बिहार के मधेपुरा लोकसभा पर यादव बिरादरी का प्रभुत्व है. यहां एनडीए की तरफ से जदयू नेता दिनेश चंद्र यादव मैदान में हैं जबकि महागठबंधन ने शरद यादव को मैदान में उतारा है, वहीं पप्पू यादव निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं.
रोम में पोप, मधेपुरा में गोप! मधेपुरा के जातीय समीकरण और चुनाव की बात जब भी आती है, तो अनायास ही यह मुहावरा याद आ जाता है. तीसरे चरण में मधेपुरा में होने वाले आम चुनाव को लेकर फिर एक बार ये मुहावरा गूंजने लगा है.
इस मुहावरे का सीधा अर्थ ये है कि रोम में जिस तरह पोप की चलती है, मधेपुरा में उसी तरह गोप यानी यादव बिरादरी की तूती बोलती है.
मंडल आयोग के अध्यक्ष और बिहार के पहले यादव मुख्यमंत्री रहे बीपी मंडल के ज़मींदार पिता रासबिहारी मंडल ने जब मधेपुरा में यादवों की गोलबंदी तेज़ की थी, तभी इस मुहावरे का इज़ाद हुआ और कालांतर में यह मुहावरा मधेपुरा के साथ चिपक गया.
मधेपुरा के लिए सियासी पार्टियां जब भी उम्मीदवारों का चुनाव करती है, तो इस मुहावरे को ध्यान में रखा जाता है. यही वजह है कि इस बार भी महागठबंधन और एनडीए ने यादव बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले नेताओं का टिकट दिया है.
एनडीए की तरफ से जदयू नेता दिनेश चंद्र यादव मैदान में हैं जबकि महागठबंधन की तरफ से शरद यादव चुनाव लड़ रहे हैं. शरद यादव जदयू में थे और पार्टी के टिकट पर दो बार इस सीट से चुनाव जीत चुके हैं.
जनता दल के दौर में भी उन्होंने इस सीट से दो बार जीत हासिल की थी. वर्ष 2017 के मध्य में जब नीतीश कुमार ने राजद से गठबंधन ख़त्म कर भाजपा के साथ सरकार बना ली, तो शरद यादव ने जदयू को अलविदा कह दिया और अपनी अलग पार्टी बना ली.
बाद में वह महागठबंधन का हिस्सा हो गए और अब राजद के चुनाव चिह्न पर मैदान में हैं. इन दोनों के अलावा एक तीसरा उम्मीदवार भी है, जो जीत-हार में बड़ा फैक्टर हो सकता है और वह हैं इस सीट से वर्तमान सांसद पप्पू यादव.
वर्ष 2014 में मोदी लहर के बावजूद जातीय समीकरण की बदौलत राजद के टिकट पर पप्पू यादव ने 56 हज़ार वोटों से जीत दर्ज की थी. जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले शरद यादव दूसरे और भाजपा उम्मीदवार विजय कुमार सिंह तीसरे पायदान पर थे.
पप्पू यादव को राजद ने पार्टी से बाहर कर दिया था, तो उन्होंने जन अधिकार पार्टी नाम से अपना अलग दल बना लिया. बाद में जब आम चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई, तो उन्होंने राजद के साथ गठबंधन करने की पुरज़ोर कोशिश की, मगर तेजस्वी यादव इसके लिए कतई तैयार नहीं हुए. किसी भी तरह दाल न गलती देख उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला लिया.
चूंकि, इस बार मुक़ाबला त्रिकोणीय है और तीनों उम्मीदवार यादव बिरादरी से आते हैं, इसलिए इस बार ‘रोम में पोप और मधेपुरा में गोप’ वाली कहावत बहुत ज़्यादा प्रासंगिक होती नहीं दिख रही है, क्योंकि यादव वोट तीनों उम्मीदवारों में बंटना तय है. ऐसे में अन्य जातियों के वोट अहम हो जाएंगे.
