पृथ्वी का जन्म लगभग 460 करोड़ साल पहले हुआ था और पृथ्वी पर जीवन का जन्म कम से कम 375 करोड़ साल पहले. अगर 460 करोड़ साल का यह प्रयोग दोहराया जाए, तो क्या हम मनुष्यों जैसे जीव धरती पर पाए जाएंगे या फिर जीवन की रचना की कहानी बिल्कुल अलग होगी?
1989 मे अमेरिका के एक वैज्ञानिक स्टीफेन गोउल्ड ने अपनी एक किताब वंडरफुल लाइफ में एक अटपटा-सा सवाल पूछा. सवाल ये था कि अगर हमारी पृथ्वी की रचना से ले कर अब तक का समय दोबारा तय किया जाए, तो इस प्रयोग का परिणाम क्या होगा?
क्या हम मनुष्यों जैसे जीव धरती पर पाए जाएंगे या फिर जीवन की रचना की कहानी उस प्रयोग में बिल्कुल ही अलग होगी और उसका जो नतीजा निकलेगा, वो हमारी कल्पना से भी दूर है? वास्तविकता यह है कि हम ऐसा प्रयोग नहीं कर सकते- पर गोउल्ड का सवाल बहुत दिलचस्प था.
आज हम जानते हैं कि पृथ्वी का जन्म लगभग 460 करोड़ साल पहले हुआ था और पृथ्वी पर जीवन का जन्म कम से कम 375 करोड़ साल पहले. अगर 460 करोड़ साल का यह प्रयोग दोबारा दोहराया जाए, तो क्या होगा? ऐसे किसी सवाल के जवाब में कुछ भी निर्धारित तरीके से कहना बहुत कठिन है.
गोउल्ड शायद नहीं जानते होंगे, पर 1988 में उनकी किताब छपने से एक साल पहले अमेरिका में ही एक प्रयोगशाला में एक ऐसा प्रयोग शुरू किया जा रहा था जो उनके सवाल के जवाब को ढूंढने में मदद करता.
यह प्रयोग रिचर्ड लेंस्की नाम के एक वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में 24 फरवरी 1988 को ई कोली नामक एक साधारण से बैक्टीरिया से शुरू किया गया. यह बैक्टीरिया साधारण रूप से हमारी आंतों में भी रहता है. तो चलिए देखते हैं कि साधारण बैक्टीरिया से हम गोउल्ड के इतने बड़े प्रश्न का जवाब कैसे ढूंढ सकते हैं.
इससे पहले की हम लेंस्की का प्रयोग समझें, हमें प्राकृतिक चयन के सिद्धांत को थोड़ा समझना होगा. मान लीजिए कि कोई आबादी किसी क्षेत्रफल (जैसे जंगल मे जानवर) में रहती है. ऐसे में अगर कोई ऐसा नवजात पैदा हो, जो उस इलाके में रहने के लिए ज़्यादा तंदुरुस्त न हो, तो वो रह नहीं पाएगा और लुप्त हो जाएगा.
पर ऐसी आबादी में अगर कोई ऐसा नवजात हो जो वहां रहने में अपने मां-बाप से भी ज़्यादा सक्षम हो, तो वो उस क्षेत्रफल पर अपना कब्ज़ा कर लेगा. डार्विन ने इसी सिद्धांत की खोज 1859 में की थी.
इसी सिद्धांत पर काम करते हुए लेंस्की ने एक शीशे के फ्लास्क में पानी भर कुछ तत्व डाले और उसमें कुछ बैक्टीरिया छोड़ दिए. ऐसे में यह बैक्टीरिया गिनती में बढ़ते जाएंगे और कुछ हो घंटों में फ्लास्क के सारे पोषक तत्व समाप्त कर देंगे. ऐसा होने पर प्रयोग वहीं समाप्त हो जाएगा.
ऐसा न हो, इसलिए पोषक तत्व ख़त्म होने पर लेंस्की ने पहले फ्लास्क से कुछ बैक्टीरिया निकालकर एक नये फ्लास्क में डाल दिए. इस नए फ्लास्क में वही तत्व थे, जो पहले में थे- जिस कारण नये डाले गए बैक्टीरिया भी अब गिनती में बढ़ सकते थे. ऐसा करने से रोज बैक्टीरिया की लगभग 10 पीढ़ियां देखी जा सकती हैं.
दरअसल ऐसा कर लेंस्की एक चतुर प्रयोग कर रहे थे. वे जानते थे कि गिनती बढ़ने की दौर में ऐसा ज़रूर होगा कि अचानक ऐसा कोई बैक्टीरिया पैदा हो जाएगा, जो उनके शुरुआती बैक्टीरिया से तेज़ी से बढ़ता हो. ऐसा हो जाने पर ये बेहतर बैक्टीरिया पोषक तत्वों को जल्दी निगलकर अपने प्रतिद्वंदी बैक्टीरिया को समाप्त कर देगा. इसी प्रक्रिया को प्राकृतिक चयन का सिद्धांत कहते हैं.
