7 फरवरी को अबूझमाड़ के ताड़बल्ला में हुए एक कथित एनकाउंटर को ग्रामीण एक सुनियोजित हमला बता रहे हैं. उन्होंने मारे गए 10 युवाओं के शवों के क्षत-विक्षत होने और मृतक लड़कियों के साथ संभावित यौन शोषण की बात कही है.
अबूझमाड़ : 5 मार्च 2019 के तड़के अबूझमाड़ इलाके के, जिसके भीतर बस्तर डिवीजन के नारायणपुर और बीजापुर जिले के हिस्से आते हैं और जिसे सीपीआई (माओवादी) द्वारा ‘एक आजाद इलाका’ माना जाता है, हजारों आदिवासियों ने इंद्रावती नदी की ओर कूच किया.
इनमें महिलाओं और पुरुषों के साथ बच्चे भी थे. इनमें से कुछ ने रास्ते में पकाने के लिए साथ में चावल और सब्जी का झोला भी उठाया हुआ था. नदी को पार करके हुए वे सामने वाले तट पर पहुंचे और दूसरी तरफ से आ रहे अन्य जत्थों से मिल गए जो एक ही दिशा में जा रहे थे.
नदी के तट से भी भैरमगढ़ शहर के सार्वजनिक मैदान तक एक लंबी पदयात्रा थी- करीब आठ-दस किलोमीटर की. कई लोग अपने गांवों से 20 किलोमीटर से ज्यादा चलकर आए थे.
7 फरवरी को अबूझमाड़ में इंद्रावती के उत्तरी हिस्से में ताड़बल्ला नामक एक छोटे से गांव में दस नौजवानों की एक कथित एनकाउंटर में मौत हो गई थी. इससे महज पांच दिन पहले सुकमा जिले में जलावन की लकड़ी चुन रही तीन औरतों पर सुरक्षा बलों द्वारा गोलियां चलाई गईं, जिसमें एक की मौत हो गई थी और एक महिला घायल हुई थी.
7 फरवरी के कथित एनकाउंटर में मारे गए ये नौजवान इंद्रावती के दोनों किनारे पर फैले भैरमगढ़ तहसील के छह गांवों- ऊतला, झिल्ली, कोलनार, चोटपल्ली, ताड़ोपारा और ताड़बल्ला- के थे.
5 मार्च को इन गांवों के लोग सलवा जुडूम के बाद पहली बार जवाबदेही तय करने की मांग के साथ विरोध प्रदर्शन करने के लिए अपने घरों और गांवों से बाहर निकले थे. भैरमगढ़ में जमा होने के बाद उन्होंने एक सार्वजनिक सभा की, जहां कई स्थानीय लोगों ने अपनी बात रखी. औरतें खासतौर पर सुरक्षा बलों और सरकार की तरफ उंगली उठाने में खासतौर पर मुखर थीं.
आदिवासी कार्यकर्ता और आम आदमी पार्टी की नेता सोनी सोरी, जो आयोजकों में भी शामिल थीं, ने भी अपनी बात रखी. इसी तरह से इलाके के पूर्व सलवा जुडूम नेता विक्रम मंडावी ने भी अपनी बात रखी, जो अब बीजापुर जिले के एक सक्रिय कांग्रेसी नेता हैं. 2018 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने बीजापुर निर्वाचन क्षेत्र से जीत दर्ज की थी.
क्या है पूरा वाकया
उस छोटे से कमरे में करीब दर्जनभर अधेड़ उम्र के आदिवासी बैठे हुए या आराम कर रहे थे. यह एक लंबा दिन था और वे सब थके हुए लग रहे थे.
यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि वे सब एक दूसरे को पहले से जानते थे, लेकिन उनकी साझी तकलीफ ने उनमें एक खास आत्मीयता पैदा की थी, जो समय के साथ शायद ही कम हो.
