भाजपा के संकल्प पत्र में आदिवासियों की अनदेखी

अपने संकल्प पत्र में भारतीय जनता पार्टी ने आदिवासियों और परंपरागत वन निवासियों को लेकर जिस कदर बेरुखी दिखाई है उससे यह साबित हो रहा है कि पार्टी को देश के इन नागरिकों की कोई चिंता नहीं है.

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Indian Prime Minister Narendra Modi (C), chief of India's ruling Bharatiya Janata Party (BJP) Amit Shah (2-R), India's Home Minister Rajnath Singh (2-L) India's Foreign Minister Sushma Swaraj (L) and India's Finance Minister Arun Jaitley display copies of their party's election manifesto for the April/May general election, in New Delhi, India, April 8, 2019. REUTERS/Adnan Abidi

अपने संकल्प पत्र में भारतीय जनता पार्टी ने आदिवासियों और परंपरागत वन निवासियों को लेकर जिस कदर बेरुखी दिखाई है उससे यह साबित हो रहा है कि पार्टी को देश के इन नागरिकों की कोई चिंता नहीं है.

Indian Prime Minister Narendra Modi (C), chief of India's ruling Bharatiya Janata Party (BJP) Amit Shah (2-R), India's Home Minister Rajnath Singh (2-L) India's Foreign Minister Sushma Swaraj (L) and India's Finance Minister Arun Jaitley display copies of their party's election manifesto for the April/May general election, in New Delhi, India, April 8, 2019. REUTERS/Adnan Abidi
भारतीय जनता पार्टी का संकल्प पत्र जारी करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और अन्य केंद्रीय मंत्री (फोटो: पीटीआई)

अपने संकल्प पत्र में भारतीय जनता पार्टी ने आदिवासियों और परंपरागत वन निवासियों को लेकर जिस कदर बेरुखी दिखाई है उससे यह साबित हो रहा है कि इस पार्टी को लोकसभा की कम से कम 133 सीटों को लेकर कोई चिंता नहीं है.

इसका आशय यह भी है कि इस पार्टी के लिए कॉरपोरेट के हित ही पहला और अंतिम साध्य है. शायद यही बड़ी वजह भी है कि तमाम खनन कंपनियों, मेगा प्रोजेक्ट्स लेकर आ रहे कॉरपोरेट ने इन्हें अभयदान दे दिया है.

बीते पांच सालों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जिस तरह से भाजपा/राजग सरकार ने आदिवासियों व परंपरागत वन निवासियों के हक़-हुकूकों को निरंकुश ढंग से कमजोर किया है और उन्हें अपराधी करार दिए जाने के ऐतिहासिक अन्याय को दोहराने की ठोस आधारशिला रखी है.

वैसे भी आदिवासी या जंगल में सदियों से रहते आ रहे तमाम गैर आदिवासी समुदाय इनके राष्ट्रवाद की परियोजना में हिस्सेदार नहीं रहे बल्कि उनका इस्तेमाल करके किसी तरह लंका तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करने के साधन मात्र रहे हैं. अगर वाकई राम इनके आदर्श हैं तो राम कथा से तो यही सीख मिलती है.

भाजपा के जारी किए गए संकल्प पत्र की विवेचना अगर ‘आदिवासी’, ‘अनुसूचित जनजाति’, ‘वन अधिकार’, ‘पेसा’ और ‘ग्राम पंचायत’ जैसे पदों को लेकर करें तो इनके ‘सबका साथ सबका विकास’ के ढपोलशंखी नारे की कलई खुलती है. इस संकल्प पत्र में आदिवासी शब्द का ज़िक्र कुल 9 बार आया है.

पहली बार इस शब्द का ज़िक्र माओवादी हिंसा के संदर्भ में आया है जिसे ये ‘कोंबेट लेफ्ट एक्सट्रीमिज़्म’ कह रहे हैं. इसके बाद इस शब्द का उपयोग ‘जैविक खेती’ को बढ़ावा देने के संबंध में फिर यह वन व पर्यावरण वाले भाग में आया है, जिसमें वन अधिकार का ज़िक्र नहीं है.

