भाजपा को मात देने के लिए विपक्षी दलों की गोलबंदी भले शुरू हो गई हो, लेकिन फ़िलहाल ऐसा कोई मुद्दा सामने नहीं आया है जो भाजपा के विरोध में हलचल पैदा कर सके.
दिल्ली के कंस्टीट्यूशन क्लब में एक मई को लगा विपक्षी नेताओं का जमघट असरदार था. कई राष्ट्रीय पार्टियों- कांग्रेस, सीपीआई, सीपीएम, एनसीपी, जदयू, बसपा, राष्ट्रीय लोकदल और सोशलिस्ट पार्टी आॅफ इंडिया और लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी जैसी कुछ छोटी पार्टियों ने इसमें हिस्सा लिया. समाजवादी आंदोलन के शीर्ष नेताओं में से एक मधु लिमये की जयंती पर आयोजित इस सभा का विषय भी मौक़े के मुताबिक ही था- ‘प्रगतिशील ताक़तों की एकता’.
मधु लिमये आरएसएस और भारतीय जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी का पुराना संस्करण) के कट्टर विरेाधी तथा समाजवादी और साम्यवादी पार्टियों की एकता के हिमायती थे. हालांकि गैर-कांग्रेसवाद और इंदिरा गांधी के तीखे विरोध की राजनीति में वे आगे रहे, लेकिन अपनी धारा के वे शायद अकेले नेता थे जिन्होंने आरएसएस की राजनीति का उस समय इतना तीव्र विरोध किया था जब कोई उसे बड़ा ख़तरा मानने को तैयार नहीं था.
मधु लिमये हिंदुत्व को देश के लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा मानते थे. उन्होंने 1977 में सत्ता में आई जनता पार्टी के उन सदस्यों को आरएसएस की सदस्यता छोड़ने के लिए कहा था जो भारतीय जनसंघ के विलय के बाद पार्टी में आए थे.
जनता पार्टी में शामिल समाजवादी पार्टी, संगठन कांग्रेस, स्वतंत्र पार्टी और भारतीय लोकत्रांतिक दल जैसी अनेक पार्टियों के सदस्यों का किसी बाहरी संगठन से कोई रिश्ता नहीं था. भारतीय जनसंघ के ही लोग ऐसे थे जिन्होंने अपनी पार्टी का विलय तो कर दिया था, लेकिन इसके लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी समेत कई नेता उच्च पदों पर थे. इन्होंने जनता पार्टी के चुनावी घोषणा-पत्र, इसकी नीतियों तथा कार्यक्रम को भी पूरी तरह स्वीकार कर लिया था, लेकिन अपने पितृ-संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ अपना रिश्ता बनाए हुए थे.
मधु लिमये का कहना था कि यह दोहरापन है क्योंकि पार्टी आरएसएस के ‘सांप्रदायिक’ तथा ‘लोकतंत्र विरोधी’ विचारों के ख़िलाफ़ है. उनके अनुसार एक ही व्यक्ति एक साथ दो सिद्धांतों पर कैसे चल सकता है. लिमये जनसंघ के छात्र संगठन विद्यार्थी परिषद और मज़दूर संगठन भारतीय मज़दूर संघ के भी जनता पार्टी में विलय की मांग कर रहे थे.
आख़िरकार जनसंघ के सदस्य पार्टी तोड़कर निकल गए और उन्होंने भारतीय जनता पार्टी बना ली. उन्होंने जनता पार्टी के सिद्धांतों को रणनीति के तौर पर मान तो लिया था लेकिन वे अपने को आरएसएस का ही प्रतिनिधि मानते थे.
लिमये आरएसएस के शुरू से ही ख़िलाफ़ थे और डॉ. राममनोहर लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद के समय भी जनसंघ को साथ लेने का उन्होंने विरोध किया था. डॉ. लोहिया ने उनकी बात नहीं सुनी. 1974 के आंदोलन के समय भी आरएसएस के लोगों को शामिल करने के वह पक्ष में नहीं थे, लेकिन इमरजेंसी के ख़िलाफ़ लड़ाई के लिए बड़ा मोर्चा बनाने के लिए उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया.