यह शाम का वक्त था. मारे गए सभी युवाओं के मां-बाप और परिवार के सदस्य छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के एक वकील, जो उनके मामले की पैरवी करने के लिए उत्सुक था, से मुकदमे की संभावना पर विचार-विमर्श करने के लिए वहीं रुक गए थे.
उन्होंने कथित एनकाउंटर वाले दिन के बारे में बात करनी शुरू की. ऊतला गांव के ओयामी बुद्धुराम ने कहा, ‘एनकाउंटर से दो दिन पहले पार्टी (माओवादी) के कुछ लोग हमारे गांव आए थे. उन्होंने कहा कि वे युवाओं के लिए दो दिन की खेल प्रतियोगिता का आयोजन कर रहे हैं और उन्हें इसकी तैयारी के लिए मदद की जरूरत है.’
उन्होंने बताया कि उतला से ताड़बल्ला पैदल जाने में करीब 2 घंटे का वक्त लगता है. चार अन्य गांव भी, जहां माओवादी उस प्रतियोगिता के लिए वालंटियर का इंतजाम करने के लिए गए, ताड़बल्ला से एक या दो घंटे की पैदल दूरी पर है.
बुद्धुराम के बेटे राजू सहित ऊतला के चार नौजवान– परसा सुक्कू, बारसा सुक्कू, काड़ियामी शंकर और माड़वी विज्जो उस दिन मारे जाने वालों में शामिल थे.
बताया गया है कि यह घटना 7 फरवरी को करीब 10 बजे सुबह में ताड़बल्ला गांव के पटेलपारा में हुई थी. घटनास्थल एक मैदान है, जिसमें आम के कुछ पेड़ लगे हुए हैं. पास में ही एक छोटी-सी नदी है. थोड़ी दूरी पर ज्यादा पेड़ और पहाड़ियां हैं.
पार्टी के सदस्यों ने वालंटियरों से कार्यक्रम से एक दिन पहले खाना पकाने के बर्तन और अन्य सामान और चावल लेकर आने के लिए कहा था. उन्हें मैदान से पत्ते और टहनियां साफ करने और खेल कार्यक्रम के लायक बनाने का काम करना था.
उस जगह पर नौजवानों के एक समूह ने थोड़ी ही देर पहले चावल पकाए थे और तब वे सब्जियां काट रहे थे. तभी सैकड़ों सुरक्षा जवानों ने (बीजापुर और भैरमगढ़ शिविरों के डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व गार्ड्स और स्पेशल टास्क फोर्स के जवान) उस जगह पर इकट्ठा करीब 70 नौजवानों पर हमला किया. यह हमला करीब 2 घंटे तक चलता रहा.
संबंधियों ने कहा दिन चढ़ने के साथ और कई नौजवान वहां आने वाले थे, खेल देखने बच्चे और बूढ़े भी उस कार्यक्रम में आए होते. एक प्रत्यक्षदर्शी के मुताबिक उस वक्त वहां तीन माओवादी भी वर्दी में थे, जो भागने में सफल हो गए.
यह स्पष्ट नहीं है कि वे हथियारबंद थे या नहीं, लेकिन कुछ भी हो, इस तरफ से जवाबी गोलियां नहीं चली थीं. पुलिस ने घटनास्थल से कथित तौर पर वहां से कुछ भारमर (पुराने जमाने की बारूद भर कर चलाई जानेवाली बंदूक) बरामद करने का दावा किया है.
ताड़बल्ला में रहने वाली पालो के पिता सोड़ी हिड़मा और मां आयते ने कहा, ‘हम मैदान के काफी करीब थे और गोलियां चलने और हमारी बेटी के चीखने की आवाज को सुन सकते थे. हमने उसके पास जाने की कोशिश की, लेकिन सुरक्षा बलों ने हमें रोक दिया, उन्होंने घटनास्थल की घेराबंदी कर दी थी.’
उन्होंने बताया कि उन्हें बीजापुर के जिला अस्पताल से अपनी बेटी का नग्न शव पॉलीथीन में लपेटकर मिला- सभी शव उनके परिजनों को इसी दशा में सौंपे गए- उन्होंने देखा कि उसका यौन शोषण किया गया था. उसकी कुछ उंगलियां काट दी गई थीं और एक आंख बाहर निकाल दी गई थी.
