आप शंकराचार्यों की बेअसर पड़ चुकी पीठों पर काबिज़ होने के बजाय ज्ञान, विचार और सत्ता की नई पीठों की रचना के लिए क्यों नहीं आवाज़ उठाते, लालू जी!
हाल ही में बिहार में सत्तारूढ़ गठबंधन के प्रमुख घटक राष्ट्रीय जनता दल का राजगीर में एक प्रशिक्षण शिविर संपन्न हुआ. इसमें बहुत सारे नेताओं और गैर-पार्टी बुद्धिजीवियों के भी भाषण हुए पर जैसा तयशुदा था, पार्टी के अंदर और बाहर सर्वाधिक चर्चा राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद के एक ख़ास बयान की हो रही है.
उन्होंने नब्बे के दशक की अपनी दिलक़श जुमलेबाजी को नई रंगत देने की कोशिश करते हुए कहा, ‘शंकराचार्य के पदों पर भी दलित-पिछड़ों को आरक्षण मिले.’ बिहार में कई पुराने समाजवादियों और पिछड़े वर्ग के अनेक बुद्धिजीवियों को भी लालू जी के इस बयान पर अचरज हुआ.
कई लोग सवाल भी उठा रहे हैं, आख़िर लालू प्रसाद को ये क्या हो गया है? वह उच्च न्यायपालिका, प्रोफेसर-एसोसिएट प्रोफेसर जैसे महत्वपूर्ण शैक्षणिक पदों, पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग सेवाएं, खेतीबाड़ी, उद्योग और संपूर्ण निजी क्षेत्र में दलित-बहुजन की हिस्सेदारी बढ़ाने की आवाज़ उठाने की बजाय अब शंकराचार्य की चारेक सीटों पर आरक्षण की बात क्यों कर रहे हैं!
वह भी तब, जबकि बहुजन समाज के अनेक बड़े विचारकों ने शंकराचार्य नामधारी संस्था को प्राचीन भारत में बौद्धों व बहुजनों की राजनीतिक-बौद्धिक-धार्मिक शक्ति को येन-केन प्रकारेण नष्ट कर ‘ब्राह्मणवादी-हिंदू धारा’ को पुनर्स्थापित करने का बड़ा ज़रिया समझते आ रहे हैं.
इस बारे में न सिर्फ डॉ. बीआर आंबेडकर, अपितु अनेक मार्क्सवादी और सबाल्टर्न परिप्रेक्ष्य से प्रभावित इतिहासकारों ने भी काफी कुछ लिखा है. ऐसे में ‘ब्राह्मणवाद’ की ऐसी पतनशील ‘पीठों’ को सिरे से ख़ारिज करना चाहिए न कि भाग्यवाद, नियतिवाद के पैरोकार ऐसे प्रतिष्ठानों के ज़रिये विवेक-विरोधी धर्मांधता की कर्मनाशा में डुबकी लगाने या उनमें दलित-पिछड़ों की हिस्सेदारी मांगने की बात करनी चाहिए?
बिहार के राजनीतिक विचारक और लेखक प्रेम कुमार मणि ने लालू प्रसाद के इस मंतव्य को सिरे से ख़ारिज करते हुए कहा, ‘इस तरह की मांग या अपेक्षा सामाजिक न्याय की धारणा और विचार के ठीक उलट है. दलित-पिछड़ों की शासन, निजी क्षेत्र की सेवाओं और अन्य संस्थानों में हिस्सेदारी बढ़ाने की ज़रूरत है न कि पतनशील ब्राह्मणवादी संस्थाओं को वैध, प्रामाणिक और विश्वसनीय बनाने वाली ऐसी ऊंटपटांग मांग करने की.’
मणि की बात में दम है. इस वक़्त भी लालू बिहार की सत्ता के केंद्र में हैं. बिहार में दलित-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों के बीच योग्य और समर्थ लोगों की कमी नहीं है.
