प्रधानमंत्री कार्यालय ने कथित तौर पर विभिन्न राज्यों के नौकरशाहों से उन जगहों के बारे में जानकारियां मांगी, जहां प्रधानमंत्री को चुनाव प्रचार के लिए जाना था. अगर यह साबित हो जाता है तो न केवल आदर्श आचार संहिता बल्कि जनप्रतिनिधि क़ानून का उल्लंघन होगा.
नई दिल्ली: समाचार वेबसाइट स्क्रॉल की एक पड़ताल में इस बात के सबूत मिले हैं कि केंद्र सरकार के थिंक टैंक नीति आयोग ने नौकरशाहों से प्रधानमंत्री कार्यालय को उन जगहों के बारे में सूचनाएं देने के लिए कहा, जिन जगहों पर चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी को जाना था.
अगर इसकी पुष्टि हो जाती है, तो इसका मतलब होगा कि प्रधानमंत्री ने न सिर्फ आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन किया है, बल्कि उस कानून का भी उल्लंघन किया है, जिसके तहत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दोषी करार दिया गया था.
जून, 1975 की उस दोषसिद्धि के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के संसद जाने पर रोक लगा दी थी, जिसके बाद इंदिरा गांधी ने देश में आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया था.
स्क्रॉल.इन द्वारा हासिल किया गया एक ई-मेल नौकरशाहों, जिसमें केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिव भी शामिल हैं, को संबोधित करते हुए नीति आयोग की इकोनॉमिक ऑफिसर (कोऑर्डिनेशन ऑफ स्टेट्स) पिंकी कपूर द्वारा भेजा गया मालूम पड़ता है. 8 अप्रैल को उन्होंने कथित तौर पर लिखा:
माननीय प्रधानमंत्री बहुत जल्द केंद्र शासित प्रदेशों का दौरा करने वाले हैं. प्रधानमंत्री कार्यालय ने नीचे बताए गए विषय पर कल 2 बजे दोपहर, यानी 09.04.2019 तक लेख पाने की इच्छा जताई है.
लेख का विषय :
केंद्रशासित प्रदेशों की मुख्य बातें और महत्वपूर्ण विशेषताएं- ऐतिहासिक जानकारी, स्थानीय नायक, संस्कृति, धार्मिक, आर्थिक (प्रमुख फसल और उद्योग आदि जैसी जानकारियां) ब्यौरे.
पर्यटन, कृषि, रोजगार/जीविका के खास संदर्भ में केंद्र शासित प्रदेशों की रूपरेखा.
आप से आग्रह है कि आप कृपया सकारात्मक तरीके से मांगी गयी जानकारी/लेख/सामग्री कल यानी 09.04.2019 को 2 बजे दोपहर तक [email protected] पर जरूर भेज दें.
स्क्रॉल ने भाजपा शासित महाराष्ट्र के एक कलेक्टर से भी किए गए ऐसे ही आग्रह का सबूत देखा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राज्य में- वर्धा, गोंदिया और लातूर में- रैलियां संबोधित किए जाने से ठीक पहले गोंदिया जिले के कलेक्टर कादंबरी बल्कावडे ने नीति आयोग को एक नोट भेजा जिसमें जिले का ब्यौरा पेश किया गया था. इस ई-मेल का विषय था: ‘प्रधानमंत्री कार्यालय के लिए गोंदिया जिले के बारे में लेख/सूचना.’
यह देखते हुए कि यह डेटा प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजा गया, यह निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि यह जानकारी प्रधानमंत्री द्वारा मांगी गयी थी और अधिकारियों ने उनकी जानकारी में और उनकी अनुमति से काम किया.
निष्पक्ष चुनाव की बुनियाद
ये आग्रह चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करते हैं, जो ‘चुनाव प्रचार के दौरान सरकारी अमले और कर्मचारियों के इस्तेमाल’ को प्रतिबंधित करती है. आदर्श आचार संहिता अपनी प्रकृति में स्वैच्छिक है और इसके पास सीमित कानूनी शक्तियां हैं.
हालांकि इस तरह के उल्लंघन भारत के चुनावों का प्रशासन करनेवाले कानून- जन प्रतिनिधि कानून, 1951 का भी उल्लंघन है, जिसके नतीजे बेहद गंभीर हो सकते हैं और यहां तक ऐसी ऐतिहासिक रुकावट भी पैदा कर सकता है, जैसी अतीत में हो चुकी है.
1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस को बड़ा बहुमत मिला था. इस तथ्य के बावजूद कि उनकी पार्टी हाल ही में ही दोफाड़ हुई थी, उनके धड़े को 43 फीसदी से ज्यादा राष्ट्रीय मतों के साथ लोकसभा की 352 सीटों पर जीत हासिल हुई थी.
इंदिरा ने समाजवादी उम्मीदवार राज नारायण को हराकर अपनी रायबरेली की सीट जीत थी. राजनारायण ने कोर्ट में इंदिरा गांधी के खिलाफ जनप्रतिनिधि कानून का उल्लंघन करने की शिकायत की.