हालांकि, वर्ष 2008 के परिसीमन के बाद मधेपुरा लोकसभा क्षेत्र में जिन विधानसभा सीटों को शामिल किया गया है, उनमें बसने वाली आबादी वैसे ही पोप और गोप वाली कहावत को अप्रासंगिक बना देती है.
आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2008 में हुए परिसीमन के बाद मधेपुरा में यादवों की आबादी 25 फीसदी के आसपास रह गई है, जबकि ‘पचपनिया’ (55 पिछड़ी/अति-पिछड़ी जातियां) के नाम से मशहूर पिछड़ी/अति-पिछड़ी जातियों की संख्या यादवों से ज़्यादा हो गई है. वहीं, 10 फीसदी आबादी मुस्लिमों की है.
वर्ष 1967 से लेकर अब तक हुए 15 चुनावों को देखें, तो हर बार यादव बिरादरी से आने वाले नेता की ही जीत हुई और दूसरे नंबर जो नेता रहे वह भी यादव समुदाय के ही थे. इससे ज़ाहिर है कि किसी भी उम्मीदवार की जीत में यादव के अलावा दूसरी बिरादरियों का वोट भी अहम रहा है, मगर दुर्भाग्य से इस सीट से जीत के समीकरणों पर चर्चा में दूसरी बिरादरियों का ज़िक्र नहीं होता है.
1991 और इसके बाद के आम चुनावों के परिणाम बताते हैं कि इस सीट पर राजद का दबदबा रहा है. वर्ष 1991 और 1996 के चुनाव में जनता दल के टिकट पर शरद यादव ने जीत दोहराई. 1998 और इसके बाद के चुनाव परिणाम पर गौर करें तो तीन बार राजद और दो बार जदयू ने जीत का परचम लहराया.
राजद के मुखिया लालू प्रसाद यादव ने 1998 और 2004 के आम चुनाव में इस सीट से जीत दर्ज की, लेकिन शरद यादव के हाथों उन्हें 1999 के आम चुनाव में हार का मुंह भी देखना पड़ा.
शरद यादव ने अलग-अलग पार्टियों से चार बार इस सीट से जीत दर्ज की, लेकिन तीन बार उन्हें हार भी मिली.
मधेपुरा के चुनावी आंकड़े बताते हैं कि राजद के मुस्लिम-यादव समीकरण के बावजूद जदयू का मज़बूत वोट बैंक है.
वर्ष 2014 के आम चुनाव में यह स्पष्ट तौर पर दिखा भी. इस चुनाव में नरेंद्र मोदी की जबरदस्त लहर थी, इसके बावजूद जदयू ने दूसरा स्थान हासिल किया था. जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ रहे शरद यादव को 3,12,728 वोट मिले थे. पप्पू यादव ने करीब 56 हज़ार वोटों के अंतर से जीत हासिल की थी. इस सीट से भाजपा उम्मीदवार विजय कुमार सिंह को 2,52,534 वोट मिले थे.
वर्ष 2009 के चुनाव में जदयू ने जबरदस्त जीत दर्ज की थी. जदयू उम्मीदवार शरद यादव को 3,70,585 वट मिले थे. वह करीब एक लाख 87 हज़ार वोटों के अंतर से जीते थे.
इसी तरह 2004 के चुनाव में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव खुद मैदान में थे, इसके बावजूद जदयू के टिकट पर उम्मीदवार रहे शरद यादव को 2,74,314 वोट मिले थे और वह दूसरे स्थान पर रहे.
वर्ष 2014 के आम चुनाव को छोड़ दें तो अन्य चुनावों में नीतीश कुमार भाजपा के साथ थे. साथ ही उन्होंने पिछड़ी जातियों के वोट बैंक को भी साधने की पुरज़ोर कोशिश की, जिससे जदयू का एक स्थायी वोट बैंक बन गया है. इस वोट बैंक में यादव भी हैं और पिछड़ी/अति-पिछड़ी जातियां भी. भाजपा का वोट तो उनके साथ है ही.
