झारखंड: क्या लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली क़ामयाबी से विपक्ष सबक ले पाएगा?

झारखंड में महागठबंधन और जन विरोध के बावजूद भाजपा बड़ी जीत हासिल करने में कामयाब रही. राज्य गठन के बाद हुए लोकसभा चुनावों के वोट शेयर का आकलन किया जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि झारखंड लंबे समय से इस परिणाम की ओर बढ़ रहा था. अब सवाल ये है कि क्या वे लोकसभा चुनाव में मिली हार के अनुभव से सीखते हुए चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार हैं.

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(फोटो: रॉयटर्स)

झारखंड में महागठबंधन और जन विरोध के बावजूद भाजपा बड़ी जीत हासिल करने में कामयाब रही. राज्य गठन के बाद हुए लोकसभा चुनावों के वोट शेयर का आकलन किया जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि झारखंड लंबे समय से इस परिणाम की ओर बढ़ रहा था. अब सवाल ये है कि क्या वे लोकसभा चुनाव में मिली हार के अनुभव से सीखते हुए चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार हैं.

(फोटो: रॉयटर्स)
(फोटो: रॉयटर्स)

2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पूर्ण बहुमत के साथ जीती है. झारखंड की कुल 14 लोकसभा सीटों में से भाजपा ने 11 जीती हैं और उसकी सहयोगी अखिल झारखंड छात्र संघ पार्टी (आजसू) ने एक जीती है. विपक्षी दलों में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और कांग्रेस को एक-एक सीट ही मिली.

हालांकि 2014 में भाजपा को 12 सीटें मिली थीं, फिर भी इस बार के परिणाम ने अनेकों को आश्चर्यचकित किया है.

झारखंड का विपक्षी महागठबंधन, जिसमें सभी गैर वामदल- कांग्रेस, झामुमो, झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) व राष्ट्रीय जनता दल (राजद) साथ आए थे. कांग्रेस ने सात सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे, झामुमो ने चार, झाविमो ने दो एवं राजद ने एक सीट पर प्रत्याशी उतरा था.

महागठबंधन की पार्टियों को यह अपेक्षा थी कि वे इस गठजोड़ से विभिन्न समुदायों के वोटों को समेकित कर पाएंगे. झारखंड की कुल आबादी में 27 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति है, 12 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति एवं 35-40 प्रतिशत पिछड़ी जाति है.

धार्मिक रूप से 67.83 प्रतिशत हिंदू, 14.5 प्रतिशत मुसलमान,  4.3 प्रतिशत ईसाई और 12.84 प्रतिशत अन्य (मुख्यतः आदिवासी धर्म मानने वाले) हैं. यह गौर करने की बात है कि जनगणना में आदिवासी धर्म कोड न होने के कारण अनेक आदिवासियों का धर्म ‘हिंदू’ डाल दिया गया था.

जीत पर आश्चर्यचकित होने का एक और कारण है. पिछले पांच सालों में राज्य के भाजपा सरकार के कामकाज पर कई सवाल उठते रहे हैं. 2015 से अब तक 11 लोगों (9 मुसलमान और 2 आदिवासी) की भीड़ द्वारा पिटाई से मौत हुई और कम-से-कम 19 लोगों की भूख से मौत हुई.

भूमि अधिग्रहण संबंधित कानूनों में फेरबदल (जैसे अधिग्रहण के लिए ग्रामसभा की अनुमति के प्रावधानों को कमज़ोर करना) करने की लगातार कोशिशों के कारण आदिवासियों के बीच भी सरकार अप्रिय बनी. पर व्यापक जन विरोध के दबाव से सरकार को इन कानूनों में प्रस्तावित संशोधनों को वापस लेना पड़ा.

