सांसद समेत अन्य लोग फर्ज़ी कागज़ातों के ज़रिये दलित और आदिवासियों के अधिकार छीन रहे हैं.
मध्य प्रदेश के बैतूल से अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीट से दूसरी बार चुनी गईं सांसद ज्योति धुर्वे की सदस्यता फिलवक़्त ख़तरे में पड़ती नज़र आ रही है.
पिछले दिनों मध्य प्रदेश सरकार की उच्चस्तरीय जांच कमेटी ने सघन जांच के बाद उनके द्वारा प्रस्तुत किए जाति प्रमाण पत्र को खारिज़ कर दिया.
ख़बरों के मुताबिक अपने जाति प्रमाण पत्र की कथित संदिग्धता के चलते धुर्वे तभी से विवादों में रही हैं जब 2009 में वह पहली दफ़ा वहां से सांसद चुनी गई थीं. यह आरोप लगाया गया था कि वह गैर आदिवासी समुदाय से संबद्ध हैं और उन्होंने फर्ज़ी जाति प्रमाण पत्र जमा किया है.
इस मसले को लेकर मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के सामने एक केस दायर किया गया है और अदालत के आदेश पर ही उपरोक्त जांच पूरी की गई है.
गौरतलब था कि जांच के दौरान पाया गया कि उनका जाति प्रमाण पत्र वर्ष 1984 में रायपुर से जारी हुआ था, मगर जब कमेटी ने इस बारे में कुछ और प्रमाणों की मांग की तो सांसद महोदया उन्हें कमेटी के सामने प्रस्तुत नहीं कर सकी.
कमेटी ने यह फैसला एकमत से लिया है और इसके बाद सांसद महोदया के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग उठी है. विपक्ष का कहना है कि यह मसला 2009 से सुर्ख़ियों में रहने के बावजूद राजनीतिक दबाव के चलते इस पर फैसला नहीं लिया गया था.
बहरहाल, ज्योति धुर्वे के बहाने फिर एक बार फर्ज़ी जाति प्रमाण पत्रों का मसला चर्चा में आया है.
मध्य प्रदेश के ही थांदला नगर परिषद की अध्यक्ष चम्पा उर्फ सुनीता को मार्च 2016 के मध्य में न केवल अपने पद से हटाया गया बल्कि उनके द्वारा जमा किए गए वसावा नामक जाति के प्रमाण पत्र को लेकर (जो जाति मध्य प्रदेश में अनुसूचित जनजाति में शुमार नहीं है) उसके ख़िलाफ़ धोखाधड़ी का मुक़दमा भी क़ायम हो गया.
इसके लिए उन्हें तीन से सात साल तक की जेल हो सकती है.
रेखांकित करने वाली बात है कि मुश्किल से दस माह पहले मध्य प्रदेश में इसी किस्म के एक अन्य घोटाले का पर्दाफाश हुआ था (भास्कर, जुलाई 31, 2016). जिसमें आदिवासी विकास विभाग को बड़ी तादाद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के जाली सर्टिफिकेट के उपयोग की शिकायत मिली थी जिसके चलते विभाग ने जाति प्रमाण पत्रों की जांच का ज़िम्मा छानबीन समिति को सौंपा था.
समिति ने वर्ष 1998 से लेकर 2015 तक 378 प्रकरणों की जांच की था. गौरतलब था कि उसे अधिकांश मामलों में जाति प्रमाण पत्र फर्ज़ी मिले.
इस पर उसने कार्रवाई करते हुए उन प्रमाण पत्रों को निरस्त कर दिया बल्कि आगे कार्रवाई की भी सिफारिश की. मालूम हो कि इन दस्तावेज़ों की सहायता से कई लोग सरकारी नौकरी में भी हासिल कर चुके थे और कई प्रमोशन भी ले चुके थे.
