मुज़फ़्फ़रनगर दंगों पर राजनीतिक रोटियां सबने सेंक लीं पर दंगा पीड़ितों को न्याय नहीं मिला. जो लोग तब सरकार चला रहे थे वे कहते हैं कि दंगे नहीं रोक सकते थे. तो अब सवाल यह है कि इस बार उन्हें क्यों चुना जाए?
याद-ए-आशोब (उपद्रव) का आलम तो वो आलम है कि अब,
याद मस्तों को तेरी याद भी दरकार नहीं…
भारतीय चुनावों पर, भारतीय मतदाता पर और भारतीय नेताओं पर जॉन एलिया के इस शेर से सटीक शायद ही कभी लिखा जा सके क्योंकि जितनी कम याद्दाश्त भारतीय नेता और मतदाता की पाई जाती है वो एक शोध का विषय तो अवश्य ही होना चाहिए.
ऐसा नहीं है कि ये याद्दाश्त हमेशा कमज़ोर रहे. नेताओं की याद्दाश्त तो राजनीतिक मौक़ापरस्ती की ग़ुलाम होती हैं, कभी तो इनको एक घंटे पुरानी कही बात याद नहीं रहती और कभी इनको ये भी याद रहता है कि सिकंदर ने भारत में किस स्थान पर अपना तंबू गाड़ा था और अकेले में नेहरू की माउंटबेटन से क्या बात हुई.
दिलचस्प बात ये है कि जब एक बार नेता कोई बात भूलने की सोच लेते हैं तो वे जनता की याद्दाश्त को भी ख़त्म कर देते हैं. इस सलेक्टिव याद्दाश्त का सबसे अच्छा उदाहरण इस बार के आम चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में देखने को मिल रहा है.
यहां के मुज़फ़्फ़रनगर में 2013 में हुए दंगे पिछले आम चुनाव का अहम मुद्दा थे. कई विश्लेषकों का मानना है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की 80 में से 73 लोकसभा सीट जीतने का एक मुख्य कारण मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के कारण हुआ ध्रुवीकरण था.
इस बार चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगियों के सामने एक ओर समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) का गठबंधन है और दूसरी ओर कांग्रेस है.
मुज़फ़्फ़रनगर सीट पर आरएलडी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी अजीत सिंह भाजपा के वर्तमान सांसद संजीव बालियान के सामने मैदान में हैं. इस सीट पर उनको कांग्रेस का भी समर्थन हासिल है.
यहां मज़ेदार बात ये है कि भाजपा के सामने मैदान में आई सपा, बसपा और आरएलडी का तर्क ये है कि वे भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे को हराने के लिए वे एकजुट हुए हैं.
तर्क दिया जा रहा है कि 2013 मुज़फ़्फ़रनगर दंगे भाजपा ने कराए थे इस कारण वे भाजपा के ख़िलाफ़ एकजुट हैं. तर्क तो तर्क है कोई भी दे सकता है. मेरी मां बचपन में कहती थी कि ज़बान के आगे तो ख़ाली मैदान होता है कुछ भी बोल लीजिए.
ये तो है तर्क की बात अब ज़रा तथ्यों की ओर भी रुख़ कर लिया जाए. जो लोग 2013 में समाचार पढ़ रहे थे उनको ये याद होगा कि दंगों के समय उत्तर प्रदेश में सपा की अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस थी.
ज़ाहिर है उंगलियां सरकार यानी कि अखिलेश यादव पर उठी थीं. इस पर सवाल खड़े किए गए थे कि किस प्रकार दो सप्ताह से सांप्रदायिक होते माहौल को एक बड़े दंगे का रूप लेने का मौक़ा दिया गया.
उस समय बसपा, जो अब अखिलेश यादव को सेकुलरिज़्म का रखवाला बता रही है, ने बाक़ायदा केंद्र सरकार से ये मांग की थी कि अखिलेश यादव की सरकार को दंगा भड़काने के लिए बर्ख़ास्त किया जाए.