महागठबंधन और जन विरोध के बावजूद भाजपा बड़ी जीत हासिल करने में कामयाब रही. अगर राज्य गठन के बाद हुए लोकसभा चुनावों के वोट शेयर, राजनीतिक इतिहास और वर्तमान की ज़मीनी रिपोर्ट का आकलन किया जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि झारखंड लंबे समय से इस परिणाम की ओर बढ़ रहा था.

भाजपा का वोट शेयर 2004 (राज्य गठन के बाद पहला लोकसभा चुनाव) में 33 प्रतिशत से बढ़कर 2019 में 51 प्रतिशत हो गया है. दूसरी ओर, इसी दौरान महागठबंधन दलों का कुल वोट में हिस्सा लगातार घटता रहा है (देखें टेबल 1).

2014 के विधानसभा एवं 2015 के पंचायती राज चुनावों के परिणाम से भी यह समझा जा सकता है कि भाजपा की चुनावी पकड़ लगातार बढ़ रही है. इस बढ़त और 2019 की जीत के तीन मुख्य कारण सामने आते हैं.

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हिंदुत्व का बढ़ता खेमा

द हिंदू-सीएसडीएस लोकनीति के 2019 के पोस्ट-पोल सर्वेक्षण के अनुसार, झारखंड में महागठबंधन को आदिवासी वोटों का एक बड़ा हिस्सा एवं अधिकांश मुसलमान और ईसाई वोट मिला है. इसके बावजूद इनका गठजोड़ भाजपा के हिंदुत्व के आधार पर समेकित कुल वोटों से बहुत पीछे रह गया.

पिछड़ी जातियों और दलितों को हिंदुत्व खेमे में लाने में भाजपा की सफलता लगातार झारखंड गठन के बाद से ही बढ़ रही है. राज्य में पिछड़ों के लिए कोई ठोस राजनीतिक विकल्प न होना भी इसमें मददगार साबित हुआ है.

पिछले पांच सालों में भाजपा ने इन दोनों बिंदुओं पर ख़ास जोर दिया है. राज्य का सबसे बड़ा विपक्षी दल झामुमो को एक आदिवासी पार्टी के रूप में देखा जाता है, जिसमें पिछड़ों के लिए कुछ ख़ास स्थान नहीं है. लोकनीति के सर्वेक्षण में यह पाया गया है कि इस चुनाव में पिछड़ी जातियों के कुल वोट का 70 प्रतिशत भाजपा-आजसू को मिला है.

राज्य की आठ गैर-अनुसूचित जनजाति सीटों में भाजपा-आजसू को महागठबंधन से दोगुना वोट मिला है. साथ ही, इन सीटों पर दोनों दलों का वोट शेयर 2014 के 47 प्रतिशत से बढ़कर इस साल 60 प्रतिशत हो गया (देखें टेबल 2).

चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रवाद और पाकिस्तान के विरुद्ध सर्जिकल स्ट्राइक को मुद्दा बनाने से भी मदद मिली.

हिंदुत्व के खेमे को बढ़ाने की रणनीति रामनवमी के बदलते चरित्र से समझा जा सकता है. रामनवमी में युवाओं व बच्चों के हाथों में अस्त्र, सिर पर भगवा पट्टी और हिंदू धर्म को ‘जय श्रीराम’ के नारे में सिमित कर देने का प्रचलन साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है.

रामनवमी के नाम पर आपत्तिजनक और सांप्रदायिक गानों का प्रचलन भी बढ़ रहा है. राम, सीता व हनुमान के लिए शांतिपूर्ण आस्था का मौका होने के बजाय यह पर्व हिंदुत्व पहचान का एक उग्र रूप ले रहा है, जिसमें सवर्ण के अलावा पिछड़ी जातियों, दलितों और आदिवासियों को भी जोड़ा जा रहा है.

भाजपा एवं आरएसएस से जुड़े विभिन्न संगठन और नेता रामनवमी के आयोजन में सक्रिय भूमिका निभाते हैं. इस ध्रुवीकरण में एक और कोशिश रही है गाय पर राजनीति कर हिंदुत्व के खेमे को बढ़ाना.