अभी पिछले ही साल मुंबई में राज्य के मंत्रालय से रिटायर कर्मचारी सदानंद गावित का नाम अचानक सुर्ख़ियों में आया, जिन्होंने समय पर दी गई चेतावनी के चलते महाराष्ट्र के विभिन्न मेडिकल कॉलेजों में आदिवासी कोटे के तहत एडमिशन लिए 17 मामलों का पर्दाफाश हुआ था जिसे देश का सबसे बड़ा ‘मेडिकल एडमिशन स्कैम’ कहा गया था.
अनुसूचित जनजाति के तहत प्रवेश लिए इन छात्रों के नामों को देखकर – मिसाल के तौर पर गांधी, ख़ान, पुरोहित, मंसूरी – जो वेरिफिकेशन के लिए आए थे, उनका कौतूहल जागा और फिर जांच शुरू हुई.
गौरतलब है कि अनुसूचित तबकों के कल्याण के लिए बनी संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट हो या सर्वोच्च न्यायालय का इन मामलों में हस्तक्षेप हो या कहीं लोगों के दबाव के चलते दिखाई देती सरकारों की सक्रियता हो, आए दिन ऐसे मसले चर्चा में आते रहते हैं.
आज से ठीक दस साल पहले की बात है हरियाणा में पुलिस अधीक्षक के तौर पर तैनात एक अफसर (संजय भाटिया) का मामला भी खूब तूल पकड़ा था. उपरोक्त शख़्स को भारतीय दंड विधान की धारा 420 के तहत सज़ा भी सुना दी गई थी.
उस पर यह आरोप प्रमाणित हो चुका था कि भारतीय पुलिस सेवा में भर्ती होने के लिए राजपूत परिवार में पैदा उस शख़्स ने दिल्ली के उप-आयुक्त के दफ्तर से उसने ‘आदिधर्मी’ होने का प्रमाण पत्र हासिल कर अपने आप को अनुसूचित जाति के तौर पर पेश किया था.
प्रस्तुत मामले में भी 17 साल से अधिक वक़्त चले मुक़दमे के बाद ही फैसला सामने आया था. इतना ही नहीं अनुसूचित जाति जनजाति कमीशन की रिपोर्टों का सवाल है, (ध्यान रहे पहले दोनों अनुसूचित तबकों के लिए एक ही आयोग था, जो अब अलग-अलग हो गया है) वह जाति संबंधी ‘झूठे प्रमाण पत्रों की’ समस्या पर बार-बार रोशनी डालती रही हैं.
इसकी दो रिपोर्टों में तो इस पर एक अलग अध्याय भी जोड़ा गया था. इसमें उल्लेख किया गया था कि झूठे प्रमाण पत्रों की समस्या के व्यापक प्रसार से चिंतित होकर कमीशन ने वर्ष 1996 में कई राज्यों में विशेष तथ्य संग्रह किया था.
तमिलनाडु में 12 केंद्रीय संगठनों की ऐसी जांच में यह पाया गया कि वहां पर अनुसूचित जनजाति का झूठा प्रमाण पत्र जमा करके 338 लोगों ने नौकरियां पायी हैं.
कमीशन की सख्त कार्रवाई के बावजूद इनमें से सिर्फ छह लोगों को ‘काफी विलम्ब’ के बाद नौकरी से बर्ख़ास्त किया गया. बाकी तमाम लोगों ने अपनी बर्ख़ास्तगी को रोकने के लिए स्थानीय अदालतों की शरण ली तथा अपने लिए स्थगनादेश हासिल किया.
इसी संदर्भ में ओडिशा के सवर्ण ‘डोरा’ जाति से संबद्ध लोगों के रातोंरात ‘कोण्डाडोरा’ नामक अनुसूचित जनजाति में रूपांतरण और इसी आधार पर सूबे की नौकरशाही तक उनकी बढ़ती पहुंच किसी को मशहूर यूरोपीय उपन्यासकार काफ्का के ‘मेटामार्फोसिस’ की याद दिला सकती है.
