विशेष रिपोर्ट: कुंभ के लिए बंद किए गए कानपुर के चमड़ा कारख़ाने इसके ख़त्म होने के तकरीबन डेढ़ महीने बाद भी शुरू नहीं हो सके हैं. आरोप लग रहे हैं कि इन्हें निशाना बनाए जाने की वजह ज़्यादातर कारख़ाना मालिकों का मुस्लिम होना है.
कानपुर: साठ साल के नैयर जमाल हर दिन अपने चमड़ा कारखाने (टैनरी) में जाते हैं. उन्हें यह कारखाना 1981 में अपने पिता से विरासत में मिला था. जमाल के पास एक अलमारी में कानपुर के चमड़ा उद्योग के इतिहास से जुड़ी किताबें भरी हुई हैं, जिन्हें वे समय-समय पर पलटते रहते हैं.
दूसरे समयों में उनके दोस्त और जाजमऊ के दूसरे कारखाना मालिक चाय पीने के लिए वहां जमा होते हैं. पिछले चार महीनों वे सब बेकार बैठे हुए हैं. बीते साल के आखिरी महीनों में उत्तर प्रदेश सरकार ने कुंभ मेले के दौरान गंगा नदी को साफ रखने के नाम पर 300 चमड़ा कारखानों को 15 दिसंबर से 15 मार्च तक तीन महीनों के लिए बंद करने का आदेश दिया था.
अब कुंभ ख़त्म हुए भी डेढ़ महीने के करीब समय बीत चुका है, लेकिन ये कारखाने अब तक बंद हैं. द वायर ने बीते मार्च में जिन कारखाना मालिकों से बात की, उनका कहना था कि कानपुर और बांथर के कारखानों को पूरी तरह से बंद करने का आदेश दिया गया, जबकि उन्नाव में कारखानों को आंशिक क्षमता पर काम करने की इजाजत दी गई थी.
यूपी चमड़ा उद्योग संघ के अध्यक्ष ताज आलम बताते हैं, ‘पिछली सरकारों के दौरान कारखाना मालिक कुंभ के हर नहान से तीन दिन पहले स्वैच्छिक तरीके से काम रोक देते थे क्योंकि पानी को यहां से इलाहाबाद पहुंचने में तीन दिन का वक्त लगता है. ऐसा इस तथ्य के बावजूद किया जाता था कि यह पहले ही ट्रीटेड (साफ किया गया) पानी होता है. जबकि गंगा के किनारे बसे सैकड़ों शहर ऐसे हैं जो कुंभ के दौरान भी बिना ट्रीट किया सीवेज का पानी धड़ल्ले से नदी में छोड़ते हैं.’
लेकिन इस साल सरकार के आदेश ने चमड़ा कारखानों को वीरान कर दिया है और सीलबंद मशीनें किसी जमाने में एक फल-फूल रहे एक उद्योग के पतन की गवाही देती है.
जमाल के कारखाने में रखे कच्चे चमड़े का बड़ा ढेर अब सड़ने लगा हैं. जमाल कहते हैं, ‘अब तो ऐसा है कि ये एक कब्रिस्तान है और कब्रिस्तान में मुर्दे लेटे हैं.’
अस्थायी बंद, स्थायी नुकसान
स्मॉल टैनर्स एसोसिएशन के पूर्व महासचिव जमाल का कहना है कि कारखाने नवंबर महीने में बंद होना शुरू हो गए थे. तब से लेकर अब तक उन्हें 15 लाख रुपये का नुकसान हुआ है.
जमाल बताते हैं, ‘हमारी विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा को काफी चोट पहुंची है. हमने अपने कई सारे पुराने ग्राहक गंवा दिए हैं. विदेशों के हमारे कई ग्राहकों ने पाकिस्तान, बांग्लादेश और ब्राजील का रुख कर लिया है. इस दौर की भरपाई करने में हमें काफी वक्त लगेगा. जब मेरे जैसे एक छोटे कारखाना मालिक को हुआ नुकसान लाखों में है, तो जाहिर है बड़े कारखानों को अब तक करोड़ों का नुकसान हो चुका होगा.’
