कृषि क्षेत्र के बहुत सारे आंकड़े या तो उपलब्ध नहीं है या देरी से जारी किए गए हैं. अक्सर, यह आंकड़े, दूसरे आंकड़ों से मिलते जुलते नहीं हैं.
हाल ही में वाइब्रेंट गुजरात शिखर सम्मेलन में, रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी ने कहा, ‘नई दुनिया में डेटा (आंकड़े) एक नए तेल (ऑयल) की तरह है. आंकड़े नई संपदा (वेल्थ) है. भारतीय आंकड़ों का नियंत्रण और स्वामित्व भारतीय लोगों के पास होना चाहिए. कंपनियों, विशेष रूप से विदेशी कंपनियों के पास नहीं.’
आज के समय में डिजिटल मनी, ऑनलाइन शॉपिंग और स्मार्ट फोन का इस्तेमाल कर रहे मध्य वर्ग के आंकड़ों की भारतीय और विदेशी कंपनियों में बड़ी मांग है, लेकिन कृषि आंकड़ों की तरफ उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा, जबकि भारत की दो तिहाई आबादी को प्रभावित करने वाली कृषि नीति के लिए ये बेहद जरूरी है.
सही आंकड़ों की तीन शर्तें होती हैं. आंकड़े, बिना किसी देरी के उपलब्ध होने चाहिए, समय के अनुरूप होने चाहिए और अन्य आंकड़ों के साथ तुलना योग्य होने चाहिए.
कृषि विभाग (डीएसी) का अर्थशास्त्र और सांख्यिकी निदेशालय (डीईएस) राज्यों से एकत्र किए गए आंकड़ों को प्रकाशित करने का काम करता है. कृषि के आंकड़ों के लिहाज से ‘एग्रीकल्चर स्टैटिस्टिक्स ऐट अ ग्लैंस’ (एक नजर में कृषि सांख्यिकी) सबसे विश्वसनीय स्रोत है. 2016 से, कृषि विभाग ने ‘हॉर्टिकल्चर स्टैटिस्टिक्स ऐट अ ग्लैंस’ का प्रकाशन भी शुरू कर दिया है.
आंकड़ों के दोनों सेट ऑनलाइन उपलब्ध हैं. हालांकि, इनमें बहुत से महत्वपूर्ण आंकड़े या तो उपलब्ध नहीं हैं (जैसे जिला स्तर के आंकड़े) या इन्हें देरी से जारी किया गया है. वहीं, कई आंकड़े, दूसरे आंकड़ों के अनुरूप नहीं हैं.
इन अंतर को स्पष्ट करने के लिए हम कुछ उदाहरणों पर चर्चा करेंगे.
जब कृषि विभाग द्वारा फसल उत्पादन के अग्रिम अनुमानों की घोषणा की जाती है, तो राज्यवार अनुमान जारी नहीं किए जाते हैं. इसलिए, किसी राज्य में किसी विशेष फसल के उत्पादन के संदर्भ में सूखे या बाढ़ या रोगों से होने वाले नुकसान का आकलन करना संभव नहीं रहता.
उदाहरण के लिए, 2018-19 में सूखे की चपेट में आए बिहार, महाराष्ट्र और गुजरात में खाद्यान्न और अन्य फसलों के उत्पादन की जानकारी इस साल 28 फरवरी को जारी दूसरे अग्रिम अनुमान से पता नहीं चलता है.
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) कृषि के आंकड़ों का एक अन्य प्रमुख स्रोत है. एनएसएसओ ने साल 2003 ( 2005 में जारी) और 2012-13 ( 2014 में जारी) में कृषि परिवारों की स्थिति का आकलन एवं मूल्यांकन किया, जो किसानों की आमदनी के आंकड़ों का एक समृद्ध स्त्रोत बन गया. लेकिन इन आंकड़ों की आपस में तुलना नहीं की जा सकती. क्योंकि साल 2003 में किसान उसे माना जाता था, जो जमीन का मालिक हो, जबकि 2012-13 में जिसके पास जमीन पर काम करने का अधिकार है, उसे किसान माना जाने लगा. इन दस सालों में एनएसएसओ ने किसान की परिभाषा बदल दी.
2012-13 के सर्वेक्षण में, एनएसएसओ ने 3000 रुपए सालाना कृषि उपज करने वाले परिवार को कृषि परिवार माना था.
राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) ने अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेशन सर्वेक्षण 2016-17 में एक कृषि परिवार उसे माना, जो कृषि उपज से 5000 रुपए सालाना से अधिक कमाता हो. इसमें खेती सहित कृषि, बागवानी, चारा, वृक्षारोपण, फसलों या संबद्ध गतिविधियों जैसे पशुपालन, मुर्गी पालन, मत्स्य पालन, मधुमक्खी पालन आदि से हो रही आमदनी को शामिल किया गया. ऐसे में नाबार्ड और एनएसएसओ के आंकड़ों की आपस में तुलना नहीं की जा सकती.
कृषि वस्तुओं की कीमतों की जानकारी के लिए डीएसी का एगमार्कनेट पोर्टल एक अत्यंत समृद्ध स्त्रोत है. यह पोर्टल भारत भर की मंडियों की कीमतों को दिखाता है, लेकिन पोर्टल में कई विसंगतियां हैं, जिनके समाधान की आवश्यकता है.