कोई यह जानने के लिए बेचैन हो सकता है कि ऐसा कैसे मुमकिन हो सकता है? निश्चित ही इसे मुमकिन बनाना हो तो एक अदद जाति प्रमाण पत्र की आवश्यकता होती है.
अनुसूचित जाति-जनजाति के कल्याण के लिए संसद की स्थायी समिति की 29वीं रिपोर्ट ने इसी हक़ीक़त को रेखांकित किया था.
रतिलाल कालिदास वर्मा की अगुआई में कायम प्रस्तुत कमेटी ने इन प्रमाण पत्रों को जारी करने में बरती जा रही गंभीर ख़ामियों पर चिंता ज़ाहिर की थी.
कमेटी का यह भी कहना था कि ऐसे फर्ज़ी दलितों या नकली आदिवासियों ने आईएएस जैसे शीर्ष पदों पर भी कब्ज़ा जमाया है. उसके मुताबिक, ‘इस वजह से अनुसूचित जाति और जनजाति के वास्तविक हक़दारों को रोज़गार, शिक्षण संस्थानों और सरकारी योजनाओं में वाज़िब हक़ नहीं मिल रहा है. यह सीधे-सीधे अपराध है.’
प्रश्न उठता है कि इस मसले पर न्यायपालिका, कार्यपालिका के सचेत होने के बावजूद यह सिलसिला अभी तक बेधड़क क्यों चल रहा है?
जहां संविधानप्रदत्त अधिकारों के तहत पैदा किए गए अवसरों पर नकली आदिवासी और फर्ज़ी दलित आदिवासियों को बिठाने के लिए फर्ज़ी जाति प्रमाण पत्रों की परिघटना सर्वव्यापी हो गई दिखती है, जिसमें व्यक्तिगत पहल अधिक नज़र आती है, वहीं हाल के समय में ऐसे तमाम मामले सामने आए हैं, जिसमें संस्थागत तौर पर इसे अंजाम दिया जाता दिखता है.
इसके तहत शिक्षा संस्थान अनुसूचित तबकों के छात्रों की सहायता के लिए सरकार की योजनाओं का लाभ उठाने के लिए ऐसे छात्रों की फर्ज़ी सूची जमा करते हैं और सरकार की तरफ से मिलने वाली राशि सीधी हड़प लेते दिखते हैं, जिसके लिए उन्होंने फर्ज़ी खाते भी खोले हैं.
पिछले साल सहारनपुर पुलिस ने समाज कल्याण विभाग द्वारा दायर शिकायत का संज्ञान लेते हुए 32 प्राइवेट कालेजों के ख़िलाफ़ प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर की.
समाज कल्याण विभाग के मुताबिक इन कालेजों ने अनुसूचित जाति की श्रेणी के विद्यार्थियों के नाम पर दी जा रही 125 करोड रुपये की स्कॉलरशिप हड़प ली (टाइम्स आॅफ इंडिया, 25 जून 2016).
इस घोटाले की व्यापकता इतनी बड़ी थी कि कुछ कॉलेजों ने उनके सभी छात्रों को अनुसूचित श्रेणी का घोषित किया था. गौरतलब है कि जांच टीम ने ऐसे 13 कॉलेजों की पहचान भी की जिन्होंने अपने विद्यार्थियों को नकली मार्कशीट के आधार पर प्रवेश दिया था.
इस कांड के खुलासे के कुछ वक़्त पहले पता चला था कि केंद्र सरकार की तरफ से अनुसूचित तबकों के छात्रों के लिए जो स्कॉलरशिप और अन्य सुविधाएं मिलती हैं उसका लगभग आधा हिस्सा धोखाधड़ी व फरेब के ज़रिये शिक्षा संस्थानों के माफिया सरकार में तैनात अधिकारियों की मिलीभगत से हड़प लेते हैं (डीएनए, 7 मई 2016).
केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप और फ्रीशिप योजनाओं में अनियमितताओं को लेकर एक स्पेशल टास्क फोर्स द्वारा चल रही जांच में – जिसे अतिरिक्त डायरेक्टर जनरल आॅफ पुलिस की अगुआई में संचालित किया गया था- जिसका फोकस सूबा महाराष्ट्र था, यही बात उजागर हुई थी.
