आदिवासी अपनी आस्था, अपने विश्वास, अपने धर्म का बाज़ार कभी नहीं चलाते. संगठित धर्मों और आदिवासियों की आस्था के बीच यह बड़ा फर्क है.
दुनिया भर में मुख्यधारा या व्यवस्थित धर्म के अनुयायियों का आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था पर दबदबा है. इस व्यवस्था में वे उन्हें प्राथमिकता देते हैं, जो उनका धर्म अपना लेते हैं. जैसे, उनके शिक्षण संस्थानों में उनका धर्म मानने वालों को प्रमुखता मिलती है. उनकी इस बाजारवादी व्यवस्था में, जिसमें नौकरियों का आधार किताबी ज्ञान है, प्रकृतिपूजक आदिवासियों का लगातार पिछड़ते जाना और अपने प्राकृतिक संसाधनों को गंवाना भी तय है.
इस स्थिति में मुख्यधारा के किसी धर्म को अपनाने वाले आदिवासी आर्थिक रूप से ज्यादा समृद्ध दिखने लगते हैं और इसका असर प्रकृतिपूजक आदिवासी समाज पर होने लगता है.
हम मानते हैं कि व्यवस्थित धर्मों की शुरुआत का श्रेय आर्यों को है. और उनकी व्यवस्था में आदिवासियों के अलिखित ज्ञान, पुरखों का विस्डम और प्रकृति की शक्तियों को समझने की हमारी ताकत पूरी तरह ख़त्म कर दी जाती है.
आदिवासी बच्चों को अपनी मातृभाषाओं से दूर कर देने के कारण वे गांव-घर के बुजुर्गों के देशज ज्ञान की बातें समझ नहीं पाते. एक साजिश के तहत आदिवासियों की भावी पीढ़ियों को उनकी संस्कृति, उनकी परंपरा, उनके पीछे छिपे दार्शनिक पहलुओं को समझने से वंचित कर दिया गया है.
छत्तीसगढ़ में गोंड आदिवासी समाज की ‘कोया बुमकाल क्रांति सेना’ से जुड़े युवाओं का यह कहना है. इससे जुड़े युवा विगत 15 सालों से यहां आदिवासियों के बीच अपनी संस्कृति, परंपरा, भाषा को मजबूत करने और लोगों को एकजुट करने का काम कर रहे हैं.
खुद को कोयतुर क्यों कहते हैं आदिवासी?
इस संगठन से जुड़े ललित ओड़ी कहते हैं, आदिवासियों की अपनी एक नार (ग्राम) व्यवस्था है जिसे समझे बिना जल, जंगल, ज़मीन की लड़ाई संभव नहीं है. आदिवासी न हिंदू हैं, न ईसाई, न कुछ और. हिंदू समाज ने आदिवासी समाज से कई चीजें ली हैं और उन्हें अपने तरीके से लिखित रूप में स्थापित किया है. मगर ये बातें आदिवासी मान्यताओं के अनुरूप नहीं हैं. कई भिन्नताएं हैं जिन्हें समझना जरूरी है.’
वे आगे बताते हैं, ‘मसलन हिंदू धर्म की वर्ण व्यवस्था में यह मान्यता है कि इंसान मुख, भुजा, जंघा और पैर से पैदा होते हैं. इसके आधार पर किसी को श्रेष्ठ, तो किसी को निम्न घोषित किया जाता है. लोगों को जातियों में बांटा गया है. पर हम आदिवासी समुदाय खुद को कोयतुर कहते हैं. कोयतुर, कोया शब्द से बना है, जिसका अर्थ ‘मां का गर्भ’ है. अर्थात वे मां के गर्भ से पैदा होने वाले कोयतुर अर्थात मानव हैं. हममें सब बराबर हैं. हमारी कोई जाति नहीं. हम समुदायों में जीने वाले लोग हैं.’