जावेद इक़बाल वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के अधीन आनेवाले काउंसिल फॉर लेदर एक्सपोर्ट के क्षेत्रीय अध्यक्ष हैं. पिछले कुछ महीनों में चमड़ा उद्योग को हुए अनुमानित नुकसान के सवाल पर इक़बाल ने कहते हैं, ‘हमारे पास अभी तक पक्का आंकड़ा नहीं है. हमारे पास यह आंकड़ा कुछ समय में आएगा.’
कानपुर ब्रिटिश काल में टैनिंग (पशुओं की खाल से चमड़ा बनाना) और चमड़े के सामानों के उत्पादन के केंद्र के तौर पर उभरा, जब ब्रिटिश घुड़सवारों के दस्तों के लिए जूतों, घोड़ों की जीन और अन्य सामानों की मांग बढ़ी.
हाल के समय में चमड़े के सामानों की बढ़ती मांग ने इस उद्योग को बढ़ावा देने का काम किया, जिसका नतीजा और ज्यादा चमड़ा कारखाने खुलने के तौर पर निकला. बांथर में 27 के करीब चमड़ा कारखाने हैं, जबकि उन्नाव में 17. कानपुर में 400 से ज्यादा चमड़ा कारखाने हैं, जिनमें से 256 में काम होता हैं. जानवरों की खाल का ज्यादातर हिस्सा भैंसों से आता है.
क्या सिर्फ चमड़ा कारखानों को निशाना बनाया जा रहा है?
चमड़ा कारखानों की गिनती काफी प्रदूषण फैलानेवाले उद्योगों में होती है क्योंकि इस काम में रासायनिक अपशिष्ट को पानी में छोड़ते हैं, जो गंगा में जाकर मिलता है.
लेकिन 2013 में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के एक अध्ययन में यह पाया गया कि कुल अपशिष्ट जल में चमड़ा कारखानों का हिस्सा महज 8 फीसदी है, लेकिन कानपुर क्षेत्र में यह काफी जहरीला और गाढ़ा है, जबकि चीनी, लुग्दी और कागज और डिस्टिलरी प्लांट जैसे उद्योगों का अपशिष्ट जल में 70 फीसदी तक का योगदान है.
आलम सवाल करते हैं, ‘केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के हिसाब से सिर्फ चमड़ा कारखाने ही सबसे ज्यादा प्रदूषक उद्योगों के अंतर्गत नहीं आते हैं, तब सिर्फ हमें ही निशाना क्यों बनाया जा रहा है?’
जाजमऊ में एक बड़े चमड़ा कारखाने के मालिक और जाजमऊ टैनरी एफ्लुएंट ट्रीटमेंट एसोसिएशन के निदेशक अशरफ़ रिज़वान इशारों में यह कहते हैं कि इन इकाइयों को निशाना इसलिए बनाया जा रहा है, क्योंकि इनमें से ज्यादातर के मालिक मुस्लिम हैं. वे कहते हैं, ‘इस सबके पीछे राजनीतिक उद्देश्य हैं.’
जमाल इसके लिए लालफीताशाही को जिम्मेदार ठहराते हैं. वे जोड़ते हैं हालांकि ज्यादातर मालिक मुस्लिम हैं, लेकिन इन कारखानों में काम करनेवाले ज्यादातर मजदूर दलित और अनुसूचित जतियों से संबंध रखनेवाले दूसरे लोग हैं.
जब उनसे यह पूछा कि क्या यही तो इस उद्योग को ‘निशाना बनाने’ की एक वजह तो नहीं, उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.
‘यहां कर्फ्यू जैसा आलम है’
बड़े कारखानों में 100 से 300 श्रमिक काम करते हैं. ये सब नियमित वेतनकर्मी होते हैं. शरीफ और जमाल जैसे लोगों के कारखाने थोड़े से स्थायी कर्मचारियों और दिहाड़ी मजदूरों के बल चलती हैं, जो मशीनों को चलाने के लिए रोज 500-600 रुपए की मजदूरी पर काम करते हैं.