फिर खेलों में आदिवासी युवाओं को तरजीह देने की बात की गई है. पांचवां हिस्सा थोड़ा बड़ा है, जहां आदिवासी शब्द का इस्तेमाल तीन बार किया किया है और ये हिस्सा ‘सबका साथ सबका विकास’ को और पुख्ता करने के संबंध में है.

इसमें आदिवासी समुदायों के दूरस्थ गांवों तक सड़क, बिजली, उज्ज्वला आदि पहुंचाने की बात है. इसी हिस्से में ‘वन धन विकास केंद्र’ स्थापित करके इन समुदायों की आजीविका बढ़ाने पर थोड़ी बात है.

छठवां हिस्सा इस संकल्प पत्र में समावेशी विकास को लेकर है जहां आदिवासी शब्द आया है और जिसके तहत कुछ म्यूज़ियम बनाने की बात की गई है.

आदिवासियों, जंगल, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन को लेकर काम कर रहे देश के तमाम हल्कों में भाजपा के संकल्प पत्र से कम से कम यह उम्मीद नहीं थी कि देश की दस फीसदी आबादी के साथ यह प्रमुख राजनीतिक दल इस तरह की बेरुखी दिखाएगा.

यह अकस्मात तो हालांकि नहीं है, न ही अप्रत्याशित क्योंकि पिछले पांच साल में भाजपा नीत सरकार ने वन अधिकार कानून, पेसा और पंचायती राज की विकेंद्रीकृत व्यवस्था को गंभीर चोटें पहुंचाकर अपनी मंशा का बार-बार इज़हार कर दिया था.

इसी तरह अगर हम ‘पेसा’ आदिवासी स्वशासन, पंचायती राज को इस संकल्प पत्र में तलाश करें तो पाएंगे कि इसमें पेसा शब्द का ज़िक्र एक भी बार नहीं है. ठीक इसी तरह आदिवासी स्वशासन का ज़िक्र भी सिरे से गायब है.

पंचायती राज शब्द का इस्तेमाल अलबत्ता एक बार आया है जो ‘डिजिटल कनेक्टिविटी’ की परियोजना के संबंध में हैं. उन्हें सशक्त बनाने या संविधान के अनुसार उन्हें अधिकार देकर सत्ता संपन्न बनाने की दिशा में इस इकाई को कोई तवज्जो नहीं दी गई है.

हालांकि इस मामले में भाजपा की सराहना की जानी चाहिए कि कम से कम यहां उसकी कथनी और करनी के बीच फर्क नहीं है. वो जिस तरह से बड़े पूंजीपतियों, खनन व्यावसायियों की सेवा में तल्लीन है उससे आदिवासी और अन्य परंपरागत समुदायों को इसी तरह हाशिये पर धकेला जाना तय था.

हाल ही में 13 फरवरी को आए सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश ने आदिवासी बाहुल्य या जंगली क्षेत्रों में निवास करने वाली लगभग 10 फीसदी आबादी के मन में बेदखली का खौफ भर दिया है, उससे भाजपा की ज़मीन इन क्षेत्रों में खिसकती दिखाई दे रही है.

इतना ही नहीं भारतीय वन कानून 1927 में संशोधन का जो मसौदा लेकर यह सरकार आई है वह आदिवासियों को 2005 के पहले से भी बदतर स्थिति में पहुंचा देगा.

इन दोनों कार्यवाहियों से पहले ‘प्रतिपूरक वनीकरण प्रबंधन प्राधिकरण कानून (केम्पा) लेकर आई और संसद के अंदर झूठ बोलकर इसे लागू किया गया वह आदिवासी समुदायों को प्रदत्त तमाम संवैधानिक अधिकारों का खुला हनन था और है.

क्या भाजपा को इसकी कीमत चुकाना होगी?

वोटों का गणित तो इस तरफ साफ संकेत करता है कि इस बेरुखी का नुकसान भाजपा को ज़रूर होगा. यह गणित बहुत आसान-सा है. इस देश में लगभग 40 मिलियन यानी लगभग 4 करोड़ हेक्टेयर का जंगल क्षेत्र है जिस पर वन अधिकार मान्यता कानून 2006 के अनुसार इन क्षेत्रों में निवासरत समुदायों का अधिकार होना चाहिए.