उन्होंने यह भी बताया, ‘दूसरे राज्यों के आदिवासी मसलन झारखंड, ओडिशा क्षेत्रों में संताली, हो, मुंडा, खड़िया, कुडूख़ आदि आदिवासी समुदाय भी खुद को मानव ही कहता है. जैसे संताल खुद हो होड़ होपोन कहते हैं. हो, मुंडा, कुडुख़ भी क्रमशः हो, होड़, कुडुख़र आदि कहते हैं. होड़ का अर्थ मनुष्य है.’
दूसरी भिन्नता यह है कि हिंदू व्यवस्था में लोग लिखित बातों का अनुकरण करते हैं. शास्त्रों में जो लिखा उसे जीवनशैली का आधार मानते हैं, पर आदिवासी समाज किसी लिखित व्यवस्था पर नहीं चलता. वे प्रकृति की शक्तियों को मानते हैं.
ऐसी हर शक्ति को पुरखों ने एक नाम दिया है. हजारों सालों से पीढ़ी दर पीढ़ी यह विश्वास अलिखित रूप में लोगों को हस्तांतरित की गई हैं. उनकी आस्था मौखिक आधार पर चलती है.
आदिवासी किसी शास्त्र के आधार पर पूजा-पाठ नहीं करते. वे पुरखों की आत्माओं से संपर्क साधते हैं और प्राकृतिक संकेतों को महत्व देते हैं. प्रकृति की पूजा करने वाले दूसरे राज्यों के आदिवासियों की आस्था भी कमोबेश एक जैसी है.
आदिवासी अपनी आस्था, अपने विश्वास, अपने धर्म का बाजार कभी नहीं चलाते. संगठित धर्मों और आदिवासियों की आस्था के बीच यह बड़ा फर्क है.
क्या है गोंड आदिवासियों की नार व्यवस्था?
वे बताते हैं, ‘गोंड आदिवासी समाज में एक मजबूत नार व्यवस्था है. हम मानते हैं कि किसी गांव की सीमा के अंदर जितने भी पहाड़, नदी, तालाब, झरने, जीवित पानी के जल स्रोत, खेत आदि होते हैं, वे सब प्राकृतिक शक्तियों द्वारा संचालित हैं. पूरे नार या ग्राम को स्त्री व पुरुष शक्तियों द्वारा एक साथ संचालित माना जाता है. इनमें सात स्त्री शक्ति व 10 पुरुष शक्ति शामिल हैं. पुरुष शक्तियों में राजा राव, छंद राव, डांड राव, पाट राव, घाट राव, कापड़ राव, कपो राव, कोड़ा राव, किस राव व बैहर राव कहा जाता है.
उन्होंने बताया, ‘राव का अर्थ शक्तियां हैं. सात स्त्री शक्तियों में घाट कन्या, बहैर कन्या, सुलकी कन्या, जलकी कन्या, येरे (बही) कन्या, मुरयेर कन्या व तोंदे कन्या हैं. पांच शक्तियां मां मानी जाती हैं. इनमें आना दुम्मा यायो, तलुर मुत्ते यायो, मालवी यायो, कोड़ोन यायो( चिकला या गंगना यायो) व जीमिदारिन यायो शामिल हैं. पांच पेन हैं, जिनमें कर्रे पेन, भीमाल पेन, कटरेंगा पेन, भुकुर्रा पेन, भूमयार पेन के रूप में जानते हैं. इन सारी शक्तियों के लिए गांव में अलग-अलग जगह हैं. लोग समय-समय पर उन स्थलों पर जाकर उनकी पूजा करते हैं.’
वे आगे कहते हैं, ‘नार व्यवस्था के भीतर हरेक चीज एक दूसरे से जुड़ी है. किसी एक का भी नुकसान हो तो सभी प्रभावित होते हैं. मसलन पहाड़ के समाप्त होने से बारिश की शक्ति प्रभावित होती है. नदी के समाप्त होने से लोगों की जीवन शैली प्रभावित होती है.’
