राजस्थान के हाड़ौती क्षेत्र से लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला दूसरी बार संसद पहुंचे हैं. इसी क्षेत्र के झालावाड़-बारां ज़िले से प्रदेश की दो बार मुख्यमंत्री रह चुकीं वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह चौथी बार सांसद चुने गए हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने उनमें न तो कोई विश्वास जताया है और न ही केंद्र में उन्हें कोई जगह दी है.
जयपुर: ओम बिड़ला लोकसभा अध्यक्ष पद पर चुने जाने से पहले तक लुटियन दिल्ली और राष्ट्रीय मीडिया के लिए अनजाना सा नाम थे. राजस्थान के कोटा-बूंदी लोकसभा क्षेत्र से दूसरी बार सांसद चुने गए ओम बिड़ला इससे पहले तीन बार विधायक रह चुके हैं, जिसमें दो बार का कार्यकाल उन्होंने पूरा किया.
2013 में विधायक चुने जाने के बाद 2014 में उन्होंने लोकसभा का चुनाव लड़ा और इज्यराज सिंह को हराकर संसद पहुंच गए.
यह पहली बार है कि राजस्थान मूल का कोई सांसद लोकसभा अध्यक्ष के पद पर पहुंचा है. इससे पहले 1984 में सीकर से सांसद रहे बलराम जाखड़ लोकसभा अध्यक्ष बने थे लेकिन वह मूलरूप से पंजाब के रहने वाले थे.
केंद्र में अब तीन मंत्री और लोकसभा अध्यक्ष राजस्थान से ताल्लुक रखते हैं. बिड़ला के लोकसभा अध्यक्ष बनने से पहले प्रदेश में वसुंधरा विरोधी माने जाने वाले गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुनराम मेघवाल और कैलाश चौधरी को मोदी-शाह की जोड़ी ने मंत्री पद पर बिठाया है.
हालांकि 2014 में प्रदेश के छह सांसदों को मंत्री बनाया गया था. कहा जा रहा है इसी कमी को पूरा करने के लिए राजस्थान के हाड़ौती से निकले बिड़ला को लोकसभा अध्यक्ष बनाया गया है.
वसुंधरा विरोधी खेमे के माने जाने वाले राजस्थान के कई कद्दावर नेताओं के केंद्र में मजबूत स्थिति में होने से अब प्रदेश में चर्चा होने लगी है कि क्या ओम बिड़ला के लोकसभा अध्यक्ष बनने के बाद राज्य में वसुंधरा गुट और कमजोर हुआ है?
इस सवाल को बल इसीलिए भी मिलता है कि जिस हाड़ौती क्षेत्र से बिड़ला दूसरी बार संसद पहुंचे हैं, उसी हाड़ौती के झालावाड़-बारां जिले से प्रदेश की दो बार मुख्यमंत्री रह चुकीं वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह चौथी बार सांसद चुने गए हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने उनमें न तो कोई विश्वास जताया है और न ही केंद्र में उन्हें कोई जगह दी है.
झालावाड़-बारां और वसुंधरा खेमे के भाजपा नेताओं का मानना था कि लगातार चार चुनाव जीतने पर दुष्यंत को केंद्र में इन नेताओं से आगे ही रखा जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
जाहिर है पिछले साल राजस्थान प्रदेश अध्यक्ष को लेकर वसुंधरा की हठ का नुकसान शायद उन्हें अब उठाना पड़ रहा है. यह इसीलिए भी कि इस आम चुनाव में वसुंधरा राजे बहुत सक्रिय नजर नहीं आईं.
मोदी-शाह से टिकट बंटवारे को लेकर चली खींचतान और नागौर सीट पर हनुमान बेनीवाल की पार्टी आरएलपी के साथ हुए गठबंधन के वसुंधरा खिलाफ थीं.
इससे पहले विधानसभा चुनावों में वसुंधरा के धुर विरोधी किरोड़ीलाल मीणा को भाजपा में शामिल कर राज्यसभा भेजने से भी वसुंधरा खासी नाराज हुई थीं.
हालांकि वसुंधरा की नाराजगी के बाद भी अमित शाह ने बेनीवाल की पार्टी से गठबंधन किया और कई ऐसे नेताओं को टिकट भी दिए जो वसुंधरा के राजनीतिक विरोधी माने जाते हैं.
इन नेताओं में ओम बिड़ला सहित गजेंद्र सिंह शेखावत, जयपुर पूर्व राजघराने की दीया कुमारी, अर्जुनराम मेघवाल, हनुमान बेनीवाल, कैलाश चौधरी जैसे चेहरे शामिल हैं. इसके अलावा ओम माथुर और भूपेंद्र यादव भी राजस्थान से राज्यसभा सांसद हैं. ये दोनों नेता भी वसुंधरा विरोधी खेमे के बताए जाते हैं.
वसुंधरा विरोधी धड़े के लगातार हावी होने की बात को मोदी-शाह के बेहद करीबी माने जाने वाले और पिछली सरकार में मंत्री रहे कर्नल राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को सरकार में अब तक कोई पद नहीं दिए जाने से भी हवा मिलती है.
प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि राठौड़ को अभी तक केंद्र में इसीलिए कोई पद नहीं दिया गया क्योंकि उन्हें राजस्थान भाजपा में अध्यक्ष पद से नवाजा जा सकता है.
वैसे भी लोग जानते हैं कि राठौड़ भले ही दो बार से जयपुर ग्रामीण सीट जीत रहे हों लेकिन जितनी नजदीकी बाकी सांसदों की वसुंधरा से है, कर्नल उतना ही राजे से दूर हैं और उतने ही नरेंद्र मोदी और अमित शाह के करीबी भी हैं. हालांकि प्रदेश भाजपा के भी कई चेहरे प्रदेश अध्यक्ष पद की रेस में हैं.
