पूर्व में बहुमत अंकगणित से हासिल होता था, जो सामाजिक समूहों को एक साथ जोड़कर होता था, यह बहुमत सिर्फ वैचारिक मंच पर ही नहीं, बल्कि सत्ता में सभी की भागीदारी का वादा करके हासिल होता था. 2014 में भाजपा ने ख़ुद को चुनावी अंकगणित से दूर कर लिया और ध्रुवीकरण की प्रक्रिया से राष्ट्रीय बहुमत हासिल किया.
नई दिल्लीः ब्रिटिश शासन के तहत जब से भारत में चुनावों की शुरुआत हुई, तब राष्ट्र के रूप में इसके अस्तित्व पर एक सवाल खड़ा था. ब्रिटिश शासकों ने जाति, धर्म और परंपराओं की विभिन्नता के आधार पर भारत में एक राष्ट्र होने की संभावना को नकारा और इस कारणवश भारत में अलग-अलग धर्मों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की प्रणाली का चयन किया गया.
भारतीय राजनीति अभी भी देश की राष्ट्रीय पहचान को परिभाषित करने और इसे बनाए रखने को लेकर जूझ रही है. पाकिस्तान के रूप में एक अलग मुस्लिम राष्ट्र बनाने के लिए 1947 में हुए बंटवारे ने इस बेचैनी को और पुख्ता किया था, लेकिन इस बंटवारे का उद्देश्य ही इस बेचैनी को समाप्त करना था. अलगाववादी आंदोलनों ने कई बार सवाल खड़े किए हैं, लेकिन इससे देश की अखंडता को कभी खतरा नहीं हुआ.
इन क्षेत्रीय, धार्मिक और वैचारिक खतरों को पूर्व में ब्रिटेन, अमेरिका और रूस से और आज के समय में पाकिस्तान और चीन से विदेशी फंड के रूप में समर्थन मिलने का संदेह है. हालांकि ये भारत की विविधता की जटिलता के सामने सूक्ष्म हैं. इसमें भाषा, जाति, संस्कृति और धर्म के आधार पर यूरोपीय देशों सरीखी राष्ट्रीय बहुमत की कमी है.
भारत में न तो हर सामाजिक ईकाई छोटी इकाइयों में बंट सकती है, लेकिन लोकतंत्र का प्रसार यह सुनिश्चित करता है कि हर छोटी से छोटी इकाई खुद ही अपनी राजनीतिक पहचान स्थापित कर सकती है.
यह विभाजन 1990 से शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के दौर में सर्वाधिक चरम पर रहा. मजबूत निजी क्षेत्र और जाति एवं धार्मिकता के साथ नई राजनीतिक पहचानों के प्रसार ने राष्ट्रीय बहुमत के लिए हिंदुत्व को एकमात्र विश्वसनीय आधार बना दिया.
पूर्व में सरकार द्वारा परिभाषित राष्ट्रवाद, जिसने भारत की विविधताओं को सांस्कृतिक रूप से आगे बढ़ाया, वह नई राजनीति में औंधे मुंह गिरा लेकिन पाकिस्तान में जैसे इस्लाम का एकाकी धर्मशास्त्र है, वैसे भारत में हिंदू राष्ट्रवाद नहीं है. वह हिंदू राष्ट्रवाद होते हुए भी एक ऐसा धर्मनिरपेक्ष विमर्श है, जिसमें धार्मिक आस्थाओं की राजनीतिक अहमियत तब ही है, जब वह राष्ट्र के बाहुल्य लोगों की अपनी परंपरा के रूप में पहचानी जाए.
भाजपा ने चुनाव में राजनीतिक बहुमत नहीं बल्कि राष्ट्रीय बहुमत बनाने का प्रयास किया. इन दोनों को मिला देने से यह मतदान राष्ट्रीयता को लेकर जनमत संग्रह के रूप में तब्दील हुआ.
पूर्व में बहुमत अंकगणित से हासिल होता था, जो सामाजिक समूहों को एक साथ जोड़कर होता था, यह बहुमत सिर्फ वैचारिक मंच पर ही नहीं, बल्कि सत्ता में सभी की भागीदारी का वादा करके हासिल होता था. पार्टी अधिक और बड़े समूहों को एक साथ लाकर सरकार का गठन करती थी.