वे कहते हैं, ‘आदिवासी समाज रावण दहन नहीं करता क्योंकि हमारी भाषा में ‘राव’ का अर्थ ‘शक्तियां’ और ‘वेन’ का अर्थ ‘जीवित’ होता है. रावण का अर्थ ‘जीवित शक्तियां’ हैं और उसके 10 सिर वस्तुत: नार व्यवस्था की 10 शक्तियां हैं, जिसे आर्यों द्वारा समाप्त किया गया और आज आदिवासी समाज अपने इन्हीं प्राकृतिक शक्तियों के कमजोर होने के कारण बिखरे और टूटे हुए हैं. आर्य आज प्रकृति की उन जीवित शक्तियों को जो जल, जंगल, ज़मीन, नदी, पहाड़ों की रक्षा करती थी, उन्हें जलाने का जश्न मनाते हैं. मगर हमारे लिए यह शोक का विषय है क्योंकि रावण दहन का अर्थ जीवित शक्तियों का जलना है, जिससे पूरी प्रकृति का संतुलन गड़बड़ा गया है.’
क्या है आदिवासियों की पेन व्यवस्था?
ऐसे समय में जब हर जगह आदिवासियों की परंपराओं व आस्था पर मुख्यधारा के संगठित धर्मों का चौतरफा हमला जारी है, छत्तीसगढ़ में गोंड आदिवासी अलग-अलग इलाकों में पेन करसाड़ मना रहे हैं.
उनकी आस्था के अनुसार पेन, पूर्वजों की आत्माओं का समूह है, जिसमें एक गोत्र के सभी वंशज अपनी-अपनी मृत्यु के बाद जा मिलते हैं. आदिवासियों में स्वर्ग और नर्क की अवधारणा नहीं है. आदिवासी समाज के जिस पहले व्यक्ति से अलग-अलग गोत्र की शुरुआत हुई, उसके वंशज जहां भी हैं, वे एक जगह एकत्र होते हैं और पेन करसाड़ मनाते हैं.
अलग-अलग गोत्र के वंशजों का कारसाड़ अलग-अलग समय में हो सकता है. कुछ समुदाय इसे साल में एक बार मनाते हैं, वहीं कुछ चार साल में एक बार. इसकी तैयारी महीनों चलती है. पेन करसाड़ में एक गोत्र के लोग लकड़ी के बने अपने पुरखे के रूप को अर्थात अपने पेन को लेकर पहुंचते हैं.
लकड़ी से बना यह पेन या पुरखों का रूप हर साल नहीं बनाया जाता. कुछ पेन हजारों साल पहले के लोगों द्वारा बनाया गया था जो आज भी मौजूद हैं और उसकी लकड़ी वैसी की वैसी है. हर सात या 12 साल में सिर्फ सियाड़ी की रस्सी और बांस से गूंथा उसका वस्त्र ही बदला जाता है.
लोग मानते हैं कि पेन खुद अपने वंशज में से किसी व्यक्ति को चुनता है. उसकी शक्ति से ही व्यक्ति उस पेड़ का भी चयन करता है जिससे पेन का रूप तैयार किया जाता है. लोग कहते हैं कि पेन अपने लिए पेड़ खुद चुनता है.
फिर उस पेड़ की लकड़ी को एक विशेष आकार दिया जाता है. इसका ध्यान रखा जाता है कि इस पूरी प्रक्रिया में पसीने का एक बूंद भी लकड़ी पर न गिरे. फिर उस आकृति को सजाने के लिए सियाड़ी की रस्सी और बांस को ख़ास तरीके से गूंथा जाता है.
गूंथने का काम हाथ पीछे रखकर आकृति को बिना देखे किया जाता है. उस पर मोर के पंख सजाए जाते हैं. पेन तैयार करना एक श्रमसाध्य कार्य है और यह कई महीनों तक चलता है.
