2016 में सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में जांच की थी कि क्या किसी पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा यौन उत्पीड़न के आरोपों को ‘राजनीतिक साज़िश’ कहा जा सकता है.
यह लेख 2016 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुने गए एक मामले के संदर्भ में है. इसका शीर्ष अदालत में हाल में हुई घटनाओं से समानता मात्र एक संयोग है. न्यायालय की अवमानना या उस पर व्यंग्य करना लेखक का उद्देश्य बिल्कुल नहीं है.
1 अगस्त 2016 को बुलंदशहर में हुए एक बलात्कार के मामले के विषय में बोलते हुए समाजवादी पार्टी के नेता आज़म ख़ान ने यह कहा था कि यह संभव है कि विपक्षी विचारधारा वाले लोग आने वाले विधानसभा चुनाव से पूर्व सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी को बदनाम करने के लिए यह अपराध करवा रहे हैं.
उनके ऐसा कहने पर पीड़िता के परिवार ने सुप्रीम कोर्ट में संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने यह आरोप लगाया कि आज़म ख़ान ने पीड़िता पर हुए दुष्कर्म को राजनीतिक षड्यंत्र बताकर पीड़िता का अपमान किया है, साथ ही उसको और उसके परिवार वालों को झूठा कहा है.
हालांकि ऐसे मामले में अनुच्छेद 32 का उपयोग संदेहजनक है लेकिन जस्टिस दीपक मिश्रा के नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने इसका संज्ञान लिया और आज़म ख़ान को कारण बताओ नोटिस जारी किया. अदालत ने अनुच्छेद 32 को इस प्रकार मामले में ऐसे उचित पाया कि यौन शोषण सहने के बाद झूठा क़रार दिया जाना अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार का उल्लंघन है.
पीड़िता के पिता ने याचिका में कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री की प्रतिक्रिया को देखते हुए उन्हें अब यूपी पुलिस से निष्पक्ष जांच की उम्मीद नहीं है. उन्होंने कोर्ट से आज़म ख़ान के ख़िलाफ़ एफआईआर करने और मामले की जांच को दिल्ली ट्रांसफर करने की मांग की.
हालांकि आज़म ख़ान ने यह नहीं कहा था कि पीड़िता के साथ शोषण नहीं हुआ, बल्कि केवल यह कहा था कि विपक्षी राजनीतिक तत्व चुनाव के पूर्व सरकार को बदनाम करने के लिए प्रदेश में अपराध करवा रहे हैं, लेकिन कोर्ट ने बयान की रिकॉर्डिंग सुनने के बजाय, तथ्य की खोज किए बग़ैर आज़म ख़ान से बिना शर्त माफ़ी मांगने को कहा.
दो दिन तो केवल इस बात पर सुनवाई हुई कि जब न्यायालय ने आज़म ख़ान को बग़ैर शर्त माफ़ी मांगने का आदेश दिया था, तो क्या उनका अफसोस या पश्चाताप व्यक्त करना काफ़ी होगा.
आख़िरकार आज़म ख़ान के माफ़ीनामे को स्वीकार कर कोर्ट ने 15 अक्टूबर 2017 को मामला पांच न्यायाधीश वाली संवैधानिक खंडपीठ को संदर्भित कर दिया. हालांकि कोर्ट ने कुछ प्रश्न देकर खंडपीठ से इन पर ध्यान देने को कहा. ये प्रश्न थे-
(क) जब कोई पीड़ित बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, हत्या या ऐसे ही किसी संगीन अपराध के आरोप किसी व्यक्ति या समूह के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाती है, तब क्या किसी भी लोक अधिकारी, प्रशासनिक पद पर मौजूद व्यक्ति या शासकीय प्रभारी को इस अपराध को ‘राजनीतिक साज़िश’ करार देने की अनुमति होनी चाहिए? खासकर तब जब उसका व्यक्तिगत तौर पर इस अपराध ले कोई लेना-देना न हो?