लेंस्की की प्रयोगशाला में यह प्रयोग 1988 से लेकर आज तक जारी है. इस बीच के 30 सालों में उन्होंने बैक्टीरिया की लगभग एक लाख पीढ़ियों का अध्ययन किया है. पर इस सब में यह सवाल उठता है कि इस प्रयोग से हमें गोउल्ड के सवाल का जवाब कैसे मिलता है.
लेंस्की के पास इसका जवाब भी है. जब 1988 में उन्होंने यह प्रयोग शुरू किया तो उन्होंने केवल एक फ्लास्क से यह शुरू नहीं किया था, बल्कि उन्होंने 12 फ्लास्क में यह प्रयोग करना शुरू किया था.
उनकी प्रयोगशाला में कोई वैज्ञानिक सहकर्मी रोज़ सुबह आकर, हर एक फ्लास्क में से कुछ बैक्टीरिया निकाल एक नए फ्लास्क में डालता है, इस कारण ये एक लाख पीढ़ियों का प्रयोग उन्होंने केवल एक बार नहीं, एक दर्जन बार किया है.
अब सवाल यह उठता है कि क्या उनके एक दर्जन प्रयोगों का नतीजा एक जैसा आया है या फिर हर बार प्रयोग करने पर कुछ अलग ही हो जाता है? इस सवाल का जवाब हमें गोउल्ड के सवाल का जवाब देगा.
लेंस्की इस सवाल के जवाब में पिछले 25 साल से लगे हैं- जब से प्रयोग के शुरुआती नतीजे आने लगे, अब, 30 साल बाद काफी दिलचस्प नतीजे भी सामने आए हैं.
प्रयोग का सबसे दिलचस्प नतीजा यह रहा है कि 12 में से 1 प्रयोग ई कोली बैक्टीरिया से इजाद होकर बैक्टीरिया की एक अलग नस्ल बन गया है. उसमें 1 लाख पीढ़ी के दौरान कुछ ऐसे परिवर्तन आए हैं कि अब उसे ई कोली बैक्टीरिया कहना शायद सही नहीं होगा.
दिलचस्प बात यह है कि बाकी 11 प्रयोगों मे वह बदलाव नहीं आए हैं- और वो अब भी यकीनन ई कोली ही हैं. पर एक लाख पीढ़ियां बहुत होती हैं – सभी अपने-अपने तरीके से बदले हैं. सभी के सभी शुरुआत के बैक्टीरिया के मुकाबले बहुत तेज़ी से बढ़ते हैं. और एक सूक्ष्म तरीके से देखने पर पता चलता है कि शुरुआती और अब के बैक्टीरिया में बहुत अंतर है.
गोउल्ड अब जीवित नहीं हैं, साल 2002 में उनका निधन हुआ हुई. अगर वे इस प्रयोग के नतीजों को देखते तो ज़रूर इससे अपने सवाल का जवाब ढूंढते. मेरे विचार में उनका उत्तर कुछ ऐसा होता- कि यदि पृथ्वी का इतिहास दोबारा रचा जाए तो इसमें कोई निर्धारित बात नहीं हैं कि 460 करोड़ साल बाद मानव जाति उस पर रह रही होती. हमारा जीवित होना, इस रूप मे देखा जाए, तो शायद बहुत से मौजूद रास्तों में से सिर्फ एक रास्ता था.
हम नहीं जानते कि हमारा पृथ्वी पर होना लेंस्की के 12 में से 11 प्रयोगों का प्रतिनिधि है, ये फिर हम वो 12वां प्रयोग हैं जो कुछ विचित्र ही कर रहा है. अगर ऐसा है तो हमारा पृथ्वी पर होना एक बहुत भाग्यशाली घटना है.
लेंस्की ये प्रयोग 30 साल से भी अधिक से कर रहे हैं. वे बताते हैं कि शुरुआती दौर में उन्हें इस प्रयोग के लिए पैसा एकत्रित करने में कितनी तकलीफ हुई. पर अब, जबकि 30 सालों में इस प्रयोग ने बेहद रोमांचक नतीजे सामने ला रखे हैं, पैसा कोई मुद्दा नहीं है. इस प्रयोग की अगली चुनौती तब होगी जब लेंस्की के बाद किसी को इसकी ज़िम्मेदारी उठानी होगी.
उधर गोउल्ड की किताब वंडरफुल लाइफ का शीर्षक 1946 की मशहूर फिल्म इट्स अ वंडरफुल लाइफ [It’s a Wonderful Life] से प्रेरित था. फिल्म में एक नौजवान जॉर्ज बेली के जीवन के ज़रिये यह दिखाया गया है कि जीवन का इतिहास आकस्मिक है.
शायद गोउल्ड लेंस्की के प्रयोग से पहले ही इस पहलू के प्रति आश्वस्त थे.
(लेखक आईआईटी बॉम्बे में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)
नोट: रिचर्ड लेंस्की के प्रयोग के बारे में यहां पढ़ सकते हैं.