क्या बसपा सार्वजनिक तौर पर ये मानने को तैयार है कि 2013 में वे ग़लत थे? और तब उनकी ये मांग कि अखिलेश यादव को हटाया जाए बेबुनियाद थी.
चलिए अब रुख़ करते हैं चौधरी अजीत सिंह का. दंगों के बाद ये अपनी पुश्तैनी सीट बाग़पत पर बुरी तरह हारे. बाग़पत में न केवल भाजपा जीती ये दूसरा नंबर भी न पा सके.
तो इस बार ये मुज़फ़्फ़रनगर में सेकुलरिज़्म के रथ पर सवार होकर पहुंच गए हैं. अखिलेश यादव से अब इनका गठबंधन है तो ये भी यही बता रहे हैं कि किस तरह मासूम अखिलेश की सरकार के होते हुए भाजपा ने 2013 में दंगे करा दिए थे.
ये अलग बात है कि 2013 में चौधरी साहब ऐसा बिल्कुल भी नहीं मानते थे. 2013 में उन्होंने न केवल उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन की मांग की थी बल्कि ये भी कहा था कि अखिलेश सरकार अपनी नाकामियां छुपाने के लिए 2014 के चुनाव से पहले सांप्रदायिक उन्माद भड़का रही है.
अजीत सिंह को अब ऐसा नहीं लगता. क्या उनको दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हो गई है? लेकिन वे भी एक बार माफ़ी नहीं मांगेंगे कि 2013 में उन्होंने प्रदेश की जनता को बेचारे मासूम अखिलेश यादव की सरकार के विरुद्ध भड़काया था.
वैसे यहां ये भी बताते चलें कि 2009 में अजीत सिंह भाजपा के साथ चुनाव लड़ रहे थे. तब शायद भाजपा सेकुलर रही हो पर अब नहीं है. चुनाव के बाद भी वैसे गुंजाइश रहती है कि भाजपा सेकुलर हो जाए या कांग्रेस और अखिलेश सांप्रदायिक.
2013 में मुस्लिम संगठन जमीयत-ए-उलेमा हिंद ने ये मांग की थी कि अखिलेश सरकार को हटाया जाए. उन्होंने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में ये भी कहा था कि सरकार जान-बूझकर दंगा क़ाबू में नहीं कर रही है.
दिल्ली से आई बुद्धिजीवियों की एक टीम जिसमें हर्ष मंदर, सुकुमार मुरलीधरन, सीमा मुस्तफ़ा, कमल चेनॉय, राम मोहन और जॉन दयाल शामिल थे, ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि ये दंगे भाजपा और सपा ने मिलकर कराए हैं और सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल कर सपा ने सांप्रदयिक दंगा भड़काया था.
ये अलग बात है कि आज सीमा मुस्तफ़ा ख़ुद अपने लेख में सपा को इस आरोप से बरी कर चुकी हैं. मान सकते हैं कि इन सबसे अखिलेश यादव की मासूमियत (लाचारी) समझने में ग़लती हुई होगी पर ये सब एक बार सार्वजानिक तौर पर जनता से ये माफ़ी तो मांगें कि इन सबने अखिलेश यादव जैसे सेकुलरिज़्म के मसीहा को नाहक ही बदनाम किया.
बात सिर्फ़ इतनी है कि मुज़फ़्फ़रनगर दंगों पर राजनीतिक रोटियां सबने सेंक लीं पर न दंगा पीड़ितों को कोई लाभ हुआ और न ही दोषियों को सज़ा.
हुआ केवल इतना कि दंगे के आधार पर सेकुलरिज़्म के तमगे बांट लिए गए. जो लोग तब सरकार चला रहे थे वे कहते हैं वे रोक नहीं सकते थे तो इस बार उनकी सरकार किस लिए बनाई जाए?
अपनी सरकार में तो वे दंगा रोक नहीं सकते तो क्या करेंगे हम उनकी महान सरकार का? बेहतर है वे विपक्ष में ही रह लें कम से कम हज़ारों लोगों के बेघर होने का नैतिक बोझ तो नहीं उठाना पड़ेगा.