कांग्रेस और विपक्ष को चाहिए था कि वो मोदी को रफाल की बजाय राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद, राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता, बेरोज़गारी, किसानों की आत्महत्या पर बहस के लिए ललकारते.
कमाल की बात ये है कि नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष और अब गृहमंत्री अमित शाह ने पार्टी की जीत के बाद दिल्ली में पार्टी मुख्यालय पर हुए धन्यवाद समारोह में दिए भाषण में 2014 से 2019 के बीच अपनी पार्टी की सरकार की जिन नीतियों और योजनाओं को अपनी जीत का श्रेय दिया, वो सब पूरे चुनाव प्रचार के दौरान के उनके भाषणों से लगभग नदारद थे.
ऐसा लग रहा था जैसे वो पुरानी स्लेट साफ़ कर नई इबारत लिख रहे थे और मीडिया का बड़ा वर्ग भी उनकी तूती बजाने में लग गया कि यह विकास की जीत है.
चुनाव परिणामों के बाद मीडिया और भाजपा कुछ भी कहे लेकिन यह खुली सच्चाई है कि इस तरह के चुनाव परिणाम विकास योजनाओ के नाम पर नहीं आ सकते. यह पूरी तरह से भावनात्मक अपील का ही परिणाम है.
और वो अपील थी पुलवामा/बालाकोट के बहाने राष्ट्रवाद की, जिसमें पाकिस्तान केंद्र में होने के कारण हिंदुत्व का तड़का भी था. चुनाव आयोग के तमाम के निर्देशों के बावजूद दोनों नेताओं, खासकर नरेंद्र मोदी ने लगातार अपने चुनावी भाषणों में पुलवामा और बालाकोट को ही प्रमुख मुद्दा बनाया.
यहां तक कि उन्होंने महाराष्ट्र के लातूर में तो पहली दफा वोट करने वालों से अपना वोट पुलवामा के शहीदों के नाम समर्पित करने को कहा.
सबसे बड़ी विडंबना की बात यह है कि एक तरफ मीडिया मोदी-शाह के इस अतिराष्ट्रवादी भाषणों को पूरे जोर-शोर से देश की जनता को परोसता रहा, वहीं बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद तो टीवी चैनल के एंकर भी मिलिट्री यूनिफार्म में नजर आए थे.
सरकार को इन मुद्दों पर घेरने की बजाय विपक्ष को इन मुद्दों पर इतना घेरता और डराता रहा कि उन्होंने इस मुद्दे पर चुप्पी ही ठीक समझी.
विपक्ष को लोगों से जुड़े मुद्दे तो उठाना ही चाहिए था, जो दुर्भाग्य से कांग्रेस के सिवाय किसी ने नहीं उठाए, लेकिन पुलवामा, राष्ट्रवाद और मोदी-शाह की फूट डालो और राज करो की नीति (धर्म निरपेक्षता का मखौल बनाना) पर चुप्पी की कीमत पर नहीं.
14 फरवरी 2019 को पुलवामा में आतंकी हमले में 40 सीआरपीएफ जवान मारे गए. जो पार्टी मजबूत सरकार और मजबूत नेता का दम भरती थी, यह घटना उसके दामन पर बड़ा दाग थी.
लेकिन कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष में से किसी ने नहीं पूछा कि सेना का दम भरने वाले मोदी ने क्यों इतने खतरनाक इलाके में जवानों को 70 वाहन के एक ही काफिले में भेजा? जबकि ऐसा तो सिविलियन वाहनों के साथ भी नहीं किया जाता.
क्यों उन्हें अलग-अलग टुकड़ियों या हवाई जहाज से नहीं भेजा? क्यों इतनी बड़ी गुप्तचर सूचना की असफलता; जिसे जम्मू कश्मीर के गवर्नर ने माना भी था, पर किसी को जवाबदार नहीं बनाया? किसी ने इस्तीफ़ा नहीं दिया?
सरकार के साथ खड़े होने का मतलब जरूरी सवाल पूछने से बचना नहीं होता है. इस तरह की बड़ी घटना पर सरकार के साथ खड़े रहकर भी कड़े सवाल पूछना विपक्ष का राजनीतिक धर्म है.
इससे देश और सेना की मदद ही होती. जैसे भाजपा ने 26/11 के मुंबई आतंकी हमले पर कांग्रेस को घेरा था.
लेकिन, उसकी बजाय कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपना चुनाव प्रचार ही दो दिन के लिए रद्द कर दिया और वहीं उस घटना के दौरान और बाद में प्रधानमंत्री मोदी ने न सिर्फ अपना फोटो शूट जारी रखा बल्कि उन्होंने फोन के माध्यम से चुनावी सभा को भी संबोधित किया.
उल्टा वो इस मुद्दे पर कांग्रेस पर हमलावर हो गए. यहां तक कि उन्होंने बालकोट एयरस्ट्राइक के बाद देश को संबोधित करने की बजाय अपनी पार्टी के बूथ वर्कर को मजबूत करने के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये उन्हें संबोधित करना जरूरी समझा.