पर कितने शासकीय उपक्रमों के प्रमुख इन समुदायों से हैं? कितने विश्वविद्यालयों में कुलपति या प्रोफेसर सबाल्टर्न समाजों से हैं? इन सवालों से मुंह मोड़कर लालू प्रसाद एक प्रतीकात्मक धार्मिक पीठ की तरफ क्यों मुड़ रहे हैं?
क्या आज की तारीख़ में स्वामी रामदेव जैसे कॉरपोरेट स्वामी और श्रीश्री रविशंकर जैसे ‘महाज्ञानी’ किसी भी शंकराचार्य से ज्यादा प्रभावकारी स्वामी या आचार्य नहीं हैं?
मैं किसी धर्म या किसी पीठ का निजी तौर पर विरोधी नहीं करता. पर धर्मांधता, कट्टरता और ‘धर्म के किसी निहित स्वार्थ या किसी राजनीतिक हथकंडे’ के तौर पर इस्तेमाल के विरुद्ध हूं.
राज्य और धर्म के अलगाव पर ही टिका है एक विशुद्ध आधुनिक राज्य और सेक्युलर विधान का ढांचा. मैं धार्मिक संस्थाओं के लोकतांत्रीकरण का पक्षधर हूं.
उन्हें किसी एक खानदानी मठाधीश (और यह बात राजनीति के लिए भी प्रासंगिक है) या किसी एक बिरादरी के ही लोगों के आधिपत्य में बरक़रार रखना नाजायज़ है और इस पर सवाल उठना चाहिए.
ऐसी तमाम संस्थाओं को एक ‘लोकतांत्रिक पब्लिक न्यास’ के तौर पर संचालित किया जाना चाहिए. पर एक समय के मुखर ‘सामाजिक न्यायवादी’ लालू प्रसाद इन वृहत्तर सवालों को नहीं उठा रहे हैं. वह सिर्फ शंकराचार्य के पद पर आरक्षण की बात कर रहे हैं!
राजकीय और निजी क्षेत्र के असंख्य प्रतिष्ठानों में सकारात्मक कारवाई (आरक्षण सहित) के लिए अगर वह पहले जैसी सक्रियता और जोशख़रोश दिखाते तो बात समझ में आती!
आख़िर लालू प्रसाद और उनके समर्थक बहुजन समाज को शंकराचार्य बनने का सपना क्यों दिखा रहे हैं? वे उन्हें फेसबुक, गूगल, टिस्को, टीसीएस, आईटीसी, विप्रो, बीएचईएल, ओएनजीसी, इसरो या एसबीआई आदि के शीर्ष पदों का सपना क्यों नहीं दिखा रहे हैं?
उन्हें कुलपति, प्रोफेसर, शोधकर्ता, खिलाड़ी, न्यायविद्, कलाकार, लेखक, संपादक और वैज्ञानिक बनने का मार्ग क्यों नहीं प्रशस्त कर रहे हैं? आज फिर उनके पास सत्ता है.
उनके दो-दो पुत्र राज्य की नीतीश सरकार में (सबसे कनिष्ठ होते हुए भी) सबसे वरिष्ठ मंत्री हैं. एक तो बाक़ायदा उपमुख्यमंत्री हैं? आख़िर लालू प्रसाद आज के दौर में ऐसी बातें क्यों कह रहे हैं?
इस बारे में बिहार के वरिष्ठ पत्रकार और दिवंगत कर्पूरी ठाकुर जैसे समाजवादी नेता के सहयोगी रहे सुरेंद्र किशोर का कहना था, ‘लालू जी जब कभी संकट में घिरते हैं, उन्हें ऐसी जुमलेबाजी में बचाव का रास्ता दिखता है. आज कल फिर से उनके परिवार पर गंभीर आरोप लग रहे हैं. राजनीतिक-प्रशासनिक स्तर पर उनका दल कुछ नया नहीं कर पा रहा है. इसलिए पिछड़ों को अपने साथ बनाए रखने के लिए उन्हें ऐसी जुमलेबाजी करनी पड़ रही है. क्या उनको नहीं मालूम कि यह बेमतलब सी मांग है, इससे किसी का भला नहीं हो सकता.’