दरअसल, दिवंगत मदन लाल सैनी के राजस्थान भाजपा के अध्यक्ष बनने के बाद से वसुंधरा थोड़ी निश्चिंत हो गईं लेकिन अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके राजनीतिक विरोधियों को दिल्ली की सत्ता के केंद्र में लाकर फिर से वसुंधरा खेमे में चिंता की लकीरें खींच दी हैं.
ओम बिड़ला के लोकसभा अध्यक्ष बनने पर राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ कहते हैं, ‘शुरुआत में वसुंधरा राजे और ओम बिड़ला के राजनीतिक संबंध काफी अच्छे थे लेकिन बीते एक दशक से उनके राजनीतिक संबंध खराब ही हुए हैं. इसके बाद 2014 में सांसद बनने के बाद जैसे ही बिड़ला ने दिल्ली में बड़े नेताओं से संपर्क अच्छे किए, वसुंधरा से उनके रिश्तों में थोड़ी दरार आ गई.’
वे कहते हैं, ‘जो लोग वसुंधरा राजे को नजदीक से जानते हैं, वे मानते हैं कि राजे सांसद-विधायकों को पूरी तरह अपनी पहुंच में रखती हैं और उन पर पूरा नियंत्रण भी उनका ही होता है, लेकिन बिड़ला के केस में ऐसा नहीं हुआ. ओम बिड़ला ने दिल्ली जाकर चुपचाप वहां अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली और भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं के अच्छे संबंध स्थापित कर लिए. इन संबंधों का लाभ उन्हें लोकसभा अध्यक्ष बनने में मिला है.’
वे आगे कहते हैं, ‘अच्छे संबंध भी अच्छे व्यवहार से बनते हैं. जितना मैं ओम बिड़ला को जानता हूं उनके मुंह पर उनकी आलोचना की जा सकती है और इसे वह मुस्कुराकर सुन भी लेते हैं. मतलब सीधे तौर पर कभी किसी से बुराई मोल नहीं लेते. यह गुण उन्हें प्रदेश के बाकी नेताओं से अलग कर देता है.’
इससे पहले प्रदेश अध्यक्ष पद को लेकर वसुधरा राजे गजेंद्र सिंह शेखावत की विरोधी बन ही चुकी हैं. शेखावत केंद्र में राजस्थान से एकमात्र कैबिनेट मंत्री हैं.
शेखावत को जल शक्ति मंत्रालय सौंपा गया है. कैलाश चौधरी और अर्जुनराम मेघवाल को राज्यमंत्री का पद मिला है लेकिन इससे इन दोनों नेताओं की राजनीतिक ताकत बढ़ी ही है.
कुल मिलाकर 2014 में जब से नरेंद्र मोदी भाजपा में नए चेहरे के रूप में उभरे हैं तब से चौतरफा चौंकाने वाले निर्णय भाजपा की अंदरूनी राजनीति में देखने को मिल रहे हैं.
संघ और संगठन में पर्दे के पीछे काम करने वाले नेता सत्ता में बड़ी भागीदारी और भूमिकाओं के साथ उभर रहे हैं. राजस्थान से गजेंद्र सिंह शेखावत, कैलाश चौधरी इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं.
संघ से जुड़े नेता और राजस्थान भाजपा के एक प्रवक्ता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘विधानसभा चुनावों के नतीजों में केंद्रीय नेतृत्व के लिए यह संकेत गया कि राज्य में लोग राजे से ही नाराज थे. इसीलिए लोकसभा चुनावों में उन्हें ज्यादा सभाओं और रैलियों में हिस्सा नहीं लेने दिया गया. इस बार तो केंद्रीय नेतृत्व पिछली बार से ज्यादा ताकतवर है. ऐसे में केंद्र जो चाहे वो कर सकता है. राजनीति में आना-जाना चलता रहता है. हालांकि राजे कमजोर नेता नहीं हैं, अगर उन्हें राजस्थान से हटाया भी जाता है तो कोई अच्छी जगह ही दी जाएगी.’
वहीं, भाजपा के एक और प्रवक्ता जितेंद्र श्रीमाली कहते हैं, ‘ये सब मीडिया के कयास हैं कि कौन कमजोर या मजबूत हो रहा है. ऐसा कुछ नहीं है लेकिन अगले कुछ दिनों में प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए चर्चा जरूर होनी वाली है. हालांकि नाम अभी तय नहीं हुआ है.’
वरिष्ठ पत्रकार आनंद चौधरी कहते हैं, ‘वसुंधरा बीते दो दशक से प्रदेश भाजपा की राजनीति की धुरी हैं. ओम बिड़ला, गजेंद्र सिंह शेखावत जैसे लोगों के बड़े ओहदों पर पहुंचने को राजे खतरे के तौर पर ही देखेंगी. हालांकि आने वाले दिनों में प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष अगर केंद्रीय नेतृत्व की पसंद से बनेगा तो यह है कि वसुंधरा कमजोर होंगी.’
इन सब बदलावों के चलते राजस्थान भाजपा पर वसुंधरा की पकड़ लगातार कमजोर होने के कयास लगाए जा रहे हैं. शायद इसीलिए लोकसभा चुनावों के दौरान वसुंधरा को कहना पड़ा था कि वे राजस्थान छोड़कर कहीं नहीं जाने वाली हैं.
हालांकि राजनीति में कब, किसे, किस तरह से छोड़ना पड़ सकता है यह तो वक्त ही बता सकता है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)