उदाहरण के लिए, भाजपा के नेताओं द्वारा अल्पसंख्यकों की लिंचिंग के दोषियों का समर्थन करना. 2018 में भाजपा के मंत्री जयंत सिन्हा ने रामगढ़ में अलीमुद्दीन अंसारी की लिंचिंग के दोषियों, जिन्हें ज़िला कोर्ट ने दोषी पाया था, को उच्चतम न्यायालय द्वारा जमानत मिलने के बाद माला पहनाकर स्वागत किया था. इस घटना के विरुद्ध चारों तरफ़ हल्ला तो बहुत हुआ, लेकिन भाजपा ने मुंह तक नहीं खोला.

आदिवासी बहुल सीटों पर परिणाम और राजनीति कुछ और दिखती है. अगर सभी छह अनूसूचित जनजाति सीटों को देखें, तो इनमें पिछले पांच सालों में महागठबंधन की पार्टियों का कुल वोट शेयर 33.89 प्रतिशत से बढ़कर 43.45 प्रतिशत हुआ है.

इस बढ़त का एक मुख्य कारण था भूमि कानूनों में संशोधन के विरुद्ध आदिवासियों का विरोध एवं विपक्ष द्वारा उनका समर्थन. महागठबंधन दो सीटों पर जीती. दो सीटों पर काफी कड़ा मुकाबला था एवं अन्य दो में, ये स्पष्ट रूप से हारे.

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आदिवासियों में भाजपा के विरुद्ध गुस्से के बावजूद भी पार्टी ने अनुसूचित जनजाति सीटों पर 2014-19 में अपने वोट शेयर को बढ़ाया है. आदिवासी इलाकों में भी भाजपा और आरएसएस तेजी से अपनी पकड़ बना रहे हैं. 2017 में राज्य सरकार ने धर्मांतरण नियंत्रण कानून बनाया, जिससे भाजपा ईसाई और गैर-ईसाई आदिवासियों में विभाजन को बढ़ाने में सफल हुई.

गौर करें कानून बनने के बाद राज्य सरकार ने सभी प्रमुख अखबारों के प्रथम पृष्ठ पर इस कानून के विषय में एक विज्ञापन छापा था. इसमें महात्मा गांधी द्वारा एक चर्चा में ईसाई मिशनरियों और धर्मांतरण पर की गई टिप्पणी को ऐसे तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया था जैसे कि वे ईसाई विरोधी थे.

सरकारी योजनाओं को राजनीतिक मुद्दा बनाना

इस जीत का एक और मुख्य कारण था भाजपा द्वारा सरकार की प्रमुख योजनाओं जैसे- आवास एवं गैस सब्सिडी कार्यक्रमों के साथ पार्टी को सीधा जोड़ना. इन कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में अनेक कमियां रहीं, लेकिन भाजपा इन योजनाओं के माध्यम से लाभार्थियों व अन्य वोटरों को प्रधानमंत्री के पक्ष में गोलबंद करने में सक्षम हुआ. चाहे राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय नेता हो या प्रखंड स्तरीय नेता, सभी एक ही बात दोहरा रहे थे कि कैसे प्रधानमंत्री ने सबको आवास और गैस सिलेंडर दिया है.

दूसरी ओर, विपक्ष सामाजिक सुरक्षा अधिकारों जैसे- राशन, पेंशन, मनरेगा आदि में हो रहे व्यापक उल्लंघनों पर लोगों को गोलबंद करने में असमर्थ रहा. झारखंड में पिछले कई वर्षों में ऐसे उल्लंघनों की खबरें लगातार आती रहीं.

जन संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने लगातार सरकार की विफलताओं पर सवाल उठाया. इन मुद्दों पर विपक्षी नेता प्रेस वार्ताओं में तो चर्चा करते रहे, लेकिन शायद ही उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा इनका इस्तेमाल लोगों को एकजुट करने में किया गया.

