चमकी बुखार या एईएस से बिहार में अब तक क़रीब 150 बच्चों की मौत हो चुकी है. एईएस से निपटने के लिए बिहार सरकार की लापरवाही का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन 2019-20 के तहत इस पर शोध, पीड़ितों का पुनर्वास और लोगों को जागरूक करने के लिए किसी फंड की मांग नहीं की.
नई दिल्ली: बिहार में एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) या चमकी बुखार से अब तक करीब 150 बच्चों से ज्यादा की मौत हो चुकी है. तकरीबन 100 से अधिक बच्चों की मौत के बाद देश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन और केंद्रीय राज्य मंत्री अश्विनी चौबे ने 17 जून को मुज़फ्फरपुर का दौरा किया था और कई घोषणाएं कीं.
स्वास्थ्य मंत्री ने दावा किया कि वे इस बीमारी से समाधान के लिए श्री कृष्ण मेडिकल कॉलेज व अस्पताल (एसकेएमसीएच) में 100 बेड का पीडियाट्रिक आईसीयू वॉर्ड बनाएंगे और सभी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) में 10-10 बेड का पीडियाट्रिक आईसीयू बनेगा. पीएचसी पर सर्वेक्षण के आधार पर डॉक्टरों की तैनाती होगी, सभी पीएचसी पर ग्लूकोमीटर, पर्याप्त एम्बुलेंस और दवा की व्यवस्था उपलब्ध कराई जाएगी.
बीमारी पर शोध के लिए कोई बजट नहीं
हालांकि राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के तहत स्वास्थ्य सेवाओं के लिए बिहार सरकार द्वारा मांगे गए और केंद्र सरकार द्वारा स्वीकृत किए गए बजट से बिहार और केंद्र सरकार का गैर-जिम्मेदाराना रवैया एवं उनकी संवेदनहीनता का पता चलता है.
द वायर द्वारा सार्वजनिक दस्तावेजों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि साल 2019-20 के लिए बिहार सरकार ने एईएस/जेई (जापानी इंसेफलाइटिस) बीमारी पर शोध करने के लिए एक भी रुपये की मांग नहीं की और केंद्र सरकार ने भी इसके लिए कोई बजट आवंटित नहीं किया है.
बिहार सरकार इस बात को लेकर सवालों के घेरे में है कि हर साल इस बीमारी से सैकड़ों बच्चों की मौत होने के बाद भी राज्य सरकार इसके असल कारणों की पड़ताल और इससे लोगों को बचाने की योजना अब तक नहीं बना पाई है.
एनएचएम के बजट में 60 फीसदी केंद्र और 40 फीसदी राज्य सरकार की हिस्सेदारी होती है. केंद्रशासित प्रदेशों के मामले में ये आकड़ा 90:10 का होता है.
मामले को रेफर करने के लिए आशा वर्कर को पैसे नहीं
एईएस/जेई बीमारी को लेकर लोगों को संवेदनशील बनाने के लिए आशा कार्यकर्ताओं को इसकी जिम्मेदारी दी जाती थी. इस काम के लिए अलग से बजट आवंटित किया जाता है. हालांकि एनएचएम के तहत बिहार सरकार के लिए आवंटित बजट से पता चलता है कि राज्य सरकार ने साल 2019-20 के लिए एक रुपये की भी मांग नहीं की थी और न ही कोई राशि स्वीकृत हुई है.
दूरदराज के इलाकों में इस बीमारी के बारे में लोगों को कम जानकारी होती है, इसलिए वो सही से इलाज नहीं करा पाते थे. इसी वजह से ग्रामीण स्तर पर तैनात आशा वर्कर को ये जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि वे अगर किसी मामले में इस बीमारी की संभावना देखती हैं तो इसे नजदीकी जिला अस्पताल या सामुदायिक अस्पताल में रेफर करें.
साल 2018-19 की बजट के मुताबिक एक मामले को रेफर करने पर आशा वर्कर को 100 रुपये की प्रोत्साहन राशि दिए जाने का प्रावधान रखा गया था. इसके लिए पांच लाख रुपये स्वीकृत किए गए थे.
हालांकि इस काम के लिए साल 2019-20 के बजट में 80 फीसदी की गिरावट आई और इस साल, इस काम के लिए सिर्फ एक लाख रुपये का प्रावधान रखा गया है.