यानी देश के पूरे वन क्षेत्र का लगभग आधा भाग ऐसा है जिस पर अंग्रेजों के समय से 2005 तक आदिवासियों व अन्य परंपरागत गैर आदिवासी समुदायों के हक़ अधिकारों को नकारा गया.

2006 में देश की संसद ने वन अधिकार मान्यता कानून पारित करते हुए इस बात का उल्लेख किया कि इन समुदायों के साथ ऐतिहासिक रूप से अन्याय हुआ है और इस कानून के माध्यम से इसे दुरुस्त किया जाएगा.

देश के एक चौथाई गांव जिनकी संख्या 1,70,000 है वो इस कानून के तहत सामुदायिक अधिकार पाने के हकदार हैं. इसके अलावा यह स्व-शासन और विकेंद्रीकृत व्यवस्था की दिशा में उठाया गया एक ऐतिहासिक कदम था जिसके रास्ते चलकर न केवल परंपरागत स्थानीय ज्ञान व्यवस्था को मान्यता व उसका पोषण होना था बल्कि टिकाऊ विकास के लिए सामुदायिक अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन होना था.

इसके अलावा पर्यावरण, वन्य जीव संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के लिए अद्यतन विज्ञान सम्मत सिफ़ारिशों को भी कार्यान्वित होना था.

आंकड़ों के महत्व समझने वाले चुनावी विश्लेषकों का मानना है कि देश की 133 लोकसभा सीटों पर ये तीन-चार शब्द निर्णायक प्रभाव डाल सकते हैं. कुल 50 सीटें ऐसी हैं जो अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं.

इनमें से अगर उत्तर पूर्व व अंडमान निकोबार को छोड़ दें तो मैदानी इलाकों में 36 सीटों में से 2014 के आम चुनाव में भाजपा को 25 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. पूरे भारत में भाजपा ने जंगली इलाकों व आदिवासी बाहुल्य इलाकों में कुल 79 सीटें जीतीं थीं. इसके अलावा बीजेडी ने 17, शिवसेना ने 6 और 9 सीटें अन्य क्षेत्रीय दलों ने अपनी झोली में ली थीं.

2014 के आम चुनाव में कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाने वाला समुदाय उससे छिटक गया था. शायद इसे मोदी लहर का असर माना जा सकता है और इसका श्रेय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उन इकाइयों को भी जाता है जो पिछले कई सालों से इन क्षेत्रों में समाज सुधार के नाम पर आदिवासियों व अन्य समुदायों के हिंदूकरण का अभियान चला रहे थे.

2019 में यह सूरत बदलती नज़र आ रही है. इसके दो प्रमुख कारण हैं. पहला, भाजपा ने अपने पांच सालों के कार्यकाल में यह साबित किया है वह पूंजीपतियों के लिए देश के जंगल, वन्य जीव, पर्यावरण सभी की बलि चढ़ाने जा रही है.

वन अधिकार कानून की धज्जियां जिस तरह से उड़ाई गईं और जिन मंसूबों के साथ भारतीय वन कानून 1927 में संशोधन का मसौदा तैयार किया है उससे यह स्पष्ट संदेह इन इलाकों में गया है कि उन समुदायों का अपराधीकरण किया जाना तय है.

बेदखली का आसन्न संकट आदिवासी व अन्य समुदायों को इस सरकार को बदलने की दिशा में एक निर्णायक भूमिका निभाएगा. संक्षेप में कहें तो आदिवासियों के तमाम संसाधन और गरिमापूर्ण जीने के उनके मौलिक अधिकारों की अवहेलना इस बार भाजपा के गले की हड्डी तो बनेगी.

दूसरा महत्वपूर्ण कारण है हिंदूकरण के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अभियान को पत्थलगढ़ी जैसे स्वत: स्फूर्त आंदोलनों ने आगे बढ़ने से बलपूर्वक रोका है.

यही वजह है कि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लिए अत्याचार व उत्पीड़न रोकने के लिए बने कानून को लेकर भी इस सरकार की स्थिति सांप-छछूंदर जैसी हो गई है. जिसका असर यह हुआ कि 2014 के संकल्प पत्र की इस बात को 2019 के संकल्प पत्र में दोहराया भी नहीं गया कि आदिवासियों व दलितों की सुरक्षा के लिए भाजपा कोई वचन भी देती है.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)