कारखानों की तालाबंदी के बाद से हजारों दिहाड़ी मजदूर अपने गांवों को लौट गए हैं. जाजमऊ टैनर्स एसोसिएशन के दफ्तर में चपरासी के तौर पर काम करने वाले शब्बीर अहमद ने बताया, ‘बहुत बड़ी संख्या में लोगों को अपनी रोजी-रोटी गंवानी पड़ी है. उनके पास कोई विकल्प नहीं रह गया था.’
उन्होंने आगे जोड़ा, ‘कई लोग अपने घरों को लौट गए हैं और बचे हुए लोग दो जून की रोटी जुटाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. इस आदेश ने (कारखानों को बंद करके के) इस उद्योग को करीब-करीब नष्ट कर दिया है. इस सड़क पर कितनी चहल-पहल रहा करती थी, लेकिन अब ऐसा लगता है कि यहां कर्फ्यू लगा हुआ है.’
कारखानों के नजदीक होने के कारण जो दूसरे रोजगार पैदा हुए थे, उनको भी धक्का लगा है. उम्र के पांचवें दशक में आ चुकीं राम रानी जाजमऊ रोड पर चाय बेचकर अपना गुजारा करती हैं. उन्होंने बताया, ‘मैं रोजाना 1000 रुपए तक कमा लेती थी क्योंकि सभी मजदूर यहां चाय पीने के लिए आया करते थे.’
उनके पीछे वह मेज रखी थी, जिस मेज पर उनकी दुकान सजा करती थी, वहां उनका किशोर बेटा अनमना-सा बैठा हुआ था. उन्होंने कहा, ‘अब रोज 200 रुपए कमाना भी मुश्किल है. पूरा दिन ग्राहकों का इंतजार करते हुए गुजर जाता है.’
पचास वर्षीय फय्याज अहमद को भी ज्यादातर दिन कोई काम नहीं मिलता. वे तांगे पर भैंस की खाल पहुंचाकर अपना गुजारा करते थे. अहमद ने द वायर को बताया, ‘पिछले कुछ महीनों में मुझे शायद ही कोई काम मिला है. सिर्फ मुझे पता है कि मेरी क्या हालत है.’
27 साल के इरफान चमड़े के स्क्रैप (रद्दी टुकड़ियां) के डीलर हैं. उनका काम कारखानों से चमड़े की रद्दी टुकड़ियां खरीदकर उन्हें चमड़े का उत्पाद बनानेवाली फैक्टरियों को बेचने का है.
वे कहते हैं, ‘बीते चार महीनों से मैं इस उम्मीद से यहां के चक्कर लगा रहा हूं यहां काम फिर से शुरू होगा. कभी-कभी तो मेरे पास अपनी बाइक में पेट्रोल भराने का भी पैसा नहीं होता है. मैं बिजली बिल या अपने बच्चों की स्कूल फीस भरने की भी स्थिति में नहीं हूं.’
मौजूद थे तालाबंदी से बेहतर विकल्प
बंदी के कारण कानपुर के चमड़े के व्यापार की आपूर्ति श्रृंखला पर चोट पहुंची है, कई रिपोर्ट्स बताती हैं कि इसके कारण चमड़ा कारखानों के मालिकों द्वारा पश्चिम बंगाल जाने के विचार की ओर संकेत किया गया है, जहां राज्य सरकार चमड़ा कारखाने स्थापित करने के लिए मदद और जमीन मुहैया कराती है.
शरीफ ने बताया, ‘पूरे कारखाने को दूसरे राज्य में लेकर जाना और वहां नई शुरुआत करना आसान नहीं है, लेकिन अगर यहां हालात में सुधार नहीं होता है, तो हमें यहां से जाना होगा.’