वहीं, राजद को मिले वोटों का विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है कि राजद का वोट बैंक चढ़ता-ढलता रहा है.
1998 के चुनाव में राजद (लालू प्रसाद यादव उम्मीदवार थे) को 2,97,686 वोट मिले थे, जो 1999 में भी बरकरार रहा. वर्ष 2004 के आम चुनाव में राजद को ज्यादा वोट मिले, लेकिन 2009 के आम चुनाव में वोट घट कर 1,92,964 पर आ गया था.
लालू प्रसाद यादव ख़ुद भी इस सीट से हार चुके हैं, इसलिए ये नहीं कहा जा सकता है कि मधेपुरा की पूरी यादव बिरादरी लालू प्रसाद यादव के साथ है.
दूसरी तरफ, पप्पू यादव की मधेपुरा में अपनी लोकप्रियता है. वह अपने इलाके में काफी वक़्त बिताते हैं और पैसा व अन्य माध्यमों से लोगों की मदद भी करते रहते हैं. इससे क्षेत्र में उनकी छवि रॉबिन हुड सरीखी बन गई है. जानकार बताते हैं कि मधेपुरा में शरद यादव से ज़्यादा लोकप्रियता पप्पू यादव की है, इसलिए उन्हें ठीकठाक वोट मिलेगा.
तीन गोपों यानी यादवों के मैदान में आने से मुकाबला त्रिकोणीय होता दिख रहा है, तो ज़ाहिर है कि किसी एक उम्मीदवार किसी का वोट काटेगा ही, लेकिन सवाल ये है कि किसका वोट कटेगा और उससे किसे नुकसान होगा?
चूंकि परिसीमन के बाद मधेपुरा में पिछड़ी/अति-पिछड़ी जातियों की तादाद बढ़ी है, तो ये वोट बैंक जिसके पास होगा, वह फायदे में रहेगा.
जानकारों का कहना है कि मधेपुरा का अतिपिछड़ा वोट जदयू के पास है, इसलिए पप्पू यादव को जो वोट मिलेगा, वो राजद के कोटे का मिलेगा, जिससे शरद यादव को नुकसान होना तय है.
पिछड़ी/अति-पिछड़ी जातियों का वोट नीतीश के पास होने का सबूत तो पिछले विधानसभा के चुनाव परिणामों से भी मिल जाता है.
गौरतलब हो कि पहले मधेपुरा लोकसभा क्षेत्र में कुमारखंड, सिंघेश्वर, मधेपुरा, सोनवर्षा, किशनगंज और आलमनगर विधानसभा सीटें थीं. वर्ष 2008 में परिसीमन के बाद इस लोकसभा क्षेत्र में तीन नये विधानसभा क्षेत्र बिहारीगंज, सहरसा और महिषी शामिल किए गए.
वर्ष 2010 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखें, तो मधेपुरा की छह विधानसभा सीटों में से पांच सीटों पर एनडीए (जदयू को चार व भाजपा को एक) ने जीत दर्ज की थी और एक सीट राजद के खाते में गई थी. इनमें से तीन सीटें परिसीमन के बाद जुड़ी थीं.
वहीं, वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार राजद के साथ थे, तो तीन सीटों पर जदयू और तीन पर राजद ने जीत दर्ज की थी.
इस चुनाव में राजद इसलिए तीन सीटें जीत पाई थीं क्योंकि जदयू व राजद के बीच सीटों के समझौते के तहत तीन सीटें उन्हें मिली थीं और उन सीटों पर जदयू का वोट राजद को ट्रांसफर हुआ था. लेकिन, इस बार राजद के सामने जदयू ही नहीं, पप्पू यादव भी चुनौती हैं.
उधर, नीतीश कुमार ख़ुद भी मधेपुरा में धुआंधार प्रचार कर किसी भी कीमत पर शरद यादव को हराना चाहते हैं. ऐसे में राजद के लिए इस सीट पर जीत बरक़रार रखना बहुत मुश्किल लग रहा है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)