गौरतलब है कि जांच में पता चला कि कई कॉलेजों ने न केवल फर्ज़ी छात्र प्रस्तुत किए बल्कि कई बार बढ़े हुए दर से बिल भी पेश किए और पैसे बटोरे गए.
इस संदर्भ में बुलढाना और नंदुरबार ज़िले के दो दर्जन से अधिक प्राइवेट कॉलेजों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की भी सिफारिश टास्क फोर्स ने की.
इतना ही नहीं अनुसूचित तबकों के छात्रों को दी जा रही छात्रवृत्ति को जारी करने में देरी के ज़रिये भी छात्रों के भविष्य को खतरे में डाला जा सकता गया है.
राज्यसभा में शून्यकाल में इसी मसले को पंजाब के (बसपा) सांसद ने उठाकर सदन का ध्यान इसकी तरफ खींचने की कोशिश की थी.
उनका कहना था कि संविधान के अंतर्गत अनुसूचित तबकों को दिए गए आरक्षण के बावजूद समय पर छात्रवृत्ति न मिलने से इन तबकों के विद्यार्थियों की पढ़ाई बाधित होती है.
यहां तक कि समय पर जाति प्रमाण पत्र जारी न करके भी दलित-आदिवासी अधिकारों पर कुठाराघात करने की कोशिश चलती रहती है.
पांच साल पहले महाराष्ट्र के समाज कल्याण महकमे के कर्मचारियों की आपराधिक लापरवाही के चलते नागपुर क्षेत्र में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ी वर्ग से आने वाले दस हज़ार से अधिक छात्र अपने पसंद के प्रोफेशनल पाठयक्रमों में प्रवेश नहीं ले सके थेे? (टाइम्स आॅफ इंडिया, 22 जून 2012, गवर्मेंट एपथी मे डिप्राइव एससी एसटी स्टुडेंट्स आॅफ कॉलेज एडमिशंस) और शासकीय कालेजों में उनके प्रवेश को महज़ इसी वजह से रोका गया था क्योंकि उनके पास जाति वैधता प्रमाण पत्र नहीं थे, जबकि इस संबंध में इन तमाम छात्रों ने साल भर पहले ही आवेदन पत्रा जमा किए थे?
ग्राहकों के हक़ों के संरक्षण के लिए संघर्षरत एक कार्यकर्ता के मुताबिक इसके पीछे निजी इंजीनियरिंग-मेडिकल कॉलेजों की समाज कल्याण विभाग के साथ मिलीभगत भी दिखाई दी थी.
ज़ाहिर था कि आरक्षित तबके के इन छात्रों को जाति वैधता प्रमाण पत्र समय पर नहीं मिलने से कइयों को खुली श्रेणी में प्रवेश लेना पड़ा और फिर निजी कॉलेजों ने उनसे भारी फीस वसूली थी.
छात्रवृत्ति का गबन हो, उसे जारी करने में की जाने वाली देरी हो या जाति प्रमाण पत्रों के जारी करने में की जाने वाली देरी हो या फर्ज़ी जाति प्रमाण पत्रों की विकराल होती परिघटना हो, इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि संविधान में प्रदत्त तमाम अधिकारों के बावजूद या सदियों से सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित रहे तबकों के लिए अपनायी जाने वाली सकारात्मक विभेद की योजनाओं के बावजूद वंचित तबकों से आने वाले लोगों के साथ आज भी विभिन्न स्तरों पर छल जारी है.
आज़ादी की 70वीं सालगिरह हम लोगों ने हाल में ही मनाई. आख़िर और कितने स्वतंत्रता दिवसों का हमें इंतज़ार करना पड़ेगा ताकि संविधान की मूल भावना के अनुरूप सभी के साथ समान सलूक हो सके और दलित-आदिवासियों को भेदभाव से आज़ादी मिल सके.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं)