चुनाव आयोग को पारदर्शिता के हक़ में कदम में उठाते हुए मौजूदा व्यवस्था की तुलना में बूथों के ज्यादा बड़े सैंपल के वीवीपैट सत्यापन की मांग को स्वीकारना चाहिए.
चुनाव आयोग विभिन्न मतदान केंद्रों पर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) द्वारा गिने जानेवाले मतों के वीवीपैट (वोटर वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल) सत्यापन को बढ़ाने के लिए रजामंदी देकर लोगों की नजरों में अपनी विश्वसनीयता को ही बढ़ाएगा.
फिर चुनाव आयोग द्वारा ज्यादा संख्या में वीवीपैट सत्यापन के विचार का विरोध करने की वजह क्या है, जिसकी मांग 21 विपक्षी दलों ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी याचिका में की है? फिलहाल चुनाव आयोग प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र के एक बूथ पर वीवीपैट द्वारा भौतिक सत्यापन के लिए राजी हुआ है.
इसका मतलब है कि कुल इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के 1 प्रतिशत से भी कम का वीवीपैट सत्यापन किया जाएगा. सोमवार को भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कोर्ट में मौजूद चुनाव उपायुक्त से दृढ़ता के साथ यह अनुरोध किया कि चुनाव आयोग को लोकतांत्रिक कवायद की पवित्रता और विश्वसनीयता को बढ़ाने के लिए वीवीपैट सत्यापन की संख्या को बढ़ाने पर विचार करना चाहिए.
एक बिंदु पर तो मुख्य न्यायाधीश चुनाव उपायुक्त से नाराज हो गए जो इलेक्ट्रॉनिक तरीके से डाले गए मतों के वीवीपैट सत्यापनों की संख्या को बढ़ाने की जरूरत न होने की दलील दे रहे थे.
मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने चुनाव आयोग को यह याद दिलाया कि 2013 में सुप्रीम कोर्ट के आग्रह के बाद ही वीवीपैट कागजी सत्यापन की व्यवस्था की गई. मुख्य न्यायाधीश ने चुनाव आयोग के अधिकारियों को याद दिलाते हुए कहा कि उस समय चुनाव आयोग वीवीपैट की शुरुआत करने का भी विरोध कर रहा था.
वास्तव में चुनाव आयोग द्वारा 2014 में समग्र रूप से 60 प्रतिशत से ज्यादा वोट पानेवाले राजनीतिक दलों के वीवीपैट सत्यापन की संख्या को वर्तमान स्तर से बढ़ाने के वैध आग्रहों का विरोध करना समझ से परे है.
सत्ताधारी दल द्वारा मतदान और मतगणना की प्रक्रिया को ज्यादा पारदर्शी बनाने के इस प्रस्ताव का समर्थन न करना भी समान रूप से हैरत में डालनेवाला है. विपक्ष की याचिका ने कम से कम 50 फीसदी मतदान केंद्रों में वीवीपैट सत्यापन की मांग की है.
यह बहुत बड़ी संख्या हो सकती है, लेकिन निश्चित तौर पर एक संतोषजनक फॉर्मूला निकाला जा सकता है, जिसके तहत 20-30 प्रतिशत मतदान केंद्रों को क्रमरहित सत्यापन (रैंडम वेरिफिकेशन) के लिए खोला जा सकता है.
अगर इस प्रक्रिया के कारण परिणाम आने में कोई 48 घंटे का वक्त ज्यादा लग भी जाए, तो इसमें कोई नुकसान नहीं है. इस संदर्भ में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाय कुरैशी का विचार गौर करने लायक है.
द वायर के लिए लिखते हुए उन्होंने सुझाव दिया था कि किसी क्षेत्र में दूसरे नंबर पर रहनेवाले उम्मीदवार को अपनी मर्जी से क्रमरहित वीवीपैट सत्यापन के लिए मतदान केंद्रों का चुनाव करने की इजाजत मिलनी चाहिए. क्रिकेट की तरह जहां किसी फैसले को स्लो मोशन रीप्ले सुविधा से लैस तीसरे अंपायर के पास भेजा जाता है, उसी तर्ज पर विभिन्न राज्यों में चुनाव लड़ रही हर पार्टी को एक निश्चित संख्या में वीवीपैट सत्यापन का मौका देना चाहिए.