(ख) क्या सरकार, जिस पर नागरिकों की सुरक्षा और कानून व्यवस्था संभालने की जिम्मेदारी है, को ऐसी टिप्पणी करने की अनुमति होनी चाहिए जिससे मामले की निष्पक्ष जांच, साथ ही साथ पूरी व्यवस्था को लेकर पीड़ित के मन में आशंका पैदा हो?
(ग) क्या ऐसी टिप्पणियां बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में आती हैं या फिर उसके लिए तय सीमा के बाहर हैं?
(घ) क्या ऐसी टिप्प्पणियां संवैधानिक सहानुभूति और संवैधानिक संवेदनशीलता के उलट हैं या नहीं?
अब केवल मान लेते हैं कि कोई महिला सुप्रीम कोर्ट के एक जज द्वारा यौन शोषण किए जाने की शिकायत करती है, तब इन प्रश्नों का क्या होगा? इस काल्पनिक (और अविश्वसनीय) परिस्थिति के संदर्भ में आज़म ख़ान के मामले में दिए गए सवालों को ज़रा फिर से पढ़िए-
(क) क्या किसी प्रशासनिक पद पर बैठा व्यक्ति (मान लेते हैं कि मुख्य न्यायाधीश) यह दावा करे कि यह एक राजनीतिक साजिश के चलते हो रहा है? क्या होगा अगर वे कहें कि ऐसा सीजेआई के दफ्तर को काम न करने देने के लिए है या ये कहें कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमला है, तो क्या यह उचित होगा?
(ख) क्या शिकायत को ‘अशोभनीय और निंदनीय आरोप’ कहना पीड़ित के मन में न्यायिक प्रक्रिया के प्रति अविश्वास पैदा नहीं करेगा, और अगर ऐसा है तब क्या आधिकारिक आदेश में ऐसा लिखने की अनुमति होनी चाहिए? क्या संस्थान के प्रतिनिधि, जो सरकार से भी जुड़े हों जैसे सेक्रेटरी जनरल, को बिना किसी तरह की उचित जांच के ऐसे आरोपों को झूठा और संस्थान की छवि धूमिल करने वाला बताते हुए कोई बयान जारी करने की अनुमति होनी चाहिए?
क्या होगा अगर अपने जवाब में संस्थान कहे कि उसे यह जिक्र करना बिल्कुल उचित लगता है कि ‘संबंधित व्यक्ति और उसका परिवार आपराधिक प्रवृत्ति के हैं? क्या हो जब पीड़िता के यौन शोषण के आरोपों की जांच से पहले इसकी जांच शुरू ही जाये कि इस ‘साजिश’के पीछे कौन है? क्या पीड़िता को ऐसा नहीं लगेगा कि उसकी शिकायतों पर पहले से ही फैसला कर लिया गया है? क्या उसे निष्पक्ष जांच को लेकर अविश्वास नहीं होगा?
(ग) क्या इस प्रकार की टिप्पणियां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या किसी अन्य कानून के दायरे में आते हैं?
(घ) और सबसे आखिरी और महत्वपूर्ण, अगर ऐसा कोई मामला अदालत के सामने आता है तब संवैधानिक सहानुभूति का क्या होगा और संवैधानिक संवेदनशीलता को ध्यान में रखकर क्या किया जाना चाहिए? या फिर ‘आत्म सुरक्षा’ के अपवाद का हवाला देकर ऐसी टिप्पणियां संवैधानिक जांच से बच सकेंगी?
तो क्या इस देश का क़ानून हर व्यक्ति के लिए समान है? क्या संवैधानिक सहानुभूति और संवेदनशीलता केवल आज़म ख़ान की ज़बान पर लगाम लगाने तक ही सीमित है या इनका और भी उपयोग है?
इन सवालों के जवाब पर भारत की जनता का न्यायिक प्रक्रिया पर विश्वास निर्भर करता है. शायद समय आ गया है कि सर्वोच्च न्यायालय आज़म ख़ान के मामले में उठाए गए इन सवालों पर चिंतन कर इनका उत्तर दे. पर फिर वही सवाल उठता है, संवैधानिक खंडपीठ का गठन कौन करेगा?
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं.)
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