अवैध खनन माफिया और नक्सलियों के बीच एक साझेदारी है- दोनों ही चाहते हैं कि छतीसगढ़ के जो ज़िले पिछड़े और दूरस्थ हैं, वे वैसे ही बने रहें क्योंकि इनके ऐसे बने रहने में ही इनका फायदा है.
पिछले महीने छत्तीसगढ़ के सुकमा में माओवादियों द्वारा सीआरपीएफ के जवानों की नृशंस हत्या के बाद टाइम्स नाऊ ने सवाल पूछा, ‘क्या कन्हैया और खालिद जैसे लोग’ सुकमा के हमारे शहीदों को सलामी देंगे?’
हमेशा की तरह यह चैनल ग़लत लोगों पर निशाना साध रहा था और ग़लत सवाल पूछ रहा था. इसके संपादक बहुत सोच-समझकर अपने पूर्वाग्रहों को ऐसे दिखा रहे थे मानो उन्हें देश की कितनी चिंता है.
आदिवासी बहुल, लौह-अयस्क से संपन्न और छत्तीसगढ़ में माओवादी हिंसा का गढ़ कहे जानेवाले बस्तर और दंतेवाड़ा देश के दस सर्वाधिक पिछड़े ज़िलों में शुमार हैं. देश के 150 पिछड़े ज़िलों में छत्तीसगढ़ के लगभग सभी ज़िले शामिल हैं.
अक्टूबर, 1980 से जुलाई, 2016 तक भारत ने लगभग 9,00,000 हेक्टेयर वनभूमि को ग़ैर-वन उपयोग के नाम कर दिया. 2015 के आंकड़ों के हिसाब से यह कुल वनभूमि का 1.2 प्रतिशत है.
पूरे भारत में इस तरह किसी दूसरे मक़सद में लगाई गई 8, 97, 698 हेक्टेयर वनभूमि में सर्वाधिक 27 फीसदी से ज़्यादा हिस्सा मध्य प्रदेश का था. 9.7 फीसदी के साथ छत्तीसगढ़ दूसरे स्थान पर था.
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में काफी बड़े भू-क्षेत्र कोयला और लौह-अयस्क खनन की भेंट चढ़ गए हैं. दंतेवाड़ा के एक तिहाई जंगल को खनन गतिविधियों के कारण काफी नुकसान पहुंचा है.
जल-संसाधन के प्रदूषण, प्राकृतिक जंगल को हुए नुकसान और बड़े पैमाने पर हुए भूमि अधिग्रहण ने राज्य की बड़ी आदिवासी आबादी को प्रभावित किया है. स्वतंत्र पर्यवेक्षकों के मुताबिक, भारत में खनन और औद्योगिक परियोजनाओं के कारण विस्थापित होनेवालों में तकरीबन 40 फीसदी आदिवासी हैं, जबकि कुल आबादी में वे सिर्फ 8 फीसदी ही हैं.
सबसे ज़्यादा मार छत्तीसगढ़ और झारखंड पर पड़ी है. जल-जंगल-ज़मीन को हुए नुक़सान और विस्थापन से होनेवाले सामाजिक दुष्परिणामों का अंदाज़ा तो पहले से लगाया गया था, लेकिन इसके राजनीतिक परिणामों का पूर्वानुमान शायद ही किसी को रहा हो. इन राज्यों में व्यापक असंतोष और संघर्षों की परिणति नक्सलवाद के बढ़ते प्रभाव के रूप में हुई है
छत्तीसगढ़ में मेडिकल स्पेशलिस्टों की कुल स्वीकृत संख्या करीब 1,200 है, लेकिन इनमें से सिर्फ 250 पद ही भरे गए हैं, और वे भी बस्तर के ग्रामीण, आदिवासी और हिंसा-प्रभावित क्षेत्रों से बाहर ही तैनात हैं. इससे स्वास्थ्य सेवाओं का पहले से ही कमज़ोर बुनियादी ढांचा चरमरा गया है.
इन क्षेत्रों में जीवन स्थितियां और मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाएं इतनी बदतर हैं कि यहां तैनात सुरक्षाकर्मी भी दशकों की आपराधिक उपेक्षा और प्रशासनिक उदासीनता से बच नहीं पाए हैं. 2012 में 36 सीआरपीएफ जवानों की मृत्यु मच्छर के काटने और दिल का दौरा पड़ने के कारण हुई, जबकि इसी साल माओवादी हिंसा में शहीद हुए जवानों की संख्या 20 थी.
2014 में जहां, सीआरपीएफ के 50 जवान माओवादी हमलों मे शहीद हुए वहीं 95 जवानों की मृत्यु विभिन्न रोगों के कारण हुई. इनमें 27 मौतें मलेरिया से हुईं, जबकि 35 मौतें दिल का दौरा पड़ने के कारण हुई.
ये आंकड़े नक्सल प्रभावित इलाकों में तैनात जवानों की खराब काम की परिस्थितियों और बदहाल स्वास्थ्य सुविधाओं के बारे में तो बताते ही हैं, साथ ही स्थानीय समुदायों के दयनीय हालात को भी बयान करते हैं.
अप्रैल, 2012 से सितंबर, 2015 के बीच छत्तीसगढ़ में अवैध खनन के 13,383 मुकदमे विभिन्न अदालतों में दायर किए गए और 1,138 गाड़ियों को ज़ब्त किया गया.
मध्य प्रदेश के लिए यही आंकड़ा क्रमशः 28,830 और 14,671 है. ये आंकड़े यह बताने के लिए काफ़ी हैं कि इन राज्यों में अवैध खनन का धंधा कितने बड़े पैमाने पर चल रहा है और वहां संगठित खनन माफिया सिंडिकेट और उनके राजनीतिक आका क्या गुल खिला रहे हैं.