उसके माथे पर किसी पत्थर से लगी चोट के गहरे निशान थे. उसके सीने में चाकू घोंपा गया था और गोलियों के आर-पार निकल जाने के दो-दो जख्म थे. उन्होंने बताया कि पालो की उम्र 15 साल के करीब थी.
इस घटना में पांच महिलाएं और पांच पुरुष मारे गए. इनमें से सभी युवा थे- वे 20-22 साल के और कुछ मामलों में तो उससे भी कम उम्र के थे.
पालो के अलावा कोलनार गांव की शांति (आरकी पाकलू की बेटी) और ऊतला गांव का शंकर (कड़ियामी लक्कू का बेटा), उनके अभिभावकों के हिसाब से नाबालिग थे. ऊतला के बारसा परमेश के अलावा बाकी सब अविवाहित थे. इनमें से ज्यादातर पढ़े-लिखे भी नहीं थे.
दूसरे अभिभावकों के बयान अकथनीय क्रूरता बर्बरता की कहानी कहते हैं. मारने और अंगभंग करने के लिए गोलियों, चाकुओं और पत्थरों का इस्तेमाल किया गया.
कई शवों- जैसे राजू, सुक्कू, पालो, शांति और सोमड़ी – पर तीन-तीन गोलियां दागे जाने तक के निशान थे. चाकुओं का भी इस्तेमाल किया गया था. राजू और शंकर का गले को रेता गया था और सोमड़ी, पालो और सुद्री के शरीर पर चाकू घोंपने के जख्म थे.
पालो की तरह ही 15 वर्षीय शांति का भी यौन शोषण किया गया था और उसके निजी अंगों को क्षत-विक्षत किया गया था. सोमड़ी के शरीर पर भी यौन शोषण के निशान देखे जा सकते थे.
अभिभावकों और सगे-संबंधियों का कहना है कि उनके बच्चे साधारण कपड़ों में थे. उदाहरण के लिए स्त्रियां परंपरागत लुंगी और ब्लाउज पहने हुए थीं. लेकिन पुलिस द्वारा दी गई शवों की तस्वीरों में वे कमीज पहने दिख रहे हैं, दो मामलों में तो ऐसा लग रहा है मानो वह माओवादी वर्दी पहने हैं.
पुलिस को घटनास्थल पर जो कपड़े और अन्य समान मिली, उन्हें वहीं जला दिया गया. घड़ों में छेद के निशान और दूसरे नुकसान के चिह्न दिखाई देते हैं.
विज्जो की मां माड़वी जब्बो ने कहा, ‘ताड़बल्ला गांव के लोगों ने हमें बताया कि वारदात के बाद पुलिस ने अपने खाने के लिए एक मुर्गा और सुअर मारा और उसे वहीं पका कर खाया.’
कई अभिभावकों ने कहा कि शव लेते वक्त उनसे मृतक का आधार कार्ड दिखाने के लिए कहा गया. शांति और शंकर, जो उनके अभिभावकों और संबंधियों के हिसाब से नाबालिग थे, के कार्ड का निचला हिस्सा पुलिस ने अपने पास रख लिया. इस हिस्से में उम्र आदि का ब्योरा होता है.
सोमड़ी की मां और चोटपल्ली निवासी परसा नेंडो ने कहा, ‘हमारे इलाके में ऐसी घटना पहले नहीं हुई है. हमें मुआवजा नहीं न्याय चाहिए.’
इंसाफ की मांग
कोई एनकाउंटर फर्जी है इसकी पहचान इस बात से होती है कि इसके बाद लोग विरोध करते हैं – हर एनकाउंटर के बाद वे विरोध नहीं करते.
गवाहियों और अन्य उपलब्ध सबूतों से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि उस दिन कोई एनकाउंटर नहीं हुआ था. जो मारे गए वे माओवादी नहीं थे, बल्कि ‘आजाद इलाके’ में रह रहे साधारण नौजवान थे.
