अर्थव्यवस्था में जान फूंकना मोदी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती होगी

देश की कमज़ोर अर्थव्यवस्था के बीच प्रचंड जनादेश हासिल करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष कई बड़ी आर्थिक चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं.

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नरेंद्र मोदी. (फोटो: रॉयटर्स)

देश की कमज़ोर अर्थव्यवस्था के बीच प्रचंड जनादेश हासिल करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष कई बड़ी आर्थिक चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं.

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नरेंद्र मोदी. (फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: नई सरकार की सबसे पहली प्राथमिकता यह पता लगाने की होगी कि आखिर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में गिरावट इतनी तेज क्यों रही है. यह अप्रैल 2019 में 8.2 फीसदी थी,लेकिन अप्रैल-जून 2019 में गिरकर 6.2 फीसदी हो गई.

हाल के वर्षों में हमने कुछ तिमाहियों के भीतर जीडीपी में दो फीसदी की गिरावट नहीं देखी है. आखिर माजरा क्या है?

2017-18 के दौरान नोटबंदी और जीएसटी के खराब क्रियान्वयन की दोहरी मार झेलने के बाद अर्थशास्त्रियों ने अप्रैल-जून 2018 में उपभोग आधारित हल्की उछाल आने के बाद थोड़ी सी राहत की सांस ली थी, जब जीडीपी बढ़कर 8.2 फीसदी हो गई थी.

उस समय ज्यादातर आर्थिक विश्लेषकों ने यह उम्मीद जताई थी कि नोटबंदी और जीएसटी के नकारात्मक प्रभाव से अर्थव्यवस्था उभर आई है और यह निश्चित तौर पर एक चुनाव से पहले के साल में एक बरकरार रहने वाला सुधार है. लेकिन छह महीनों के भीतर विकास की गति तेजी से कम होने लगी.

जनवरी-मार्च 2019 में अर्थव्यवस्था में खपत औंधे मुंह गिर रही थी, उस समय चुनावी खर्चे आसमान छू रहे थे और राजनीतिक पार्टियां पानी की तरह पैसा बहा रही थी. दोपहिया कंपनियों जैसे अग्रणी सेक्टर में बिक्री में मार्च 2019 में 20 से 40 फीसदी तक की गिरावट दर्ज हुई.

हिंदुस्तान यूनिलीवर और पतंजलि जैसी कंपनियों की बिक्री सपाट रही. मारुति सुजुकी का उत्पादन फरवरी 2019 से शुरू के तीन महीनों में लगभग 38 फीसदी तक घट गया. हवाई यात्रियों की संख्या भी पांच साल के निचले स्तर पर रही.

तीन तिमाहियों के भीतर जीडीपी में दो प्रतिशत अंकों की गिरावट का सबसे ज्यादा चिंताजनक पहलू इसके पीछे उपभोग में गिरावट होना है. मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के पहले कार्यकाल में अर्थव्यवस्था को नोटबंदी और जीएसटी जैसे दो बड़े झटके लगे, जिसके कारण कारोबारियों में हालात के सामान्य होने से पहले निवेश करने को लेकर असमंजस की स्थिति पैदा हो गई.

बीते पांच सालों में निजी निवेश में कोई तेजी नहीं देखी गई, जो निवेश-जीडीपी अनुपात में गिरावट के आंकड़े से साफतौर पर जाहिर होता है. इस दौरान सिर्फ उपभोग ने विकास को जिलाए रखा, लेकिन अब उपभोग में भी तेजी से गिरावट आ रही है.

सबसे खराब यह है कि यह ऐसे समय में हुआ, जब आर्थिक नीतिगत फैसलों पर दो महीने का विराम लग गया था. इस दौरान सरकार के नेतृत्व वाले सार्वजनिक निवेशों की रफ्तार भी धीमी पड़ गई.

नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने पूर्व कैबिनेट सचिव बीके चतुर्वेदी की गवर्नेंस पर लिखी गई किताब के विमोचन के अवसर पर कहा कि किस तरह से लंबे समय तक चलने वाले चुनाव अर्थव्यवस्था की गति को कम कर देते हैं.

कांत ने कहा, ‘बीते दो महीनों में सार्वजनिक कार्यों के लिए टेंडर तक निकालने के लिए सरकार को चुनाव आयोग की मंजूरी लेनी पड़ी. इन बीते सप्ताह में चुनाव आयोग ही एक तरीकी से देश का प्रभारी बना हुआ था. हम उनकी मंजूरी के बिना कुछ नहीं कर सकते. यह अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं है.’

