उत्तर प्रदेश: अखिलेश के लिए आसान नहीं रही कन्नौज की राह

कन्नौज की सीट करीब दो दशक से यादव परिवार के पास ही रही है लेकिन इस चुनाव में यहां जो जातीय समीकरण बन रहे हैं वो यादव परिवार द्वारा यहां किए गए विकास कार्यों पर भारी पड़ रहा है.

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उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव सांसद और अपनी पत्नी डिंपल यादव के साथ. (फोटो: पीटीआई)

कन्नौज की सीट करीब दो दशक से यादव परिवार के पास ही रही है लेकिन इस चुनाव में यहां जो जातीय समीकरण बन रहे हैं वो यादव परिवार द्वारा यहां किए गए विकास कार्यों पर भारी पड़ रहा है.

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव सांसद और अपनी पत्नी डिंपल यादव के साथ. (फोटो: पीटीआई)
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव सांसद और अपनी पत्नी डिंपल यादव के साथ. (फोटो: पीटीआई)

जात-पात जपना जनता का माल अपना. ये नारा पीएम नरेंद्र मोदी ने चौथे चरण के चुनाव प्रचार के अंतिम दिन पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम व अखिलेश यादव के गढ़ कहे जाने वाले कन्नौज के तिर्वा में दिया. शाम होते-होते बीएसपी प्रमुख मायावती ने पीएम के नारे का जवाब देते हुए कहा, ‘जात-पात जपना, दलितों पिछड़ों का वोट हड़पना’ अब नहीं चलने वाला.

गठबंधन की ओर से मायावती का पीएम मोदी को ये जवाब यूं ही नहीं है. दरअसल कन्नौज से गठबंधन की प्रत्याशी पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव हैं जो यहां से सांसद भी हैं. डिंपल पिछला लोकसभा चुनाव महज बीस हजार वोटों से ही जीत पाई थीं. उन्हें बीजेपी के सुब्रत पाठक ने कड़ी टक्कर दी थी. बीजेपी ने इस चुनाव में भी सुब्रत पर ही दांव लगाया है.

करीब दो दशक से ये सीट यादव परिवार के पास ही रही है, लेकिन इस चुनाव में जो जातीय समीकरण कन्नौज में बन रहे हैं वो यादव परिवार द्वारा यहां किए गए विकास कार्यों पर भारी पड़ रहा है.

स्थानीय लोग भी मान रहे हैं कि इस चुनाव में खुद अखिलेश व डिंपल यादव को सीट निकालने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है. जबकि पहले के चुनाव में यादव परिवार के सदस्यों को यहां से जीतने के लिए इतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी.

अखिलेश के विकास पर भारी पड़ रहे हैं नए समीकरण

इत्र की खुशबू के लिए देश ही नहीं विश्व में अपनी पहचान बनाने वाला कन्नौज जिला यादव परिवार के सदस्यों की उपस्थिति के कारण वीआईपी क्षेत्र में गिना जाता है. यादव परिवार ने भी इस जिले के लिए काफी कुछ किया है.

मेडिकल कॉलेज हो चाहे एक्सप्रेस-वे या चौबीस घंटे बिजली की सप्लाई, सब कुछ यहां के लोगों को समाजवादी पार्टी के शासन में मिला. बावजूद इसके यहां के लोग डिंपल यादव की राह आसान बनाने के बजाए दुर्गम क्यों कर रहे हैं.

इसका जवाब तिर्वा कस्बे में रहने वाले रिटायर्ड डॉक्टर आरपी वर्मा देते हैं. डॉ. वर्मा साफ कहते हैं कि यहां से सांसद चाहे अखिलेश रहे हों चाहे डिंपल, तवज्जो सिर्फ यादवों को ही मिली.

वर्मा का आरोप है कि काम के साथ साथ यहां गुडागर्दी भी अपने चरम पर रही है. कस्बे में छोटी सी दुकान चलाने वाले अशोक कुमार अपने काम में मशगूल हैं लेकिन चुनाव की बात चलते ही उनका हाथ रुक जाता है.

शुरुआती बातचीत में अशोक कुछ भी बोलने से कतराते हैं लेकिन कुरेदने के बाद एक लाइन में अपना जवाब देकर चुप हो जाते हैं कि अखिलेश महज यादवों और मुस्लिमों को ही अपने साथ गिनते हैं बाकी जातियों को नहीं.

अशोक की ही दुकान पर बैठे एक बुजुर्ग किसान की पीड़ा है कि दवा छिड़कने की मशीन हो, चाहे हैंडपंप या पीएम आवास की कालोनी, सारी सरकारी योजनाओं का लाभ उन्हीं लोगों को मिला जिनको अखिलेश यादव के करीबी लोग जानते थे. इतना कहने के बाद बुजुर्ग अपनी साइकिल उठाते हैं और चलते समय हैंडल पकड़ कर कहते हैं, अखिलेश खुद में तो ठीक हैं लेकिन उनके आसपास अच्छे लोग नहीं हैं.