2014 में भाजपा ने खुद को इस चुनावी अंकगणित से दूर कर लिया और ध्रुवीकरण की प्रक्रिया से राष्ट्रीय बहुमत हासिल किया. इस ध्रुवीकरण के तहत मौजूदा समूह न सिर्फ एक-दूसरे से अलग हुए बल्कि आंतरिक रूप से भी उनमें अलगाव पैदा हुआ.
उत्तर प्रदेश में भाजपा ने कम प्रभुत्व वाली निचली जातियों को ज्यादा प्रभुत्व वाली ही निचली जातियों से अलग कर उन्हें उच्च जातियों के नेतृत्व में रख दिया. देश की मुस्लिम आबादी को दरकिनार कर जाति की बजाय हिंदुत्व के नाम पर हिंदू वोट बटोरे गए.
भाजपा ने समाज के सभी वर्गों को एकजुट करके बहुमत हासिल करने की बजाय वर्गों को बांटकर बहुमत हासिल किया. पार्टी ने मतदाताओं की बड़ी संख्या से वोट की अपील नहीं की, बल्कि कुछ प्रभावी और समाज के कुछ विशेष वर्गों से वोट की अपील की. भाजपा के राष्ट्रीय बहुमत का आधार विरासत में मिली चुनावी गणित और उस पर आधारित निर्वाचन क्षेत्रों को ध्वस्त करना है.
भाजपा का यह राष्ट्रीय बहुमत पार्टी की रणनीति से हासिल नहीं हुआ है, बल्कि शहरी भारत में सामाजिक समूहों के राजनीतिक बिखराव से हुआ है. गांवों में रहने वाली निचली जातियां और मुस्लिम मतदाता शायद भाजपा का कभी समर्थन नहीं करें, लेकिन कस्बों और शहरों में आने के बाद वे जरूर भाजपा को वोट कर सकते हैं.
ये इसलिए नहीं कि इन्हें भाजपा की ओर से किसी तरह का समर्थन और सुरक्षा प्राप्त हो रही है, बल्कि इसलिए क्योंकि भाजपा जिस राष्ट्रीय बहुमत का प्रतिनिधिनत्व करती है, वे इकाइयों की बजाय सामाजिक वर्गों, समूहों के बजाय लोगों पर आधारित है.
यह भाजपा को देश की सर्वाधिक आधुनिक पार्टी बनाता है, जिसके धड़े भविष्य का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, जबकि विपक्ष की पूरी संख्या पूर्व की बात बनकर रह गई है. लेकिन अतीत अभी भारत में पूरी तरह से गुजरा नहीं है और भविष्य का अभी भी पूरी तरह से उदय नहीं हुआ है, इसलिए इसकी कोई गारंटी नहीं है कि हिंदुत्व जीत जाएगा.
भाजपा का सरकार में पहला कार्यकाल पूरा होने के बाद 2004 में वह बुरी तरह से हारी थी, क्योंकि पारंपरिक और आमतौर पर ग्रामीण मतदाता शहरी भारत की नई वास्तविकताओं से पीछे रह गए थे पर तेजी से बढ़ते हुए शहरीकरण के दौर में यह फिर से हो पाना और भी कठिन होता जा रहा है.
इसी वजह से भाजपा, कांग्रेस से कम रूढ़िवादी दिखाई पड़ने लगी है और इसे केवल उच्च जातियों की पारंपरिक पार्टी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कांग्रेस जाति और मजहब के आधार पर पारंपरिक समूहों पर आधारित है और भाई-भतीजावाद की संस्कृति का लबादा ओढ़े हुए है.
भाजपा की अधिक सत्ता केंद्रित और वैचारिक शैली पूर्व में बदलाव का संकेत है. यह सामाजिक समूहों को बांटकर ही बहुमत हासिल कर सकती है. यह अपनी जाति और क्षेत्रीय साझेदारों के समर्थकों तक का साथ छोड़ देती है. यहां तक कि मध्यम वर्ग और उच्चवर्गीय परिवार जो कभी एक ही पार्टी को वोट देते थे, अब भाजपा ने इन्हें भी बांट दिया है.
भले ही भाजपा ने समस्त सामाजिक समूहों को अभी तक नहीं बांटा है, लेकिन उसने बहुमत के मायने बदल दिए हैं. इसलिए भाजपा की भाषा में अल्पसंख्यक अब केवल राजनीतिक रूप से अस्थिर पहचान वाले देश विरोधी हो गए हैं.