इसलिए नई सरकार को अर्थव्यवस्था की सामान्य चाल को सबसे पहले बहाल करना होगा. इसके बाद बजट के जरिये निवेश और खपत में कमी की समस्या से निपटना होगा. कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन भी लगातार निराशाजनक रहा है और सामान्य से कम मानसून की आशंका का जोखिम भी बना हुआ है.

आर्थिक मोर्चे पर एक और चिंता हाल के वर्षों में घरेलू वित्तीय बचत में आई तेज गिरावट है. भारत की अर्थव्यवस्था तब तक बढ़ नहीं सकती, जब तक घरेलू बचत में सतत बढ़ोतरी नहीं हो, विदेशी बचत पर अत्यधिक निर्भरता कोई विकल्प नहीं है.

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(फोटो: रॉयटर्स)

घरेलू वित्तीय बचत में जीडीपी के लगभग छह से सात फीसदी अंकों की गिरावट आई है. यह 2011-2012 में जीडीपी का 23 फीसदी हुआ करता था लेकिन इसमें 2017-2018 में जीडीपी के लगभग 16 फीसदी की गिरावट आई.

अर्थशास्त्री अभी भी यही समझने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिर चल क्या रहा है? एक अनुमान यह है कि लोगों की आय घटी है, इसलिए वे उपभोग संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए वित्तीय बचत कर रहे हैं.

वित्तीय बचतों में बड़ी कमी भौतिक बचतों, ज्यादातर रियल एस्टेट में देखी गई है. यह संभव है कि लोग अपने रियल स्टेट के बदले उपभोग संबंधी जरूरतों के लिए कर्ज ले रहे हैं, जिससे उनकी कुल बचत में कमी आ रही है.

नई मोदी सरकार के लिए एक और बड़ी चुनौती दोहरी बैलेंस शीट से निपटने की होगी, जिससे अभी भी बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियां और वे बैंक हैं, जिनसे उन्होंने भारी-भरकम कर्ज लिया है. बिजली, सड़क, दूरसंचार, एविएशन जैसे सेक्टर्स पर बैंकों का कर्ज तीन लाख करोड़ रुपये से अधिक हो सकता है.

ये मामले दिवालिया अदालत में जाने के बजाय इन कंपनियों और बैंकों के बीच सुलझाए जा रहे हैं. इन कर्जों के भुगतान में लंबा वक्त लगेगा. बैंक कर्ज भी बड़े गुपचुप तरीके से दे रहे हैं.

इस बीच गैर बैंकिंग वित्तीय क्षेत्र (एनबीएफसी) सेक्टर में एक नया संकट खड़ा हो गया है, जो बैंकिंग सेक्टर में पहले के संकटों जैसा ही है. एनबीएफसी क्षेत्र का रियल एस्टेट सेक्टर में काफी पैसा फंसा हुआ है, जिसमें अभी सुधार का कोई भी संकेत नहीं दिखाई दे रहा है.

सरकार को रियल एस्टेट और हाउसिंग क्षेत्र को गति देने के लिए पैकेज पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जिससे रोजगार का सृजन होगा.

कमजोर अर्थव्यवस्था के बीच प्रचंड जनादेश हासिल करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष कई बड़ी चुनौतियां हैं, रोजगार दर कई दशकों के निचले स्तर पर पहुंच गई है.

मोदी और उनकी नई टीम को चुनाव के इन नतीजों को अर्थव्यवस्था की दशा से जोड़कर और इस रूप में इसे प्रचारित करने से बचना होगा, क्योंकि ये नतीजे देश की लड़खड़ाती हुई अर्थव्यवस्था के बीच आए हैं.

हो सकता है कि लोगों ने कल्याणकारी योजनाओं की अधिक व्यापक और सार्वभौमिक कवरेज की उम्मीद में वोट दिया हो, लेकिन ऐसा होने के लिए अर्थव्यवस्था को कम से कम सामान्य होना होगा और आठ फीसदी या इससे अधिक की वृद्धि दर को बनाए रखना होगा ताकि अधिक से अधिक कल्याणकारी योजनाओं के लिए पर्याप्त कर इकट्ठा किया जा सके.

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