जब चुनाव प्रचार के दौरान मीडिया और भाजपा का भी एक बड़ा वर्ग यह मान रहा था कि पुलवामा और बालाकोट ने बाजी पलट दी है, तो विपक्ष को उसकी काट ढूंढना था. जब मोदी जैसा वक्ता चुनाव की टोन सेट कर रहा हो, तब आप उस मुद्दे को नजरअंदाज कर आगे नहीं बढ़ सकते.
कांग्रेस और विपक्ष को एक अच्छे राजनीतिज्ञ की तरह आतंकवाद पर मोदी सरकार को उनके बड़बोलेपन के लिए घेरना था. उनसे पूछना था कि कश्मीर में उनके समय में सुरक्षा बलों की मौत 93 प्रतिशत बढ़ीं और आतंकी हमले 175 प्रतिशत, उस पर उन्होंने पिछले पांच साल में क्या किया?
अगर विपक्ष पुलवामा पर सही मुद्दे उठाती और उसके बाद बालाकोट एयरस्ट्राइक मुद्दे पर चुप रहती तो मोदी दबाव में आते. लेकिन, कांग्रेस और विपक्ष ने बिलकुल उल्टा किया.
वो पुलवामा हमले पर चुप रहे और कुछ मुद्दों पर सवाल उठाए भी तो तब जब मोदी इस घटना को अपनी कमजोरी की बजाय अपनी सफलता में बदल चुके थे.
बालाकोट पर यहां-वहां सवाल उठाने लगे, जिसे मोदी ने बड़ी चतुराई से सेना की तरफ मोड़ दिया. विपक्ष को बालाकोट एयरस्ट्राइक हुआ या नहीं कि बजाय यह सवाल उठाने थे कि क्या बालाकोट जैसे एक हवाई हमले से आतंकवादी घटनाएं नहीं होंगी.
इसके अलावा विपक्ष, खासकर कांग्रेस को, राष्ट्रवाद की असली परिभाषा को आजादी की लड़ाई से जोड़कर स्पष्ट करना था.
कांग्रेस आजादी के दौर की पार्टी है, उसे लोगों को बताना था कि धर्मनिरपेक्षता राष्ट्रवाद के लिए जरूरी है, जिससे राष्ट्र एक इकाई के रूप में एकता के साथ आगे बढ़े. राष्ट्र को हिन्दू-मुस्लिम में बांटने से वो कमजोर होगा और और यह फूट डालो राज करो की नीति अंग्रेजों की है.
जरूरत थी मोदी पर अंग्रेजों की नीति को अपनाने का आरोप लगाने की. यह समझाने की कि राष्ट्रवाद का मतलब पाकिस्तान विरोध नहीं है.
यह सवाल भी करना था कि अगर देश में किसान आत्महत्या करेंगे, युवा बेरोजगार घूमेगा, और देश में अंदरूनी आतंकवाद बढ़ेगा, तो पाकिस्तान पर हमले भर से देश मजबूत कैसे होगा?
फिर साथ में यह भी सवाल करना था कि वो सैनिकों की मौत को भुना रहे हैं और किसानों की मौत पर क्यों चुप हैं?
यह सवाल पूछने का कम काम यहां-वहां, कुछ हद तक अगर किसी एक नेता ने किया तो वो प्रियंका गांधी थीं. लेकिन उससे कुछ खास फर्क पड़ने वाला नहीं था, क्योंकि उनकी पहुंच बहुत ही कम थी.
प्रज्ञा सिंह ठाकुर की उम्मीदवारी पर भी कांग्रेस की चुप्पी ने भी कांग्रेस को हिंदुत्व के मामले में भाजपा की ‘बी’ टीम बना दिया.
राहुल गांधी को चाहिए था कि वो मोदी को रफाल की बजाय राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद, राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता, बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्या पर बहस के लिए ललकारते. तब जनता को भी लगता कि मोदी जो मुद्दे उठा रहे है और जो नहीं उठा रहे हैं उस पर वो बहस से भाग रहे हैं.
मोदी-शाह जैसे हाईवोल्टेज चुनाव प्रचार के मुद्दे की परतें उतारे बिना आप अपने मुद्दे पर आगे नहीं बढ़ सकते.
अति राष्ट्रवाद का जवाब मोदी-शाह जैसी उग्र भाषा में नहीं, लेकिन तीखे शब्दों में और उनके ही जितनी मजबूती से दिए बिना इस जोड़ी को तोड़ना मुश्किल है.
चुनाव में मोदी-शाह जैसी जोड़ी के साथ भाजपा के प्रचारतंत्र द्वारा उठाए गए मुद्दे से बचकर विपक्ष के लिए नए मुद्दे खड़े करने की कल्पना नादानी थी. ममता और माया ने जो भी तीखे शब्द बोले वो मोदी की निजी जिंदगी पर थे जो उन पर ही भारी पड़े.
देखते हैं विपक्ष इस हार के सदमे से उभरकर कब सही रास्ते पर आता है.
(लेखक समाजवादी जन परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं.)