इसलिए भाजपा विरोधी मुहिम के शुरुआत के लिए विपक्ष के नेताओं को उनकी जयंती का दिन एक बेहतर अवसर नज़र आया. वैसे भी सोवियत यूनियन के विघटन के बाद मधु लिमये समाजवादी-साम्यवादी पार्टियों की एकता के लिए सक्रिय थे. उनकी इस मुहिम में कई दिग्गज साम्यवादी नेता, सीपीएम के बीटी रणदिवे और सीपीआई के एबी बर्धन भी शामिल थे.
लेकिन विपक्षी पार्टियों की इस सभा में दो महत्वपूर्ण पार्टियों- कांग्रेस और सीपीएम ने साफ़ कर दिया कि सिर्फ़ ‘अंकगणित’ (चुनाव में वोटों के प्रतिशत) पर आधारित एकता का कोई मतलब नहीं है. दोनों ने पार्टियों में नीतियों और कार्यक्रमों की एकता पर ज़ोर दिया.
कांगेस के दिग्विजय सिंह और सीपीएम के सीताराम येचुरी का कहना था कि नीतियों और कार्यक्रमों की एकता होने पर ही मोदी और भारतीय जनता पार्टी के विरोध को सफल बनाया जा सकता है. लेकिन 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध में महागठबंधन बनाने के लिए विपक्षी पार्टियों की बैचैनी सभा में साफ़ दिखाई दे रही थी. चाह कर भी वे अपनी बेचैनी छिपा नहीं पा रही थीं और संयुक्त मोर्चा बनाने में सावधानी बरतने की बात का कोई ज़्यादा मायने नहीं निकाला जा सकता है.
सवाल यह है कि इस बेचैनी के बावजूद ऐसी कौन सी बाधाएं हैं जो उन्हें ऐसा करने से रोके हुए है. गहराई से देखने पर इसका खुलासा हो जाता है. सभी पार्टियां समझ रही हैं कि मोदी विरोध के लिए कुछ ऐसे मुद्देे सामने लाने होंगे जो देश में हलचल पैदा कर सकें. इसी वजह से वे नीतियों और कार्यक्रम पर आधारित एकता की बात कर रही हैं क्योंकि मुद्दे उन्हीं से निकलेंगे.
लेकिन विपक्षी एकता के लिए सर्वमान्य मुद्दे ढूंढ़ने में कई कठिनाइयां हैं जिसकी चर्चा कोई भी पार्टी सार्वजनिक रूप से नहीं करना चाहती. यह असल में विचारधारा का संकट है. विपक्षी पार्टियों के बीच विचारों की गहरी खाई है. कम्युनिस्ट पार्टियां नई आर्थिक व्यवस्था के पूरी तरह ख़िलाफ़ हैं और वे इसे विनाशकारी मानती हैं.
वहीं, कांग्रेस नई आर्थिक नीतियों की जन्मदाता है और तेज़ विकास के लिए तथा कथित आर्थिक सुधारों के पक्ष में है. अगर ग़ौर से देखा जाए तो विदेशी पूंजी को भारत लाने और श्रम क़ानूनों में बदलाव की सारी ज़मीन कांग्रेस की तैयार की हुई है.
कांग्रेस ने इन नीतियों के त्याग का कोई ऐलान भी नहीं किया है. यही नहीं, इन नीतियों को जन्म देने वाले डॉ. मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम आज भी पार्टी के शीर्ष नेता हैं. इनकी जगह समाजवादी नीतियों और नेहरूवाद की वकालत करने वाले किसी नेता को सामने लाने की कोई कोशिश पार्टी कर भी नहीं रही है.