कोई भी यह सवाल पूछना चाहेगा कि लगभग दो दशक तक बिहार के सत्ता संचालक रहे लालू प्रसाद ने यहां लंबित भूमि सुधार, शिक्षा सुधार, औद्योगिक विकास और स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के लिए क्या-क्या और कितना किया?
यह बात मैं मानता हूं कि लालू प्रसाद के शुरुआती सत्ता-दौर में दलित-पिछड़ों को वह सामाजिक हैसियत और सम्मान मिलना शुरू हुआ, जिसके लिए वह सदियों से हक़दार थे. दलित-पिछड़ों पर सवर्ण भूस्वामी गिरोहों या निजी सेनाओं के हमले तकरीबन जारी रहे पर कांग्रेसी शासन के दौर के मुक़ाबले ऐसे ज़्यादातर मामलों में लालू प्रसाद का रवैया गरीब-पक्षी रहा.
संभवतः उनकी सामाजिक नीति और सोच का ही परिणाम था कि बाद के दिनों में ऐसे भूस्वामी गिरोहों की सत्ता कमजोर होती दिखी. लेकिन लालू प्रसाद इस मामले में भी बिल्कुल बेदाग़ नहीं कहे जा सकते.
सीवान-गोपालगंज क्षेत्र में शहाबुद्दीन जैसे सामंती-आपराधिक चरित्र (जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर हत्याकांड जैसे दर्जनों आपराधिक मामलों का आरोपी, जिनमें कुछ के आरोप साबित भी हो चुके हैं) को उन्होंने हमेशा संरक्षण दिया.
गया-जहानाबाद इलाके में सुरेंद्र यादव जैसे दबंग की उन्होंने क़दम-क़दम पर मदद की. ऐसे कई और उदाहरण ढूंढें जा सकते हैं. लालू चाहते तो बिहार को वाकई बदल सकते थे.
उनके पास साल 1990 से लेकर 2000 के बीच अपार समर्थन था. वह एक महानायक बनकर उभरे थे. लेकिन उन्होंने बिहार को सामाजिक-आर्थिक रूप से बदलने की कोशिश करने के बजाय जुमलों और जातियों की राजनीति पर ज़्यादा ज़ोर दिया.
दलित-पिछड़ों के लिए बड़े काम करने के बजाय अपने परिवार को बिहार की सत्ता-राजनीति के केंद्र में लाने में जुटे रहे. सामाजिक न्याय के कई ठोस सवालों पर भी वह कुछ ख़ास नहीं करते दिखे.
उदाहरण के तौर पर राज्य न्यायिक सेवा में आरक्षण के प्रावधानों के क्रियान्वयन की अधिसूचना पिछले दिनों नीतीश की मौजूदा सरकार ने जारी की. अपने डेढ़ दशक के एकछत्र-राज (स्वयं या उनकी धर्मपत्नी राबड़ी देवी) में लालू इस पर फैसला नहीं ले सके.
बिहार जैसे राज्य में पंचायत और सेवाओं में महिलाओं के आरक्षण का सवाल सामाजिक न्याय ही नहीं, राज्य को आधुनिकता की तरफ ले जाने का एक बड़ा क़दम माना जाएगा. लेकिन यह काम भी नीतीश के कार्यकाल में हुआ.
हां, यह बात सही है कि लंबित भूमि सुधारों के सवाल पर लालू-नीतीश दोनों ‘भाई-भाई’ साबित हुए. नीतीश की अगवाई वाले जद-यू-भाजपा गठबंधन की सरकार ने भूमि सुधार के लंबित काम को आगे बढ़ाने के लिए एक आयोग बनाया था- बंदोपाध्याय आयोग.