उदाहरण के लिए, 5 मार्च 2019 को पोर्टल पर सर्च किया गया कि कर्नाटक में सितंबर 2018 में प्याज की कीमत क्या थी तो पोर्टल ने सितंबर और अगस्त 2018 की कीमतों को दिखाया और जब अक्टूबर 2018 की कीमतों के बारे में सर्च किया गया तो अक्टूबर और सितंबर 2018 की कीमतों को दिखाया. दोनों सर्चों में सितंबर के आंकड़े शामिल थे, लेकिन अक्टूबर के सर्च में जो आंकड़े दिखाए गए, उनमें प्याज का औसत थोक मूल्य 977.49 रुपये प्रति क्विंटल था, जबकि सितंबर के सर्च में यह कीमत 869.42 रुपये थी.
2017-18 में, बागवानी फसलों का उत्पादन 3.06 लाख टन था, जबकि खाद्यान्न उत्पादन 2.84 लाख टन था. डीईएस पोर्टल पर जिला वार बागवानी फसलों के उत्पादन के आंकड़े ‘हॉर्टिकल्चरल स्टैटिस्टिक्स ऐट ए ग्लैंस’ के आंकड़ों से मेल नहीं खाते. उदाहरण के लिए, डीईएस पोर्टल पर 2015-16 में प्याज के उत्पादन के आंकड़े नहीं मौजूद हैं, यहां तक कि प्रमुख उत्पादक राज्यों जैसे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के आंकड़े भी उपलब्ध नहीं हैं.
अब चूंकि बागवानी के आंकड़े डीएसी के बागवानी सांख्यिकी प्रभाग द्वारा प्रकाशित किए जाते हैं, इसलिए डीईएस को इसकी नकल करने की कोई आवश्यकता नहीं है.
2009 से 2014 तक पोल्ट्री (मुर्गी पालन) उत्पादन में लगभग 8% प्रति वर्ष की वृद्धि हुई. पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन विभाग हर साल ‘बुनियादी पशुपालन और मत्स्य पालन सांख्यिकी’ प्रकाशित करता है. पोल्ट्री उत्पादन के जिला-स्तरीय आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं और यहां तक कि 2014-15 के राज्यवार पोल्ट्री उत्पादन के आंकड़े भी उपलब्ध नहीं हैं.
योजना आयोग विभिन्न क्षेत्रों के आंकड़ों का एक महत्वपूर्ण स्रोत था. 2015 में इसके भंग होने के बाद से, यह स्रोत काफी हद तक खत्म हो चुका है. उदाहरण के लिए, कृषि क्षेत्र के लिए देश में बिजली की औसत दरें और बिजली सब्सिडी की स्थिति क्या है, ये आंकड़े 2012-13 तक ही उपलब्ध हैं. कृषि क्षेत्र को वास्तव में कितनी सब्सिडी दी जा रही है, यह जानकारी उपलब्ध नहीं है.
पशुपालन विभाग महत्वपूर्ण आंकड़ों का एक अन्य स्रोत है. भारत में दूध का उत्पादन 2014-15 में 1.46 लाख टन से बढ़कर 2017-18 में 1.76 लाख टन हो गया है. हालांकि, दूध के जिलेवार उत्पादन के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं. इसी तरह, दूध उत्पादकों, यहां तक कि सहकारी समितियों द्वारा वसूली जा रही दूध की कीमतों के आंकड़े भी उपलब्ध नहीं हैं.
कर्जमाफी के जिलेवार आंकड़ों से अनुपजाऊ जिलों में छोटे और सीमांत किसानों को फायदे का असर देखा जा सकता है. इससे यह भी पता चल सकता है कि बारिश से सिंचित होने वाले इलाकों में किसानों को फायदा हुआ है या नहीं. इसी तरह, पीएम किसान और प्रधानमंत्री फासल बीमा योजना के विस्तृत आंकड़ों से इन योजनाओं का विश्लेषण करने में मदद मिल सकती है, जिन पर सरकार 2019-20 में क्रमशः 75,000 करोड़ रुपये और 28,000 करोड़ रुपए खर्च करने वाली है.
किसी भी क्षेत्र की मजबूत व दीर्घकालिक नीति बनाने के लिए आंकड़ों में दिख रहे पिछले रूझानों का अध्ययन करना बेहद महत्वपूर्ण होता है. सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम की धारा 4 में यह प्रावधान है कि प्रत्येक सार्वजनिक प्राधिकरण अपने सभी रिकॉर्डों को विधिवत सूचीबद्ध और अनुक्रमणित करके रखेगा, जिससे अधिनियम के तहत सूचना के अधिकार को सुगम बनाया जा सके. यह भी अनिवार्य है कि आंकड़ों के कम्प्यूटरीकरण को उचित समय के भीतर पूरा किया जाए. लेकिन कृषि आंकड़ों के मामले में इस आदेश की अनदेखी की गई है.
ऐसे में केंद्रीय सूचना आयोग से यह उम्मीद की जा सकती है कि वह केंद्र और राज्य सरकारों को कृषि पर विस्तृत आंकड़ों को बनाए रखने और जारी करने के निर्देश दे, ताकि राजनीतिक दलों द्वारा किए गए वादों की बजाय वास्तविक आंकड़ों के आधाार पर नीतियां बनाई जाएं.
(सिराज हुसैन पूर्व केंद्रीय कृषि सचिव हैं. वह अब आईसीआरआईईआर के सीनियर फेलो हैं.)
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