यही हाल ग़ैर-कांग्रेसी गैर-वामपंथी विपक्षी पार्टियों का है. जनता परिवार की पार्टियों, जिन्हें मोटे तौर पर समाजवादी विरासत से जोड़ा जा सकता है, के पास भी आर्थिक नीतियों के विरोध का कोई कार्यक्रम नहीं है. जदयू, समाजवादी पार्टी या आरजेडी के नेता अपने भाषणों या बयानों में समाजवाद की भाषा का इस्तेमाल तो करते रहे हैं लेकिन देशी-विदेशी बड़ी पूंजी या श्रम क़ानूनों में बदलाव के विरोध में कोई कार्यक्रम उन्होंने नहीं अपनाया है. बड़ी पूंजी या कॉरपोरेेट को आमंत्रित करने में कोई भी पार्टी पीछे नहीं है.
विपक्षी पार्टियों के पास ले-देकर सांप्रदायिकता का मुद्दा ही रह जाता है जो उन्हें एक कर सकता है. लेकिन इस मुद्दे की सीमाओं को पार्टियों ने उत्तर प्रदेश के चुनाव में पहचान लिया है. सामाजिक न्याय की हिमायती पार्टियां- अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी तो अलग-अलग बुरी तरह विफल रहीं. अब उन्हें साथ लाकर 2019 के नतीजों की तस्वीर बदलने की बात की जा रही है. लेकिन उन्हें यह भी देखना चाहिए कि ज़मीनी हक़ीक़त इसकी कितनी इजाज़त देती है. जाटव और यादव के साथ आने में कम कठिनाइयां नहीं हैं.
विचाधारा के संकट के कारण विपक्षी पार्टियों के पास मोदी-विरोध का कोई साझा मुद्दा नहीं उभर पा रहा है. 1977 में इंदिरा गांधी के विरोध में इकट्ठा होनेे के लिए एक बड़ा मुद्दा सामने था- लोकतंत्र की बहाली का.
मोदी के राज में संस्थाओं की प्रकृति बदलने का मुद्दा सभा में शरद यादव, अतुल अनजान, डीपी त्रिपाठी, सुधींद्र भदेारिया, रघु ठाकुर और प्रेम सिंह-सभी नेताओं ने उठाया. उन्होंने निर्णय प्रकियाओं के केंद्रीकृत हो जाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तरह-तरह की पाबंदियों की चर्चा भी की. लेकिन इसके ख़िलाफ़ आपातकाल के जैसा राजनीतिक माहौल बनाना उनके लिए संभव नहीं हो पा रहा है.
विपक्षी नेताओं को यह अंदाज़ा है कि आर्थिक सामाजिक मुद्दों पर नज़रिया साफ़ किए बग़ैर कोई ऐसा माहौल नहीं बन सकता. लेकिन उदारीकरण और भूमंडलीकरण के आर्थिक कार्यक्रम को अपनाने के बाद इन पार्टियों के लिए किसी वैकल्पिक कार्यक्रम को अपनाना कठिन है.
अभी तक बेरोज़गारी और महंगाई को पहले नंबर का मुद्दा बनाने की बात भी किसी ने नहीं की है. इस मामले में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी आगे नहीं आ पा रहे हैं. क्षेत्रीय पार्टियां-तृणमूल कांग्रेस और बीजू जनता दल के पास तो नीतियों की कोई वैसी विरासत भी नहीं है. वे तो पूरी तरह व्यक्ति आधारित पार्टियां हैं. इन पार्टियों को किसी विचारधारा से जोड़ना कठिन है. विपक्षी पार्टियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती विचारधारा संबंधी उलझनों को सुलझाने की है.
यही वजह है कि जब मानवाधिकार कार्यकर्ता और सोशलिस्ट पार्टी आॅफ इंडिया के जस्टिस (रिटायर्ड) राजिंदर सच्चर ने सवाल किया कि कॉरपोरेट के ख़िलाफ़ राज्यसभा में विधेयक लाने से विपक्ष को कौन रोक रहा है तो नेताओं ने ख़ामोशी अख़्तियार कर ली.