पेन की लकड़ी की यह आकृति काफ़ी भारी होती है. सामान्य आदमी के लिए इसे ढोकर कुछ दूर चलना भी मुश्किल है पर लोगों का विश्वास है कि पुरखों की आत्मा लकड़ी से तैयार पेन में, जिसे वे “आंगा” कहते हैं, रहती है इसलिए चयनित व्यक्ति उसे ढोकर 50 किलोमीटर और कभी-कभी दो, तीन दिन की यात्रा भी सहजता से पैदल तय करता है.
चारों तरफ से वंशज पेन कारसाड़ मानने के लिए निर्धारित जगह पर पहुंचते हैं और पेन को कंधे पर ढोकर घंटों नृत्य करते हैं. दूर-दूर से गांव के लोग जुटते हैं और उनके साथ नृत्य करते हैं. वंशजों का नृत्य अलग धुन पर होता है, वहीं दूसरे गावों से आए लोग अलग धुन पर नृत्य करते हैं. यह सिलसिला देर शाम तक चलता है.
ललित ओड़ी बताते हैं कि उन्होंने कुछ साथियों के साथ मिलकर नार (ग्राम) व्यवस्था और इस व्यवस्था के भीतर पेन व्यवस्था की जानकारी नई पीढ़ी को देना शुरू किया है. अपनी आस्था और परंपरा को ठीक से नहीं समझने के कारण ही आज आदिवासी दूसरे धर्मों का सामना नहीं कर पा रहे और उनसे प्रभावित हो रहे हैं.
प्राकृतिक शक्तियां निभाती हैं अपनी जिम्मेदारियां
गोंड समाज के नितिन झाड़ी कहते हैं, ‘प्रकृति की शक्तियों की अपनी-अपनी जिम्मेदारियां हैं. मसलन पहाड़ पर कप्पे राव शक्ति है, जो एक चिड़िया के रूप में है और कप-कप की आवाज निकलाती है. उसकी आवाज से पुरखे पहाड़ों पर आने वाले संकट के संकेतों को समझते थे. इस आवाज से पुरखे समझ जाते थे कि वे कब शांति से सो सकते हैं और उन्हें कब खतरे के प्रति जागृत होना है. यह आवाज उन्हें चैन से सोने का संदेश भी देती है.
नितिन इनके बारे में विस्तार से समझाते हैं, ‘जलकी कन्या बारिश की शक्ति मानी जाती है. भीमाल राव जलकी कन्या से बारिश की मांग करता है. यह पूरे नार या ग्राम को संभालने, उसकी चिंता करने वाली शक्ति है. गांव की सीमा की रक्षा के लिए राजा राव, छंद राव और डांड राव शक्तियां हैं. इनमें राजा राव सबसे बड़ी शक्ति है. कोड़ोंन यायो शक्ति को खेती की पहली उपज चढ़ायी जाती है. नियम के अनुसार पेड़ का पहला फल उन्हें दिया जाये और फल को पकने के बाद ही खाया जाए, ताकि उसके बीज नई फसलों, फलों के लिए धरती को मिल सकें. कापड़ राव शक्ति लोगों को नमक की जानकारी देती है. जहां भी गाय मिट्टी चाटती है वहां नमक होने की संभावना होती है. ऐसी जगहों पर लोग खुदाई कर नमक प्राप्त करते थे. इसलिए गांव में गायों का होना ज़रूरी माना जाता है.’
वे आगे बताते हैं, ‘तोंदे कन्या जीवित जलस्रोत की शक्ति है जो पहाड़ों पर जीवित जलस्रोत ढूंढने में मदद करती है. इस तरह गांव की सीमा के भीतर कई शक्तियां हैं जो प्राकृतिक चीजों को लोगों के लिए बचाती हैं और उनके उपयोग में लोगों का मार्गदर्शन करती हैं. गांव के भीतर घोटुल या गोटूल पूरे ग्राम व्यवस्था को समझाने, नई पीढ़ी को शिक्षित करने का केंद्र था जो तथाकथित मुुुख्यधारा के दुष्प्रचार के कारण हाशिए पर चला गया है, पर इसके बावजूद कुुछ घोटूल आज भी बचे हुए हैं.’