इसके संकेत साफ हैं कि ग्रामीण स्तर पर जानकारी के अभाव की वजह से हो सकता है कि कई नवजात अस्पताल न पहुंच पाएं और गांव में ही दम तोड़ दें, क्योंकि जानकारी देने का काम आशा वर्कर करती हैं और ऐसा करने के लिए उन्हें कोई खास पैसा नहीं दिया जा रहा है.
एक और खास बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि एईएस बीमारी वाली मौतें इसलिए होती हैं क्योंकि पीड़ित बच्चा या तो देरी से अस्पताल पहुंचता है या फिर परिवार को उसके बीमारी की जानकारी नहीं होती है.
ये चीजें बताने के लिए आशा वर्कर बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, लेकिन इसी काम के लिए बिहार सरकार ने न तो किसी खास बजट की मांग की और न ही इसके लिए बजट आवंटित हुआ है.
साल 2011 में मंत्रियों के एक समूह ने सुझाव दिया था कि इस बीमारी के मामलों को रेफर करने के लिए आशा वर्कर को शामिल किया जाना बेहद जरूरी है.
भारत सरकार ने नवंबर 2011 में मंत्रियों के समूह (जीओएम) का गठन किया था, जिनका काम जेईएस/जेई बीमारी की समस्या को हल करने के लिए दीर्घकालीन रणनीति तैयार करनी थी.
जीओएम ने चार बैठकें करने के बाद सुझाव दिया कि इस समस्या को हल करने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर करना, जेई टीकाकरण, साफ पानी एवं स्वच्छता, प्रभावित जिलों में पुनर्वास की व्यवस्था और काउंसलिंग सेंटर स्थापित करना, बच्चों के पोषण को बेहतर करना और इस बीमारी वाले मामलों को रेफर करने के लिए आशा वर्कर को शामिल करना होगा.
फॉगिंग के लिए सिर्फ 50 हजार, क्षमता निर्माण के लिए एक रुपया भी नहीं
एईएस/जेई से बचाव के लिए प्रभावित जिलों में फॉगिंग की जानी होती है. हालांकि साल 2019-20 के बजट के मुताबिक बिहार सरकार ने प्रभावित जिलों में फॉगिंग के लिए सिर्फ 50 हजार की मांग की थी और सिर्फ इतनी ही राशि स्वीकृत हुई है. जेई बीमारी के खिलाफ सामुदायिक स्तर पर अभियान चलाने के लिए एक रुपया भी आवंटित नहीं हुआ है.
इसी तरह, इस बीमारी के प्रति लोगों के अंदर क्षमता निर्माण (कैपिसिटी बिल्डिंग) की दिशा में बिहार सरकार ने एनएचएम के तहत एक भी रुपये की मांग नहीं की और केंद्र सरकार ने भी कोई राशि स्वीकृत भी नहीं की है.
बिहार सरकार के राज्य स्वास्थ्य समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस बीमारी से दस मरीजों में से दो से चार मरीजों की मौत हो जाती है और तीन से चार मरीज किसी न किसी प्रकार की विकलांगता के शिकार हो जाते हैं. सिर्फ दो से पांच बच्चे पूरी तरह से ठीक हो पाते हैं.
लेकिन बिहार सरकार ने इस बीमारी की वजह से विकलांग हुए बच्चों के पुनर्वास के लिए कोई बजट निर्धारित नहीं किया है. एनएचएम द्वारा स्वीकृत किए गए साल 2018-19 के बजट के मुताबिक, राज्य सरकार ने इसके लिए एक रुपये की भी मांग नहीं की थी. वहीं 2019-20 के बजट में इसका कोई जिक्र भी नहीं है.
ध्यान देने वाली बात ये है कि साल 2011 के जीओएम ने अपने सुझावों में पुनर्वास की व्यवस्था किए जाने पर काफी जोर दिया है.
क्या है अस्पतालों की स्थिति
बिहार सरकार ने एनएचएम के तहत स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर बेहतर करने के लिए 463.44 करोड़ रुपये की मांग की थी, लेकिन साल 2019-20 के लिए सिर्फ 275.29 करोड़ रुपये की ही राशि स्वीकृत की गई है.
इसमें से 209.57 करोड़ रुपये पहले के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी), प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी), जिला अस्पताल और अन्य संस्थाओं को अपग्रेड करने में खर्च किए जाने हैं.
