कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में आफ्स्पा और राजद्रोह क़ानून में बदलाव की बात कही है, जिस पर प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि आफ्स्पा में सुधार से सेना का मनोबल गिरेगा. सोचने वाली बात है कि अगर सैनिकों के अधिकारों पर यह सीमा तय हो कि किसी भी नागरिक को सिर्फ शक़ के बिना पर मारने, गायब करने या किसी महिला के साथ यौन हिंसा की शिक़ायत होने पर उन्हें क़ानूनी संरक्षण नहीं मिलेगा तो इसमें सेना का मनोबल कैसे गिरेगा?
कांग्रेस पार्टी ने लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में दो हिम्मतवर घोषणाएं की है. यह घोषणाएं है: पहला, सशस्त्र बल (विशेष शक्ति) अधिनियम 1958 (आफ्स्पा) में ऐसे बदलाव किए जाएंगे जिससे यौन हिंसा, यातना देना एवं किसी नागरिक के गायब किए जाने के मामले सेना के जवानों को इस कानून के संरक्षण नहीं मिले, जिससे सेना एवं नागरिकों के अधिकार के बीच एक संतुलन बना रहे.
और दूसरा, भारतीय दंड सहिंता की धारा ‘124 अ’ जो राजद्रोह को परिभाषित करती है, उसके दुरुपयोग के मद्देनजर उसे पूरी तरह से खत्म करना.
इन घोषणाओं को हिम्मतवर कहा क्योंकि जब भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी का सारा चुनाव प्रचार अतिराष्ट्रवाद से लदा है, तब कांग्रेस ने यह जानते-बूझते कि इन घोषणाओं से उसे कोई बड़े वोट बैंक का फायदा नहीं होना है , बल्कि इन घोषणाओं के चलते भाजपा उस पर राष्ट्र विरोधी ताकतों का साथ देने एवं एवं सेना विरोधी होना का आरोप लगाएगी, उसने इन मुद्दों को अपने घोषणा-पत्र में जोड़ना जरूरी समझा.
और जैसा कि उम्मीद थी, भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस को सेना विरोधी बताते हुए कह रहे है कि आफ्स्पा में सुधार से सेना का मनोबल गिरेगा. और दूसरा आरोप लगाया कि, देशद्रोह से संबंधित कानून ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के इशारे पर हटाया जा रहा है.
पहले इन दोनों कानूनों की बात कर ले फिर इस बात की भी पड़ताल करेंगे कि मोदी सरकार के दौर में शक्ति प्रयोग से आतंकवाद कम हुआ या बड़ा और देश लोकतांत्रिक मूल्यों के मामले में नीचे गिरा या ऊपर गया.
पहले हम आफ्स्पा की बात करें. यह एक ऐसा कानून (अधिनियम) है, जो 1958 में बना और सबसे पहले देश के सात उत्तर पूर्वी राज्यों में लागू हुआ और 1990 से जम्मू कश्मीर में. अब 61 साल के अनुभव के बाद अगर इसमें कुछ ऐसे बदलाव किए जाते हैं, जिससे नागरिकों और सेना के अधिकारों के बीच संतुलन तो इसमें गलत क्या है?
मुझे यह समझ नहीं आता है कि जब अनेक राज्यों में बड़े पैमाने पर सेना स्थायी रूप से सिविलियन इलाके में तैनात हो, तब अगर सैनिकों के अधिकारों पर यह सीमा तय की जाए कि किसी भी नागरिक को सिर्फ शक के बिना पर मार डालने या उसे गायब कर देने या किसी महिला के साथ यौन हिंसा की शिकायत होने पर उन्हें क़ानून का संरक्षण नहीं मिलेगा तो इसमें सेना का मनोबल कैसे गिरेगा?
कल आपके यहां अपराध बढ़ेंगे तो क्या आप पुलिस को यह अधिकार देंगे? 8 जुलाई 2016 के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस मदन बी लोकुर और यूयू ललित की खंडपीठ ने इस बात को अपने आदेश में कहा था
‘अगर हम शस्त्र बल के जवानों को इस बात के लिए नियुक्त करने लगे कि वो देश के किसी भी नागरिक को सिर्फ आधार पर मार डाले कि उसके शत्रु होने की शंका भर थी, तो फिर सिर्फ न्याय का राज ही नहीं बल्कि लोकतंत्र भी खतरे में आ जाएगा.’