बीज से मनुष्यों के संबंध की शुरुआत
राम कुंजाम कहते हैं, ‘गांव के भीतर गोरलाम होता है. यह वह स्थान है जहां बाड़े में गाय-बैल रखे जाते हैं. साथ ही एक बाड़ी भी होती है जहां साग-सब्जियां उगाई जाती हैं. इस बाड़ी को ‘गुडा’ भी कहते हैं. लोग मानते हैं कि इसी बाड़ी से रिश्ते-नाते बनते हैं. अपनी बाड़ी से यदि किसी ने किसी फल का बीज दूसरे व्यक्ति को दिया तो आने वाले फल पर उसका भी हिस्सा रहता है. इसलिए वह दूसरे की बाड़ी से भी फल ले जा सकता है. ठीक इसी तरह किसी परिवार की बेटी मांगने का पहला अधिकार उस परिवार को अपनी बेटी देने वाले परिवार का होता है. इसे ‘गुडा-बाटा-बिज्जा’ का रिश्ता कहा जाता है.’
गोत्र से जुड़े जीव की रक्षा का दायित्व
हेमलाल कुंजाम कहते हैं, ‘मनुष्यों की संख्या बढ़ने और प्रकृति पर उनका बोझ बढ़ने पर भी प्रकृति का संतुलन बना रहे, इसलिए हर गोत्र के समुदाय को तीन जिम्मेदारियां दी जाती है. उसे एक जानवर, पक्षी और पेड़ जिसकी रक्षा करनी होती है. वह अपने गोत्र से जुड़े जीव की हत्या नहीं कर सकता, न उसका भक्षण कर सकता है. इस तरह हर गोत्र एक जीव, पेड़ और पक्षी की रक्षा करता है, ताकि प्रकृति का संतुलन बना रहे. इसलिए आदिवासी समुदाय में जीव, पेड़, पक्षी से संबधित गोत्र ही होते हैं. अलग-अलग आदिवासी समुदाय के गोत्र अपनी-अपनी भाषा के अनुसार हैं, लेकिन उसका अर्थ कमोबेश एक है.’
जड़ों की ओर लौटने का आह्वान
छत्तीसगढ़ में कोया बुमकाल क्रांति सेना से जुड़े स्वतंत्र लेखक मंगल कुंजाम कहते हैं, ‘खुद की व्यवस्था और प्राकृतिक शक्तियों को ठीक से नहीं जानने, उन्हें महसूस नहीं करने, अपनी भाषाएं भूल जाने के कारण लोग अपना विस्डम खो रहे हैं. इसलिए लोग आदिवासियों को ईसाई बनाने या मनुवादी व्यवस्था में ले जाने वालों से तार्किक तरीके से लड़ नहीं पाते. जब आदिवासी अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे और प्रकृति से मिलने वाला विस्डम फिर से हासिल कर लेंगे, तब वे मजबूती से भिड़ सकेंगे.’
उनका कहना है, ‘इसलिए आज प्रकृति पर अपनी आस्था को मजबूती से स्थापित करने की जरूरत है और इसके लिए नार व्यवस्था को समझना जरूरी है. इस व्यवस्था को समझे बिना आदिवासियों के जल, जंगल, ज़मीन के संघर्ष को ठीक से नहीं समझा जा सकता. उनकी आस्था, उनकी प्राकृतिक शक्तियां प्रकृति के बचे रहने से ही बची रह सकती है. आज आदिवासियों के बीच नए तरीके की शिक्षा व्यवस्था चाहिए, जिसमें अपनी मातृभाषा हो और जिसमें आदिवासियों के अलिखित देशज ज्ञान बताया जाये. आज नए सिरे से आदिवासियों के पुराने शिक्षण केंद्र घोटुल या उसुड़ कर्साना जैसी संस्थाओं को स्थापित करने की जरूरत है.’
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं.)