इस साल के बजट के मुताबिक दो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र को अपग्रेड किया जाना है. हालांकि एक भी नया पीएचसी, जिला अस्पताल, सीएचसी बनाने के लिए इस बजट में कोई प्रावधान नहीं है.
बिहार सरकार ने पांच पीएचसी बनाने के लिए करीब चार करोड़ 75 लाख रुपये की मांग की थी, लेकिन इसके लिए कोई पैसा स्वीकृत नहीं किया गया.
हाल ही में सरकार ने दावा किया कि वो जल्द पीडियाट्रिक ओपीडी की संख्या बढ़ाएगी. हालांकि इस साल के लिए स्वीकृत एनएचएम बजट से पता चलता है कि साल 2018-19 के लिए भी 18 जिला अस्पतालों में पीडियाट्रिक ओपीडी और वार्ड बनाने के लिए 72 लाख रुपये का बजट पारित किया था, लेकिन इस दिशा में अभी तक कोई काम शुरू नहीं हुआ है.
पीडियाट्रिक ओपीडी और वार्ड की स्थिति
इस साल के लिए भी इसी काम के लिए 72 लाख रुपये स्वीकृत किए गए हैं. केंद्र के मुताबिक साल 2018-19 में पीडियाट्रिक ओपीडी और वार्ड में बायो-मेडिकल उपकरण लगाने के लिए 1.62 करोड़ रुपये जारी किए गए थे, लेकिन अभी तक कोई काम नहीं शुरू हुआ है.
इस साल में भी 18 जिला अस्पतालों के लिए इतनी ही राशि का बजट दिया गया है. पीडियाट्रिक वार्ड में फर्नीचर लगाने के लिए साल 2018-19 में 1.26 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए थे, लेकिन अभी तक कोई काम शुरू नहीं हुआ है. इस साल भी 18 जिला अस्पतालों में इस काम के लिए 63 लाख स्वीकृत किया गया है.
वहीं, नेशनल वेक्टर बॉर्न डिजीज कंट्रोल प्रोगाम के तहत बायो मेडिकल उपकरण खरीदने के लिए कोई राशि नहीं आवंटित की गई है.
आमतौर पर ये शिकायत होती है प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में हर समय डॉक्टर उपलब्ध नहीं होते हैं और आपातकालीन स्थिति में मरीज को इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ता है. पीएचसी को 24 घंटे चालू रखने के लिए बिहार सरकार ने एनएचएम के तहत किसी बजट मांग नहीं की.
जेई/एईएस से प्रभावित जिले हैं 15, लेकिन सिर्फ छह जिलों में ही आईसीयू का बजट
सरकार ने हाल ही में जेई/एईएस से प्रभावित जिलों में आईसीयू बनाने का वादा किया. नेशनल प्रोग्राम फॉर प्रीवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ जेई/एईएस के तहत बिहार में 15 जिले इस बीमारी के प्रभाव में हैं. हालांकि केंद्र सरकार ने इस साल के बजट में सिर्फ छह जिलों में ही आईसीयू बनाने के लिए बजट स्वीकृत किया है. प्रति आईसीयू बनाने में 2.11 करोड़ रुपये का खर्च आने की संभावना है.
एईएस/जेई बीमारी से बिहार के सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों में जागरूकता (आईसी/बीसीसी यानी कि सूचना, शिक्षा, परिवर्तन को मजबूत करने का कार्यक्रम) के लिए 45 लाख स्वीकृत किए गए हैं. लेकिन इस काम की मॉनिटरिंग के लिए एक रुपया भी आवंटित नहीं किया गया. इसी तरह जापानी इंसेफलाइटिस (जेई) बीमारी से बचाव के लिए दी जाने वाली ट्रेनिंग के लिए भी कोई पैसा नहीं दिया जा रहा है.
रेफर किए गए इस बीमारी से पीड़ित बच्चों को अस्पताल पहुंचाने के लिए किसी तरह की एंबुलेंस या ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था इस साल के बजट में नहीं है. बिहार सरकार ने इसके लिए किसी राशि की मांग भी नहीं की. वहीं राज्य की 102 नंबर वाली बेसिक एंबुलेंस के लिए भी कोई राशि स्वीकृत नहीं की गई है.
हालांकि राज्य आपदा प्रबंधन के लिए 47, पॉवर ग्रिड कॉर्पोरेशन के लिए पांच, केंद्र के ट्रॉमा सेंटर के लिए नौ और 49 पूर्व एलएसए एंबुलेंस के लिए करीब 10 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए हैं.