अगर चुनाव आयोग सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के तहत नहीं बल्कि खुद अपनी तरफ से समाधान लेकर आता, तो इससे उसकी साख सचमुच में बढ़ती. जहां सवाल लोकतांत्रिक प्रक्रिया की पारदर्शिता और विश्वसनीयता को बढ़ाने का हो, वहां संवैधानिक संस्थाओं के बीच किसी तरह का अहं का टकराव नहीं होना चाहिए.
चुनाव आयोग को न्यायपालिका को उसके अधिकारक्षेत्र में हस्तक्षेप करनेवाले के तौर पर नहीं देखना चाहिए. इसके अलावा, अगर चुनाव आयोग को सांख्यिकी विशेषज्ञ यह राय देते हैं कि वीपीपैट प्रक्रिया को विश्वसनीय बनाने के लिए छोटे से छोटा सैंपल भी पर्याप्त होगा, तो यह किसी उद्देश्य को पूरा नहीं करेगा.
यहां सवाल पारदर्शिता और सत्यापन को लेकर लोगों के मन में बैठी चिंताओं का है. क्या ईवीएम में कोई कमी नहीं है या क्या इनके साथ बिल्कुल भी छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है- इस बात को लेकर अंतहीन बहस रही है. इसके पक्ष और विपक्ष में विचार प्रकट किए जाते रहे हैं.
आंकड़ों के द्वारा यह स्थापित किया जा चुका है कि 5 प्रतिशत के करीब ईवीएम में स्वाभाविक तरीके से गड़बड़ी आने की शिकायत आती है, लेकिन व्यापक नतीजों पर इसका कोई असर नहीं पड़ता. कुछ शंकालु लोगों द्वारा विदेश में निजी कंपनियों के द्वारा ईवीएम चिप्स के लिए सॉफ्टवेयर डिजाइन करने के तरीके को लेकर भी संदेह जताया गया है.
चुनाव आयोग ने ईवीएम के तकनीकी मानकों की जांच करने और सभी संदेहों का निवारण करने के लिए अपनी तरफ से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) जैसे संस्थानों के शीर्ष विशेषज्ञों का पैनल बनाया है. लेकिन दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों की ऐसी तीखी बहस भी इलेक्ट्रॉनिक मतदान प्रक्रिया को लेकर सभी शंकाओं का समाधान करने में मददगार साबित नहीं हुई है.
कई विशेषज्ञों ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि जर्मनी, नीदरलैंड, आयरलैंड और अमेरिका जैसे कई विकसित लोकतांत्रिक राष्ट्र या तो कागज के मतदान पत्रों की तरफ लौट गए हैं, या उसकी फिर से शुरुआत करने की प्रक्रिया में हैं. जबकि उनके पास सर्वोत्तम तकनीक उपलब्ध है.
एक जर्मन अदालत ने कागज के मतदान पत्रों (बैलट पेपर) के पक्ष में एक विस्तृत निर्णय दिया है, जिसका आधार बस पारदर्शिता और सत्यापन योग्यता है. यह संभवतः इसलिए हुआ क्योंकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया को इतना पवित्र माना जाता है कि मतपत्रों की हाथ से गिनती को तकनीक के ऊपर तवज्जो दी गयी, ताकि संदेह की सुई बराबर भी गुंजाइश न रहे.
भारत भी इसी तरह की एक तीखी बहस के बीच में है, लेकिन इसका कोई समाधान निकलता नजर नहीं आ रहा है. लेकिन फिलहाल चुनाव आयोग को निश्चित ही पारदर्शिता के हक में कदम में उठाना चाहिए और मौजूदा व्यवस्था की तुलना में बूथों के ज्यादा बड़े सैंपल के वीवीपैट सत्यापन की मांग को स्वीकार करना चाहिए.
जैसा कि मुख्य न्यायाधीश ने कहा, ‘कोई भी संस्था, चाहे वह कितनी ही ऊंची क्यों न हो, उसे अपने में सुधार के लिए तैयार रहना चाहिए.’ हम 2019 के लोकसभा चुनावों में इतने सारे संदेहों और अविश्वास के साथ जाना गवारा नहीं कर सकते.
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