हालांकि दबंग भूस्वामी पृष्ठभूमि से आने वाले भाजपा और जद-यू नेताओं के दबाव में आकर नीतीश ने बंदोपाध्याय आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया. जबकि बंदोपाध्याय आयोग किसी तरह के मुक़म्मल भूमि सुधार को अंजाम देने के लिए नहीं बना था. उसका दायरा अपेक्षाकृत सीमित था. पर वह भी नहीं होने दिया गया.
क्या लालू प्रसाद ने तब मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर कोई आवाज़ उठाई? किसी तरह का आंदोलन-अभियान चलाया? बिहार जैसे राज्य में आज भी कई जिलों में 200 से 2000 एकड़ ज़मीन के मालिक बड़े भूस्वामी मौजूद हैं. यह सरकार की अपनी अधिकृत रिपोर्ट का तथ्यात्मक आकलन है.
ऐसे बड़े सवालों से घिरे बिहार में सामाजिक न्याय आंदोलन के पैरोकार लालू जैसे किसी बड़े क़द के नेता को ‘शंकराचार्य’ की ‘कुर्सी’ और ‘दंड’ पर किसी एक दलित-पिछड़े समुदाय के व्यक्ति को बिठाने की ये फालतू शिगूफेबाजी तत्काल बंद करनी चाहिए!
बिहार एक पिछड़ा राज्य ज़रूर है पर सामाजिक-वैचारिकी के मामले में वह बेहद समुन्नत रहा है और आज भी है. यहां के समतावादी और सामाजिक न्याय आंदोलन में आज भी फुले, पेरियार, आंबेडकर, सांकृत्यायन, लोहिया, अब्दुल कय्यूम अंसारी, मंडल, मालाकार, रेणु, नागार्जुन, जगदेव प्रसाद और महेंद्र सिंह जैसे असंख्य नायकों की विरासत पर गर्व करने वालों की कमी नहीं है. पर लालू जी इस महान विरासत को आगे बढ़ाने के बजाय इसे शंकराचार्य की ‘प्रतीकात्मक गद्दी’ की तरफ भटकाने की कोशिश करते नज़र आ रहे हैं.
यह बात समझ से परे है कि वह किसी एक दलित या पिछड़े को शंकराचार्य की गद्दी पर बिठाकर, कई दशकों तक दलितों-पिछड़ों के बीच अज्ञान, अंधविश्वास, धर्मांधता और हिंदुत्व के प्रति लगाव बढ़ाने जैसा घोर सामाजिक न्याय विरोधी काम क्यों करना चाहते हैं?
शंकराचार्य की गद्दी जिनके पास है, उनके पास रहने दीजिए, आप बिहार के तमाम मठों-मंदिरों और अन्य धार्मिक प्रतिष्ठानों के लोकतांत्रीकरण के लिए विधेयक लाइए. उनके अधीनस्थ हजारों एकड़ खेतिहर ज़मीन का गरीबों और भूमिहीन किसानों में वितरण कराइए.
उनके प्रशासन और संचालन का हक सार्वजनिक न्यासों को दीजिए, जिसमें किसी जाति-विशेष का वर्चस्व न हो. जद-यू-राजद-कांग्रेस गठबंधन को सरकार पर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, औद्योगिक विकास, भूमि सुधार के अधूरे कामकाज को आगे बढ़ाने और सरकारी व निजी क्षेत्र की सेवाओं में दलित-पिछड़ों की वाजिब भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिए दबाव बनाना चाहिए.
यही रास्ता बिहार को ‘भगवा-बयार’ की भावी आशंका से बचा सकती है, शंकराचार्य की गद्दी के नाम पर की जा रही सस्ती सियासत का रास्ता नहीं! आज शंकराचार्यों की पीठ का क्या और कितना सामाजिक-राजनीतिक असर है? आप बेअसर पड़ी इन पीठों पर काबिज़ होने के बजाय ज्ञान, विचार और सत्ता की नई पीठों की रचना के लिए क्यों नहीं आवाज उठाते, लालू जी!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)