संगठित अवैध खनन स्थानीय पुलिस और राजस्व अधिकारियों के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष मिलीभगत के बग़ैर मुमकिन नहीं है. पुलिस और राजस्व अधिकारी इस गोरखधंधे में नेताओं, भले वे किसी भी पार्टी के हों, के आशीर्वाद के बग़ैर शामिल नहीं हो सकते.
अवैध खनन सिंडिकेट और नक्सलियों का आपस में सह-अस्तित्व वाला रिश्ता है. इन दोनों का फायदा इस बात में है कि घने जंगलों, कम आबादी और खनिज संसाधनों से संपन्न यह इलाका बाहरी दुनिया से कटा हुआ और आर्थिक रूप से पिछड़ा बना रहे.
खनन माफिया सोने का अंडा देने वाले कारोबार को इतनी आसानी से अपने हाथों से निकलने नहीं दे सकते. ये इस बात की भरसक कोशिश करते रहे हैं कि इन इलाकों का सड़कों, मोबाइल और इंटरनेट के सहारे बाहरी दुनिया से जुड़ाव न हो.
यही वजह है कि वे माओवादियों की आर्थिक मदद करते हैं और इस तरह देखें, तो सुरक्षा बलों पर माओवादियों के हमले में इनका भी पैसा लगा होता है. नक्सलियों द्वारा सड़कों, स्कूलों, अस्पतालों, पुलिस चौकियों और दूसरे बुनियादी ढांचों का निर्माण न होने देना अवैध खनन माफियाओं के हित में है.
इससे इन इलाकों तक लोगों और पूंजी की पहुंच मुश्किल होती है. सड़क-संपर्क खुलेपन को बढ़ावा देनेवाला साबित होगा. इन इलाकों में अगर मोबाइल की सुविधाएं पहुंच गयीं तो कोई भी अवैध खनन का वीडियो बना सकता है.
यह अधिकारियों को कार्रवाई करने और मीडिया को सच दिखाने के लिए मजबूर कर सकता है. ऐसा हुआ तो अवैध खनन को जनता से छिपाना मुश्किल हो जाएगा.
अवैध खनन का सबसे ज़्यादा फायदा नेताओं को पहुंचा है. यह बात प्रमाण के साथ कही जा सकती है. शारदा चिट-फंड घोटाले में सीबीआई की प्राथमिक जांच से यह बात सामने आई थी कि उत्तर-पूर्व में अवैध खनन मे कम से कम 1,000 करोड़ रुपये का निवेश हुआ था.
ममता बादकर ने बिजनेस इनसाइडर के लिए रिपोर्टिंग करते हुए प्रमाण के तौर पर कुछ तस्वीरें लगाई थीं, जो उत्तर-पूर्व में अवैध खनन के अमानवीय हालातों की गवाही दे रही थीं. इसके सबसे बड़े लाभार्थी शारदा जैसे निवेशक और विभिन्न दलों से रिश्ता रखनेवाले नेता थे.
इतना ही नहीं, जस्टिस जेसी शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट में 14 खननकर्ताओं का नाम लिया था और मामले की सीबीआई जांच की मांग की थी. ये सब ओडिशा में अवैध खनन से जुड़े थे.
एक संयोग है कि अवैध खनन के सबसे ज़्यादा रजिस्टर्ड मामले महाराष्ट्र में दर्ज किए गए थे, मगर किसी भी राजनीतिक दल ने, यहां तक कि लेफ्ट ने भी इस मुद्दे को उठाना मुनासिब नहीं समझा.
छत्तीसगढ़ पुलिस के रवैये को सुप्रीम कोर्ट की गंभीर जांच का सामना करना पड़ा है. इस साल जनवरी में सीबीआई ने छत्तीसगढ़ पुलिस के सात कॉन्स्टेबलों पर 2011 में सुकमा के तीन गांवों पर छापों के दौरान आगजनी और ग्रामीणों को गंभीर रूप जख्मी करने का आरोप लगाया था. एक अन्य मामले में 26 लोगों पर, जिनमें कई पूर्व सलवा जुडूम के सदस्य हैं, उपद्रव और हिंसा करने के आरोप हैं.
दिसंबर, 2015 में इस मामले की जांच के दौरान सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक हलफनामा दायर किया था, जिसमें यह आरोप लगाया गया था कि छत्तीसगढ़ पुलिस माओवाद प्रभावित इलाकों में महत्वपूर्ण मामलों में उसकी तहक़ीक़ात में अड़चनें डाल रही है.
सीबीआई ने उन मौक़ों का उल्लेख किया है जब राज्य पुलिस कर्मियों ने इसकी टीम पर हमले किए. अगर यह सब देश के शीर्ष संघीय एजेंसी के अधिकारियों के साथ हो सकता है, तो फिर छत्तीसगढ़ के गरीब आदिवासियों के साथ क्या हो रहा है, इसका बस अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है.
मैं आशा करता हूं कि टाइम्स नाऊ और इसके जैसे दूसरे चैनल राष्ट्रवाद का यह खेल खेलने से पहले अपना होमवर्क कर लेने के लिए थोड़ा समय निकालेंगे. ‘द नेशन वांट्स टू नो’ (देश जानना चाहता है) की इस टैगलाइन पर टेलीविज़न एंकरों का अधिकार नहीं है. यह भारत की जनता का हक़ है.
(बसंत रथ भारतीय पुलिस सेवा (2000, जम्मू-कश्मीर) में हैं. वे जम्मू-कश्मीर में कार्यरत हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
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