यही पीड़ा दलित गिरधर की भी है, जो आठ किलोमीटर दूर से पीएम मोदी को सुनने के लिए आए थे. गिरधर बताते हैं कि गांव में रास्ते को लेकर यादव परिवार से विवाद हो गया. मामले की सूचना लेकर थाने गए तो वहां भी सुनवाई नहीं हुई. उल्टा यादवों ने ही गिरधर के बेटों पर मुकदमा दर्ज करवा दिया.

ऐसा नहीं है कि पूरा कन्नौज जिला यादवों से पीड़ित है. पान की दुकान चलाने वाले बुजुर्ग सुरेश चंद्र सविता साफ कहते हैं कि कोई दस लाख रुपये भी दे तब भी मेरा वोट सीएम साहब (अखिलेश यादव) को ही जाएगा.

सविता कहते हैं कि पीएम भले ही नरेंद्र मोदी बनें लेकिन कन्नौज सीट पर जीत सीएम साहब की ही होनी चाहिए. इसके पीछे वह तर्क देते हैं कि साहब पहले इस पूरे क्षेत्र में भुखमरी के हालात थे. मुलायम सिंह यादव के यहां आने के बाद लोगों की स्थिति में सुधार हुआ है.

बैकवर्ड भी एक साथ नहीं

पीएम के नारे पर लखनऊ से मायावती ने जो जवाब दिया है वो चुनावी रणनीति का बड़ा हिस्सा है. मायावती हों, चाहे अखिलेश यादव, उन्हें इस बात का अंदाजा अच्छे से है कि बैकवर्ड वोट यदि छिटक गया तो इसका असर कन्नौज ही नहीं आसपास की सीटों पर भी देखने को मिलेगा.

बैकवर्ड और दलित वोट एक ही जगह पर रहे, इसके लिए गठबंधन की रैली में सांसद डिंपल यादव ने भरे मंच पर मायावती के पैर भी छुए. बैकवर्ड को एक साथ बांधे रखने की कवायद कहां तक सफल है, इसका जवाब मेडिकल कॉलेज में इलाज कराने आए महेश देते हैं.

महेश कहते हैं कि यादवों को छोड़, अधिकांश बैकवर्ड एक साथ हैं. इसके पीछे महेश का तर्क है कि दलितों के साथ दूसरी बैकवर्ड जातियों का सपा के शासन में यहां शोषण ही हुआ है. महेश का आरोप है कि प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनने से पहले जिले के थाने चंद लोग चलाते थे.

उन्हीं लोगों के कहने पर थानों में मुकदमा दर्ज होता था और उन्हीं के कहने पर पुलिस पकड़ने व छोड़ने का काम भी करती थी. यही कारण है कि इस चुनाव में यादवों को छोड़ दूसरी बैकवर्ड जातियों का रूझान बीजेपी की ओर है.

क्या है कन्नौज का सियासी समीकरण

कन्नौज लोकसभा क्षेत्र में छिबरामऊ, तिर्वा, विधूना, रसूलाबाद व कन्नौज सहित पांच विधानसभाएं हैं. इनमें से कन्नौज छोड़कर सभी सीटों पर बीजेपी के विधायक हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में सपा, बीजेपी के अतिरिक्त बीएसपी प्रत्याशी भी मैदान में थे.

बीजेपी और बीएसपी ने पिछले लोकसभा चुनाव में यहां ब्राह्मण प्रत्याशियों को मैदान में उतारा था, जबकि सपा से डिंपल यादव थीं. डिंपल यादव को पिछले चुनाव में करीब 44 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि बीजेपी प्रत्याशी सुब्रत पाठक को 42 प्रतिशत.

सपा व बीजेपी के बीच जीत-हार का अंतर महज बीस हजार वोटों का ही था. बीएसपी यहां रही तो तीसरे नंबर पर थी लेकिन इसके प्रत्याशी निर्मल तिवारी को महज साढ़े ग्यारह प्रतिशत वोटों से ही संतोष करना पडा था.

इस लोकसभा क्षेत्र में औरैया जिले की विधूना और कानपुर देहात की रसूलाबाद विधानसभा सीट शामिल है. इस लोकसभा सीट पर मुस्लिम व यादव मतदाता 16-16 प्रतिशत हैं जबकि ब्राह्मण करीब 15 प्रतिशत हैं.

यादवों को छोड़ दें तो अदर बैकवर्ड व दलितों आंकड़ा करीब 39 प्रतिशत के आसपास है, जो निर्णायक भूमिका निभाता है. इस सीट से एक बार मुलायम सिंह यादव, तीन बार अखिलेश यादव और दो बार डिंपल यादव सांसद रही हैं.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)