इसका मतलब है कि विरोधी खेमा अब राष्ट्रवादी विमर्श के मुताबिक दो सबसे धोखा देने वाली पहचानों में बंट गए हैं- मुसलमानों और माओवादी जबकि कांग्रेस जैसी पार्टियों को मुस्लिमों का समर्थन करने वाली और वामपंथियों को देश को बांटने वाले माओवादियों का समर्थन करने वाला समझा जाता है.
आकार, संविधान और दृष्टिकोण में असमानता के अलावा मुस्लिमों और माओवादियों के बीच एक बड़ा अंतर यह है कि माओवादी राजनीतिक पहचान और दबाव वाला गुट है, जबकि मुस्लिमों में राजनीति का अभाव दिखाई देता है.
देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग होने की वजह से मुस्लिम न सिर्फ खुद का प्रतिनिधित्व करते हैं बल्कि उन सभी समूहों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं, जो उनकी पहचान बन गए हैं. उनका अराजनीतिकरण भारत के सभी वंशानुगत समूहों की सूचना देती है.
यह अराजनीतिकरण केवल मुसलमानों का ही नहीं, उन सब समूहों का हुआ है, जो पारंपरिक चुनावी गणित में पारंपरिक मतदाताओं के तौर पर आंके जाते हैं. मुसलमान पहचान उन सभी पहचानों का प्रतिनिधित्व करने वाली पहचान बना दी गई है, जो केवल अपनी पहचान वाले प्रतिनिधि को मिलकर वोट देते हैं, ताकि उन्हें उसका सीधा फायदा प्राप्त हो सके.
इस अराजनीतिकरण का सीधा मकसद सारे पारंपरिक चुनावी गणित में फिट होने वाले समूहों की राजनीतिक पहचान खत्म कर देना है. भारत में मुसलमानों का कोई राजनीतिक प्रभुत्व या पहचान नहीं रही.
तथ्य यह है कि मुस्लिम अब पिछड़े नहीं रहे हैं. भारत में मुस्लिमों की कोई राजनीतिक मौजूदगी नहीं है और संसद, नौकरशाही और सेनाओं में इनका कम प्रतिनिधित्व है.
भाजपा के शासन में मुसलमान राजनीतिक रूप से निष्क्रिय हो गए हैं, भारत के आर्थिक उदारीकरण के साथ शुरू हुए निजी क्षेत्र में ये छोटे व्यापारियों, शिल्पकारों और मजदूरों के तौर पर जीवनयापन कर रहे हैं.
अब इनमें विरोध करने की क्षमता नहीं बची है, फिर चाहे वह हाल के दिनों में गोमांस के शक में भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या करने का मामला हो या लव जिहाद के नाम पर हिंदू महिलाओं के साथ भाग जाने जैसे मामले हो.
अगर आर्थिक उदारीकरण और इसके जरिये बने बाजार हिंदुत्व को ताकत देते हैं तो ये मुसलमानों को वोट बैंक से बाहर कर उनके राजनीति की संभावनाओं से ही परे कर डालते हैं, ऊंची जातियों ने भी निजी क्षेत्र के लिए सार्वजनिक क्षेत्र को छोड़ दिया है.
राजनीति अब तेजी से अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की संरक्षक बन गई है, ऊंची जातियां बाहर से राजनीतिक पार्टियों को प्रभावित कर रही हैं और उन्हें चंदा दे रही हैं. मुस्लिम ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं और इसलिए वे भारत के लोकतंत्रीय ढांचे से बाहर हो चुके हैं.
भाजपा का बहुमत बंटवारे और वंशानुगत राजनीति के अराजनीतिकरण पर आधारित है. भले ही यह समूह सामाजिक रूप से सक्रिय रहे, इनके सदस्य भाजपा की एकाकीवादी राजनीति और पहचान से जुड़ते रहे.
इसके विपरीत मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों को पारंपरिक राजनीति और उसके लगाव से उत्पन्न पिछडे़पन का प्रतीक साबित कर दिया गया है. जब तक पारंपरिक सामाजिक ढांचा बना रहेगा, हिंदुत्व का राष्ट्रीय बहुमत और आधुनिकता के उनके आदर्श अधूरे रहेंगे.
हालांकि हिंदुत्व की राजनीति के इस दौर में तनाव के बीच इन समूहों को अभी भी चुनाव जीतने की जरूरत है, क्योंकि इन्हें राजनीति की इस प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया है.
(फ़ैसल देवजी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में इतिहास के अध्यापक है. यह लेख मूल रूप से द हिंदू में प्रकाशित हुआ था. इसका हिंदी अनुवाद भूमिका जोशी ने किया है.)