यहां कानून की धारा 123(7)(ए) को आधार बनाया गया, जो किसी उम्मीदवार या उसके एजेंट- या उम्मीदवार की अनुमति से काम करनेवाले किसी भी व्यक्ति- द्वारा ‘उम्मीदवार की संभावनाओं को बढ़ाने के लिए’ राजपत्रित (गजेटेड) अफसरों से कोई मदद लेने’ को भ्रष्ट आचरण करार देता है. (पूरी धारा को यहां पढ़ सकते हैं.)
इंदिरा गांधी के मामले में यह आरोप लगाया गया था कि उन्होंने एक सरकारी अधिकारी यशपाल कपूर को अपना चुनाव प्रबंधक नियुक्त किया था.
इसमें यह आरोप भी लगाया गया कि स्थानीय अधिकारियों और पुलिस को उनके चुनाव-प्रचार की सभाओं की व्यवस्था करने का निर्देश दिया गया था.
कपूर ने प्रधानमंत्री सचिवालय से अपना इस्तीफा दे दिया था. इलाहाबाद हाईकोर्ट के सामने सवाल था कि क्या इंदिरा के निजी चुनाव प्रचार पर काम शुरू करने से पहले उनके इस्तीफे को औपचारिक रूप दे दिया गया था?
12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री को अधिनियम की धारा 123(7)(ए) के तहत दोषी पाया और निर्वाचित पद पर बैठने के लिए यानी प्रधानमंत्री होने के लिए ‘छह साल की अवधि के लिए अयोग्य घोषित कर दिया’.
इंदिरा ने फैसले के खिलाफ अपील की, लेकिन विपक्ष के विरोध-प्रदर्शनों और उनके इस्तीफे की मांग के भारी शोर को देखते हुए करीब दो सप्ताह के बाद 25 जून को उन्होंने आपातकाल की घोषणा कर दी.
इस फैसले का असर
किसी भी चुनाव में होने वाले कदाचार के पैमाने के हिसाब से देखें, तो जिस नियम के उल्लंघन के लिए उन्हें अयोग्य घोषित किया गया वह बेहद मामूली कहा जा सकता है.
लेकिन, कानून, कानून था और कानून को लागू किया जाना था- इस तथ्य को नजरअंदाज करते हुए कि इंदिरा गांधी को ऐतिहासिक जनादेश हासिल था और इस फैसले से बहुत बड़ी उठापटक का होना तय था.
इस मामले में, इंदिरा ने अपील की अवधि के दौरान भी इस्तीफा देने से इनकार कर दिया और इसकी जगह देश को 19 महीने के आपातकाल में ढकेल दिया. नागरिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया. विपक्ष को जेल में बंद कर दिया गया और भारत के लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों के साथ समझौता किया गया.
यहां यह याद किया जा सकता है कि जिस अपराध का उन्हें दोषी ठहराया गया, उसका समय जनवरी था. इंदिरा गांधी ने अपनी उम्मीदवारी की घोषणा 1 फरवरी को की थी और मतदान मार्च की शुरुआत में हुआ था.
वर्तमान मामले में अगर आरोप सही पाए जाते हैं, तो कानून का उल्लंघन मार्च के अंत और अप्रैल की शुरुआत में किया गया, जिसके तहत कुछ गजेटेड अफसरों को मतदान शुरू होने से महज 2 दिन पहले सत्ताधारी दल के चुनाव प्रचार अभियान में मदद करने के लिए कहा गया.
उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राज नारायण का दोहराया जाना भारत के लिए एक बुरी खबर होगी.
जिन वकीलों से द वायर ने बात की, उनके मुताबिक इस उल्लंघन से प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी को नहीं, बल्कि केंद्र शासित प्रदेशों और महाराष्ट्र से चुनाव लड़ रहे उन भाजपा उम्मीदवारों पर मुश्किल खड़ी होने की ज्यादा संभावना है, जिनकी मदद प्रधानमंत्री करना चाह रहे थे.
फिर भी दोनों ही सूरतों में कानूनी चुनौती का रास्ता खुला हुआ है. सुप्रीम कोर्ट की वकील इंदिरा जयसिंह ने द वायर से कहा, ‘दोनों स्थितियों में तुलना सही है… यह मेरे दिमाग में हमेशा से रहा है कि श्रीमती गांधी को बहुत छोटी सी बात पर अयोग्य घोषित किया गया था. आज एक पूरी नौकरशाही, जो एक गैर राजनीतिक सेवा है, सत्ताधारी दल के उम्मीदवारों को चुनाव में मदद करने के लिए काम कर रही है.’
ऐसे में किसी भी तरह के व्यवधान से बचने का पूरा जोखिम पीएमओ पर है, जिस पर चुनाव के बचे हुए हफ़्तों के दौरान निष्पक्ष आचरण के उच्चतम मानक स्थापित करने की जिम्मेदारी है- जो भले ही उसने बीते हफ़्तों में नहीं निभाई.
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