नये रचनात्मक तरीके अवश्य खोज सकता है.
गोवध के मसले पर महात्मा गांधी लगातार हिंदुत्ववादी संगठनों से बहस करते रहे. ऐसा करते हुए उन्होंने हमेशा यह दावा किया वे रूढ़िवादी वैष्णव मत के पक्के अनुयायी हैं.
गांधी की भाषा बाद के दिनों के लैटिन अमेरिकी मुक्तिकामी धर्मशास्त्रियों (लिबरेशन थियोलॉजिस्ट्स: दक्षिण अमेरिका के वे धर्मशास्त्री जिन्होंने वंचितों की मुक्ति पर जोर दिया.) जैसी थी.
भारतीय राजनीति, खासकर कट्टर हिंदुत्ववादी सत्ता के संयुक्त विपक्ष को नई भाषा और मुहावरे की दरकार है. यह लड़ाई सिर्फ विकास, आर्थिक संवृद्धि और रोजगार के सवाल पर नहीं लड़ी जा सकती.
आज जरूरत एक ऐसे राजनीतिक मुहावरे की है, जो संघ परिवार के सामने एक अप्रिय आश्चर्य की तरह आये. हिंदुत्व मार्का राष्ट्रवादियों से राजनीतिक तौर पर मुकाबला करने का यही एकमात्र रास्ता है.
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