इस मामले में कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा कि कोई भी नागरिक सिर्फ इसलिए दुश्मन नहीं हो जाता है क्योंकि वो किसी प्रतिबंधित क्षेत्र में हथियार लेकर चल रहा था. और, वैसे भी दुश्मन से भी निपटते समय क्या करना है, इस बारे में जेनेवा समझौते में दिया है.
इस आधार पर कोर्ट ने मणिपुर राज्य में वहां की पुलिस और सेना के द्वारा बल के दुरुपयोग के चलते मारे गए 1,528 नागरिको के मामले में सघन जांच के आदेश दिए और ज्यादा बल प्रयोग से किसी नागरिक की हत्या के मामले में तथ्य आने पर अपराधिक प्रकरण दर्ज कर कार्यवाही भी शुरू करने का आदेश दिया.
वैसे भी यह मांग कोई नयी नहीं है. आफ्स्पा को खत्म करने के बारे में जस्टिस जीवन रेड्डी कमेटी ने सन 2005 में ही अपना सुझाव केंद्र सरकार को दे दिया था. द्वितीय प्रशासनिक सुधार समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इसका समर्थन किया था और इसके आधार पर केंद्र सरकार ने 17 अगस्त 2012 को सभी राज्य सरकारों से संवाद की प्रक्रिया भी शुरू कर दी थी. हालांकि, वो अब तक पूरी नहीं हुई है.
अब हम देशद्रोह के लिए अंग्रेजों द्वारा बनाई गई भारतीय दंड सहिंता की धारा ‘124 अ’ की बात करें. राजद्रोह के इस कानून को अंग्रेजों ने उस समय अपने खिलाफ होने वाले विद्रोह को दबाने के लिए किया था. गांधी से लेकर तिलक तक उस समय के अनेक बड़े-छोटे नेता इसका शिकार हुए है.
पिछले कुछ सालों में इसका दुरुपयोग बढ़ा है, कांग्रेस की सरकारों ने भी इसका दुरुपयोग किया है. मगर मोदी सरकार के दौरान जिस तरह से जेएनयू से लेकर अपने से भिन्न विचारधारा रखने वाले अनेक समाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ उपयोग किया है और मीडिया के माध्यम से इसका दुष्प्रचार भी किया है, वो कभी नहीं हुआ.
अभी फरवरी माह में भाजपा नेता की शिकायत पर अलीगढ़ विश्वविद्यालय के 14 छात्रों पर उत्तर प्रदेश पुलिस ने राजद्रोह का मामला दर्ज किया. जबकि केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट 1962 में ही यह साफ कर चुका है कि इस क़ानून का उपयोग तभी किया जाए जब कोई हिंसा के जरिये सरकार का तख्तापलट करना चाहे.
इस कानून के दुरुपयोग को लेकर लॉ कमीशन भी पिछले साल अपनी 35 पेज की एक रिपोर्ट दे चुका है.
मोदी सरकार कांग्रेस को चाहे जितना कोस ले मगर सच्चाई यह है कि नरेंद्र मोदी की सरकार की बल प्रयोग की नीति से जहां आतंकवाद बढ़ा है, वहीं लोकतंत्र के मापदंड में देश नीचे गया है- 2014 से 2018 के पांच सालों के दौरान जम्मू कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं में मरने वाले जवानों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई है और आतंकवाद की घटना में पौने दो गुना से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है.
5 फरवरी 2019 को राज्यसभा में सरकार द्वारा दिए गए जवाब के अनुसार जम्मू-कश्मीर में 2014 से 2018 के पांच सालों में आतंकवादी घटनाओं में 176% की बढ़ोतरी हुई है.जहां 2014 में आतंकवाद की 222 की घटनाएं हुई थीं, वहीं 2018 में बढ़कर 618 हो गई. इन घटनाओं में मरने वाले सुरक्षा बलों की संख्या 47 से लगभग दोगुनी होकर 91 हो गई और आतंकवादियों की संख्या 110 से बढ़कर 257 हो गई.
सबसे बड़ी चिंता की बात है, वहां के आम लोगों और सुरक्षा बलों के बीच टकराव का बढ़ना. इससे यह जाहिर होता है कि पिछले पांच साल से ताकत के दम पर आतंकवाद खत्म करने के नाम पर अपनाई गई बल प्रयोग की नीति उल्टा आतंकवाद की जड़ों को गहरा कर रही है.