वे मशीनों को लेकर भी चिंतित हैं. वे बताते हैं, ‘कसाईखानों से मिले कच्चे चमड़े को प्रोसेस करने के लिए हम मशीन के तौर पर जिन गोलाकार ड्रम बैरल्स का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें सही तरीके से काम करने के लिए लगातार चलते रहने और पानी की जरूरत होती है. इस बंदी ने मशीनों पर भी असर डाला है. हमें हो रहे नुकसानों के अलावा हमें इन मशीनों की मरम्मत पर भी काफी पैसे खर्च करने पड़ेंगे.’
आलम के मुताबिक चमड़ा उद्योग हर महीने 4,000 करोड़ रुपये से ज्यादा का कारोबार करता है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय निर्यात भी शामिल है. वे कहते हैं, ‘यह उद्योग प्रधानमंत्री के मेक इन इंडिया योजना में भी शामिल है. फिर इसे ही निशाना क्यों बनाया जा रहा है. हमें इस कार्यक्रम में शामिल किए गए दूसरे उद्योगों वाले लाभ क्यों नहीं मिल रहे हैं?’
चमड़ा उद्योग 1985 से ही समस्याओं का सामना कर रहा है, जब पर्यावरण कार्यकर्ता एमसी मेहता ने गंगा में बिना ट्रीट किए अपशिष्ट के बहाव को लेकर एक जनहित याचिका दायर की थी. उस समय चमड़ा कारखानों के लिए एक प्राथमिक ट्रीटमेंट प्लांट लगाना अनिवार्य कर दिया गया था.
प्राथमिक ट्रीटमेंट के बाद यह पानी एक कॉमन एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (सीईटीपी) में जाता है, जिसके बाद इसे नालों में छोड़ दिया जाता है, जहां से यह नदियों और सिंचाई की नहरों में मिल जाता है.
जमाल के मुताबिक कारखाना मालिकों ने सीईटीपी लगाने के कुल खर्च में 17.5 प्रतिशत का योगदान दिया था. हर कारखाना मालिक अब भी इसकी मासिक देखरेख की फीस भरता है.
रिज़वान ने द वायर को बताया, ‘हम (कारखाना मालिकों) ने एक परियोजना का प्रस्ताव दिया है, जिसमें सीईटीपी से छोड़ा गया पानी नदी में जाएगा ही नहीं. इसे सिंचाई नहरों में भेजा जाएगा, जहां किसान चाहे तो इसका इस्तेमाल कर सकते हैं. हमने पहले ही इस पर काम शुरू कर दिया है. यह समाधान चमड़ा कारखाना उद्योग को बचा सकता है.
चमड़ा कारखानों की बंदी आने वाले वक्त में समाप्त हो सकती है, लेकिन कारखाना मालिकों की परेशानियां जल्दी दूर होने वाली नहीं हैं. ज्यादातर मजदूर पलायन कर चुके हैं और मालिकों को नए मजदूरों की तलाश करने में वक्त लगेगा.
जिस तरह से केंद्र सरकार नमामि गंगे को आगे बढ़ा रही है, चमड़ा कारखाना मालिकों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. शरीफ और जमाल के मुताबिक अगली पीढ़ी चमड़ा कारखाने के कारोबार को अपनाना नहीं चाहती है.
जमाल कहते हैं, ‘मेरे बच्चों का कहना है कि यह काम काफी जटिल और मुश्किलों भरा है क्योंकि हम हमेशा दूसरे विभागों के आदेशों के तले पिसते रहते हैं, फिर चाहे वह केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हो, उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हो, राष्ट्रीय हरित ट्रिब्यूनल (एनजीटी) हो या जल निगम.’
यहां विरोध करने की गुंजाइश भी नहीं हैं. शरीफ कहते हैं, ‘जब हम सहयोग करने की कोशिश कर रहे हैं, तब हमें इतनी सारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, अगर हम अपने साथ किए जा रहे सलूक के खिलाफ आवाज उठाएंगे, तो पता नहीं क्या होगा.’
उत्तर प्रदेश जल निगम और उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को सवाल भेजे गए थे, लेकिन इस रिपोर्ट के प्रकाशन तक उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया.
मनीरा चौधरी एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.