उदाहरण के लिए, मनरेगा की मजदूरी दर, जो केंद्र सरकार तय करती है, झारखंड के न्यूनतम मजदूरी दर से 71 रुपये कम है. पिछले पांच वर्षों में इसमें न के बराबर बढ़ोतरी हुई है. इस मुद्दे को झामुमो और कांग्रेस के नेताओं ने प्रेस वार्ताओं व सोशल मीडिया में कई बार उठाया, लेकिन उनके दल द्वारा इस मुद्दे पर राज्य के लाखों मनरेगा मज़दूरों को मोदी सरकार के विरुद्ध संगठित नहीं किया गया.

सांगठनिक ढांचा

भाजपा कार्यकर्ताओं की संख्या अन्य किसी भी विपक्षी दल, खासकर के कांग्रेस, से अधिक है. ये लोग सक्रियता के साथ लोगों को उनकी पार्टी की विचारधारा और सरकार के पक्ष में गोलबंद करते रहे.

वहीं दूसरी ओर, कांग्रेस के कार्यकर्ता मुश्किल से गांवों में दिखे. 2017 में कांग्रेस ने जन कल्याणकारी योजनाओं में गड़बड़ी के विरुद्ध राज्यभर में प्रखंड स्तरीय धरने का आयोजन किया था. अधिकांश धरनों में केवल कुछ ठेकेदार और बिचौलिए दिखे. गांव के मजदूरों और योजनाओं के लाभांवितों की उपस्थिति न के बराबर थी.

इस चुनाव में पार्टी के आंतरिक अनुशासन का भी असर देखने को मिला. भाजपा ने गिरिडीह सीट के सांसद रविंद्र पांडेय (जो लगातार दो बार जीते थे) को टिकट न देकर वह सीट आजसू को दे दी. इस निर्णय के विरुद्ध शुरुआती दिनों में रविंद्र पांडेय सार्वजनिक मंचों पर अपना गिला शिकवा जाहिर किए, लेकिन नेतृत्व के दबाव में जल्द ही उन्हें निर्णय को मानना पड़ा. आजसू उस सीट पर बड़े फासले से जीती.

इसके विपरीत कांग्रेस में देखने को मिला. गोड्डा की सीट महागठबंधन में झाविमो को दी गई थी. उस क्षेत्र के कांग्रेस के पूर्व सांसद फुरकान अंसारी और उनके बेटे वर्तमान विधायक लगातार इस निर्णय का विरोध करते रहे, हालांकि गठबंधन की हार का यह एक मात्र कारण नहीं था, लेकिन इसका असर भी रहा.

चाहे धार्मिक ध्रुवीकरण करना हो या सरकारी योजनाओं को प्रधानमंत्री से जोड़ना, भाजपा ने सोशल मीडिया (फेसबुक, ट्विटर व वाट्सएप) में अपनी पहुंच का पूरा फायदा उठाया.

हालांकि झाविमों को छोड़ महागठबंधन के सभी दल सोशल मीडिया पर सक्रिय दिखे, वे भाजपा की तुलना में काफी पीछे थे. इस जीत में सरकार के पक्ष में स्थानीय मीडिया की रिपोर्टिंग ने भी अपनी भूमिका निभाई.

धार्मिक बहुसंख्यकवाद और हिंदुत्व की बढ़ती सोच को बदलने से लेकर जमीनी स्तर पर अपनी कमज़ोरियों को हटाने तक, विपक्षी दलों के लिए आने वाले विधानसभा चुनाव के लिए चुनौतियां स्पष्ट हैं. सवाल है कि क्या वे अपने नेताओं के आपसी झगड़ों को खत्म कर और इस चुनाव के अनुभव से सीखते हुए चुनौतियों का सामना करने के लिए  तैयार हैं.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)