वे शायद माओवादियों के प्रभाव में थे और वे सच में माओवादियों द्वारा आयोजित कार्यक्रमों, जैसे खेल प्रतियोगिता, आदि में शिरकत करते थे.
ऐसे इलाकों में जहां कोई और संगठन नहीं है, अगर लोग माओवादियों द्वारा आयोजित खुली गतिविधियों में शिरकत करते हैं, तो क्या इसके लिए उन्हें दोषी ठहराया जा सकता है?
एनकाउंटर के ब्योरों की तफ्तीश करने की जगह सरकार ने इसे बिना कोई समय गंवाए माओवादियों के खिलाफ सुरक्षा बलों की बड़ी जीत के तौर पर पेश कर दिया.
इस घटना के पुलिसिया पक्ष के मुताबिक, जिसे मीडिया में इस्तेमाल किया गया, घटनास्थल वास्तव में एक ट्रेनिंग कैंप था और वहां दोतरफा गोलीबारी हुई थी. हालांकि, इस पूरी कहानी को मृतकों के परिजन और सगे-संबंधी पूरी तरह से खारिज कर देते हैं.
यह पहली बार नहीं है जब सुरक्षा बलों ने माओवादी प्रभाव के अंदर आने वाले इलाकों में जमा हुई निहत्थी भीड़ पर गोलियां चलाई हैं.
17 मई, 2013 को बीजापुर के एड़समेट्टा गांव में सुरक्षा बलों ने वीज्जा पंडुम (बीज का त्योहार) मना रहे ग्रामीणों की निहत्थी भीड़ पर गोलियां चलाई थीं, जिसमें 8 आदिवासी मारे गए थे.
बीजापुर जिले में ही इसी तरह से निहत्थे गांव वालों पर एकतरफा गोलबारी की घटना 28 जून, 2012 को हुई, जिसमें 17 आदिवासी मारे गए थे. सुरक्षा बल इन इलाकों में गांव वालों को बड़े समूहों में इकट्ठा देखकर संदेह से भर जाते हैं. इन मामलों में न्यायिक जांच अभी तक पूरी नहीं हुई है.
भैरमगढ़ की बैठक के बाद स्थानीय विधायक को एक याचिका सौंपी गई. इसमें स्थानीय लोगों के पक्ष के हिसाब से एक जवाबी एफआईआर (पुलिस द्वारा एक एफआईआर पहले ही दायर की जा चुकी है) दायर करने की मांग की गई.
वे 7 फरवरी को किए गए अत्याचारों के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई भी चाहते थे. इस याचिका में एक न्यायिक जांच आयोग की भी मांग की गई जिसके सामने लोगों को भी अपनी गवाही देने का मौका दिया जाए.
हालांकि इस याचिका की प्रतियां देश के सर्वोच्च पदाधिकारियों – राष्ट्रपति, भारत के मुख्य न्यायाधीश, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश- को भेजी जा चुकी है, लेकिन अभी तक कहीं से कोई जवाब नहीं आया है.
इलाके से आने वाली हालिया खबर के मुताबिक माओवादियों ने अप्रैल महीने के आखिरी में ताड़बल्ला गांव के नजदीक एक जन-अदालत में पुलिस का मुखबिर होने का आरोप लगाते हुए तीन आदिवासियों (जिसमें झिल्ली गांव का भी एक व्यक्ति शामिल है) की हत्या कर दी थी.
इन हत्याओं के खिलाफ कोई विरोध नहीं किया जा रहा है, जिससे यह संकेत मिलता है कि लोग या तो माओवादियों के फैसले और उनकी कार्रवाई से सहमत हैं या उनके पास ऐसे मामलों में विरोध करने की आजादी ही नहीं है.
(बेला भाटिया बस्तर, दक्षिण छत्तीसगढ़ में काम कर रही स्वतंत्र रिसर्चर, रिपोर्टर और मानवाधिकार वकील हैं.)
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