वही लोकतंत्र के मापदंड पर देश आधे के लगभग नीचे खिसक गया है. एक तरह से हम यह कह सकते है कि पिछले पांच सालों में आतंकवाद के हल्ले के बीच लोकतंत्र का गला घोंटा गया है.
पूरी दुनिया के 165 देशों में राजनीतिक हिस्सेदारी, विरोध की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के मापदंड पर उस देश के लोकतंत्र के स्तर का आकलन करने वाले ब्रिटेन स्थित इकोनॉमिस्ट ग्रुप की डेमोक्रेसी इंडेक्स 2018 की रिपोर्ट के अनुसार भारत विश्व स्तर की सूची में लोकतंत्र के 41वें पायदान पर है- जो 2014 में 27वें और 2017 में 32वें पायदान पर था.
यानी पिछले 5 साल में लोकतंत्र के मामले में हमारा देश 48% गिरा है और पिछले एक साल में 28%. इकोनॉमिस्ट ग्रुप यह इकोनॉमिस्ट न्यूज़ पेपर की सहायक संस्था है, जिसे 70 साल का अनुभव है और जो दुनिया के देशों में बिज़नेस समूहों, वित्तीय संस्थाओं एवं देश की सरकारों को अपने विश्लेषण के जरिये यह समझने में मदद करते है कि किसी देश विशेष में क्या बदलाव आ रहे हैं, जिसके चलते बिजनेस के लिए किस तरह की संभावनाएं बनती है और उसके लिए किस तरह के खतरों से निपटना पड़ेगा.
इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में संकीर्ण धार्मिक विचारधारा के बढ़ते प्रभाव से अल्पसंख्यकों, खासकर मुस्लिमों और अलग विचारधारा रखने वालों के खिलाफ त्वरित न्याय देने वाली भीड़ के हमले बढ़े हैं. एवं भारत पत्रकारों के लिए एक खतरनाक जगह बन गई है, खासकर जम्मू कश्मीर और छत्तीसगढ़.
सरकार ने यहां प्रेस की स्वतंत्रता पर रोक लगाई है, अनेक अख़बार बंद करवा दिए गए है और मोबाइल व इंटरनेट सेवा पर नियंत्रण लगा रखा है. हालांकि रिपोर्ट यह भी कहती है- भारत के लोकतंत्र की यह विशेषता है कि सत्ता में काबिज भाजपा सरकार द्वारा दबाव डालने और डराने की तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें असफलता ही हाथ लगी.
आखिर में एक महत्वपूर्ण बात समझना होगा कि मोदी सरकार कैसे भय दिखाकर लोकतंत्र का गला घोंट रही है. यह न सिर्फ ऊपर दर्शाए गए डेमोक्रेसी इंडेक्स 2018 की रिपोर्ट से बल्कि जिस तरह से सरकार ने अपनी स्वतंत्र संस्थाओं का गला घोंट दिया है, उससे भी साफ होता है.
उदाहरण के लिए, नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाईजेशन (एनएसएसओ) की लेबर फोर्स पर ताजा रिपोर्ट नहीं आने दी. 2015 के बाद से नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की आत्महत्या और दुर्घटना से मौत पर रिपोर्ट नहीं आई और 2017 से ‘क्राइम इन इंडिया’ की.
सरकार नहीं चाहती लोगों को बेरोजगारी के आंकड़े मालूम हों, दलित, आदिवासी और महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की तीव्रता का अहसास हो और किसानों की आत्महत्या की बढ़ती संख्या की जानकारी मिले.
आरबीआई से लेकर सीबीआई के निदेशक को स्वतंत्रता से काम नहीं करने दिया और वो निकाले गए. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों को इस दबाव के खिलाफ पत्रकार वार्ता कर देश के नागरिकों को आगाह करना पड़ा.
लोकपाल की नियुक्ति कार्यकाल खत्म होते-होते हुई, वो भी सुप्रीम कोर्ट के दबाव में. चुनाव आयोग की निष्पक्षता भी सवालों के दायरे में आती जा रही है, इसलिए बेहतर होगा कि वो राष्ट्रवाद और आतंकवाद के नाम पर गाल पीटकर देश का ध्यान भटकाना बंद करे और यह देखे कि 2019 में लोकतंत्र कैसे बचेगा.
(लेखक समाजवादी जन परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं.)