मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला बजट काफी अच्छी-अच्छी बातें करता है, लेकिन जब एक बड़ी तस्वीर बनाने की कोशिश करते हैं, तो इसमें काफी दरारें दिखाई देती हैं.
नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला बजट न्यू इंडिया में कतार के आखिरी व्यक्ति के सशक्तीकरण की बातें तो खूब करता है, लेकिन यह इस सवाल का कोई जवाब नहीं देता है कि आखिर निवेश और उपभोग के दोहरे इंजन से चलने वाली विकास की गाड़ी में धक्का में लगाए बिना एक पूरी तरह वित्त पोषित कल्याणकारी राज्य को कैसे चलाया जाएगा?
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बातें तो अच्छी और सही कीं, जिनमें आखिरी व्यक्ति तक कल्याणकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाने के मोदी के वादों की झलक दिखाई देती है, लेकिन सुस्त पड़ती वैश्विक अर्थव्यवस्था और कुछ समय से भारत के विनिर्माण और कृषि उत्पादन में आ रही गिरावट के साए में आर्थिक विकास को रफ्तार देने की कोई सुसंगत रणनीति इसमें नहीं दिखाई दी.
बजट में राजस्व का जो हिसाब लगाया गया है, वह इतना कमजोर है कि पहली बार वित्त मंत्रालय ने रिज़र्व बैंक के बहीखाते से मिले 90,000 करोड़ को ‘अधिशेष’ (सरप्लस) के तौर पर दिखाया है.
बिमल जालान समिति द्वारा अपनी सिफारिशों को सार्वजनिक किए जाने से पहले ही ऐसा किया जाना रोजगार निर्माण को ध्यान में रखकर भौतिक और सामाजिक बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में बड़े निवेश के वास्ते फंड का इंतजाम करने की व्यग्रता को दिखाता है.
सरकार द्वारा बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में निवेश के लिए पैसे का इंतजाम करने के लिए डॉलर में अंकित बॉन्ड्स के रास्ते से संप्रभु ऋण का इंतजाम करने की कोशिश भी एक और खतरनाक रणनीति हो सकती है. भारत के राजकोषीय घाटे के आंशिक डॉलरीकरण के पक्ष में वित्तमंत्री का तर्क है कि भारत का कुल विदेशी कर्ज जीडीपी के 5% से नीचे है, जिसे सुरक्षित सीमा के भीतर कहा जा सकता है.
सामान्य तौर पर देशों द्वारा 5 अरब अमेरिकी डॉलर से 10 अरब अमेरिकी डॉलर जैसी बड़ी रकमों के लिए संप्रभु कर्ज लिया जाता है. अतीत में भी सरकारों ने इस तरकीब पर विचार किया है, लेकिन डॉलर ऋणों को ठोस मुद्रा (हार्ड करेंसी) में चुकाने की शर्त को देखते हुए इस पर अमल नहीं किया क्योंकि इसमें काफी जोखिम है.
कुछ भी हो, ऐसे फंड के दूरगामी परिणामों का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है, क्योंकि यह वैश्विक बाजारों में चीन जैसे देशों की तुलना में भारत के लिए एक बेंचमार्क स्थापित करेगा. फिर भी, सीतारमण संभवतः बुनियादी ढांचे में निवेश के लिए दीर्घकालीन कोष तैयार करने के इरादे से इस रणनीति पर आगे बढ़ना चाहती हैं.
भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने मौजूद सबसे बड़ा संरचनागत संकट बैंकिंग व्यवस्था का लगभग चरमरा जाना है. बैंकिंग व्यवस्था की हालत ऐसी है कि यह 10-15 सालों की दीर्घावधिक अवसंरचना परियोजना में पैसे नहीं लगा सकती. पहले ही बैंकों के पैसों से चल रहीं 4 लाख करोड़ रुपए की बुनियादी ढांचे की परियोजनाएं एनपीए में तब्दील होने के कगार तक पहुंच गई हैं.
इसी सूरतेहाल के मद्देनजर सीतारमण ने एक समिति के गठन का ऐलान किया है, जो अगले 5 सालों में 100 लाख करोड़ रुपए के बराबर की बुनियादी ढांचे की परियाजनाओं के लिए पैसे मुहैया कराने के लिए दीर्घावधि ऋण का इंतजाम करने के रास्तों पर सुझाव देगी.
विकास को टिकाऊ तरीके से फिर से पटरी पर लाना और रोजगार सृजन करना काफी हद तक इसी पर निर्भर है. फिलहाल इस बारे में तस्वीर साफ नहीं है कि आखिर यह समिति किस तरह से यह काम करेगी.
इसलिए विकास के लिए, जिसके बिना कल्याण संभव नहीं है, पैसे का इंतजाम करने के सवाल पर गंभीर अनिश्चय के बादल छाए हुए हैं. बजट में 25 फीसदी की भारी वृद्धि (2019-20) के साथ 19,62,000 करोड़ रुपये की राजस्व प्राप्ति का लक्ष्य रखा गया है.
स्वाभाविक-सा सवाल है कि एक सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था में राजस्व में इतनी बड़ी उछाल कैसे मुमकिन हो पाएगी? कर राजस्व में ज्यादा उछाल की संभावना नहीं है, क्योंकि 2019-20 में जीडीपी वृद्धि मुश्किल से 6.5% के आंकड़े को छू सकती है.
ऐसे में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विनिवेश, सरकारी परिसंपत्तियों के मौद्रीकरण और आरबीआई के खजाने का इस्तेमाल जैसे गैर-कर राजस्वों को इकट्ठा करने की कोशिश की जा रही है. लेकिन ये सब एक बार का नुस्खा है और इन्हें हर साल दोहराया नहीं जा सकता.
बजट भाषण का दूसरा विरोधाभास यह है कि इसमें बुनियादी ढांचे के विकास के लिए पैसा मुहैया कराने के लिए पूंजीगत व्यय पर काफी ज्यादा जोर दिया गया है, लेकिन शुद्ध आंकड़ों के हिसाब से देखें, तो सरकार ने पूंजीगत व्यय को 2018-19 के 9.2 लाख करोड़ रुपये से घटाकर इस वित्त वर्ष में 8.7 लाख करोड़ रुपये कर दिया है.
इसका मतलब यह निकलता है कि केंद्र की तरफ से केंद्र और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों द्वारा लिए गए कर्जों में बढ़ोतरी का एक बड़ा हिस्सा राजस्व व्यय की मद में जा रहा है.
इस तथ्य को सबसे साफ तौर पर कृषि क्षेत्र में देखा जा सकता है, जहां आवंटन में किया गया भारी इजाफा मुख्य तौर पर पीएम किसान आय हस्तांतरण के 87,000 करोड़ की तरफ चला गया है और वास्तविक अर्थों में सार्वजनिक निवेश नगण्य है. सवाल है कि क्या आय हस्तांतरण से ही कृषि क्षेत्र के सामने मुंह बाए खड़े संरचनात्मक मसलों का समाधान हो सकता है?
कुल मिलकार कहें, तो बजट काफी अच्छी-अच्छी बातें करता है, लेकिन जब हम बड़ी तस्वीर बनाने की कोशिश करते हैं, तो इसमें काफी दरारें दिखाई देती हैं.
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