क्या किसानों को इस बजट से छलावे के सिवा कुछ हासिल नहीं हुआ?

साल 2019-20 का कृषि बजट करीब एक लाख 30 हज़ार करोड़ रुपये है, जो कुल बजट का केवल 4.6 फीसदी है. इसमें से 75,000 करोड़ रुपये पीएम-किसान योजना के लिए आवंटित किए गए हैं. इस तरह अन्य कृषि योजनाओं के लिए सिर्फ 55,000 करोड़ रुपये ही बचते हैं.

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Karad: Farmers plough their field as they sow soyabean at a field in Ghogaon village near Karad, Friday, July 5, 2019. Finance Minister Nirmala Sitharaman said the government will invest widely in agriculture infrastructure and support private entrepreneurship for value addition in farm sector. (PTI Photo) (PTI7_5_2019_000217B)
Karad: Farmers plough their field as they sow soyabean at a field in Ghogaon village near Karad, Friday, July 5, 2019. Finance Minister Nirmala Sitharaman said the government will invest widely in agriculture infrastructure and support private entrepreneurship for value addition in farm sector. (PTI Photo) (PTI7_5_2019_000217B)

साल 2019-20 का कृषि बजट करीब एक लाख 30 हज़ार करोड़ रुपये है, जो कुल बजट का केवल 4.6 फीसदी है. इसमें से 75,000 करोड़ रुपये पीएम-किसान योजना के लिए आवंटित किए गए हैं. इस तरह अन्य कृषि योजनाओं के लिए सिर्फ 55,000 करोड़ रुपये ही बचते हैं.

Karad: Farmers plough their field as they sow soyabean at a field in Ghogaon village near Karad, Friday, July 5, 2019. Finance Minister Nirmala Sitharaman said the government will invest widely in agriculture infrastructure and support private entrepreneurship for value addition in farm sector. (PTI Photo) (PTI7_5_2019_000217B)
(प्रतीकात्मक तस्वीर: पीटीआई)

नई दिल्ली: वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में महात्मा गांधी का उल्लेख करते हुए दावा किया कि उनकी सरकार जो भी करती है उसके केंद्र में ‘गांव, गरीब और किसान’ होते हैं. सीतारमण ने किसानों के संदर्भ में जीरो बजट फार्मिंग, किसान उत्पादक संगठन, ई-नैम, किसानों की आय दोगुनी करनी जैसी कुछ बातें कहीं.

साल 2019-20 का कृषि बजट करीब एक लाख 30 हजार करोड़ रुपये है, जो कि कुल 27.86 लाख करोड़ के बजट का केवल 4.6 फीसदी है.

कृषि के लिए आवंटित बजट में से 75,000 करोड़ रुपये प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम-किसान) के लिए आवंटित किए गए हैं. इस तरह अन्य कृषि योजनाओं के लिए सिर्फ 55,000 करोड़ रुपये ही बचते हैं.

चूंकि पीएम किसान एक आय सुरक्षा योजना है, इसका मतलब हुआ कि कृषि संकट को खत्म करने की दिशा में आधारभूत और नीतिगत बदलाव के लिए कोई खास राशि आवंटित नहीं की गई है.

स्वराज अभियान के अध्यक्ष योगेंद्र यादव ने कहा कि मोदी सरकार ने किसानों के लिए ‘जीरो बजट’ आवंटित किया है. वहीं राष्ट्रीय किसान समन्वय समिति ने इसे गांव, गरीब, किसान, आदिवासी विरोधी बजट बताया है.

क्या वाकई में इस साल के बजट में किसानों की समस्या के समाधान के लिए कोई खास राशि नहीं दी गई है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए बजट के विभिन्न पहलुओं को देखने की जरूरत है.

जल संरक्षण और इसकी उपलब्धता

भारत इस समय भीषण स्तर पर सूखे का सामना कर रहा है. शहर हो या गांव, हर जगह लोग इस समस्या के चपेट में हैं. एशियन वॉटर डेवलपमेंट आउटलुक, 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक करीब 89 फीसदी भूजल सिंचाई के लिए निकाला जाता है.

इस बात को लेकर गंभीर चिंता है कि गिरते भूजल की स्थिति में क्या ऐसे ही लगातार पानी का दोहन किया जाना संभव है. चूंकि खेती बहुत ज्यादा पानी पर निर्भर है, इसलिए पानी का सही तरीके से इस्तेमाल करने के लिए उचित तंत्र स्थापित करने की जरूरत है.

आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के मुताबिक माइक्रो इरिगेशन सिस्टम (सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली) जैसे कि स्प्रिंकलर, ड्रिप इरिगेशन इत्यादि से सिंचाई करने से पानी की बचत होती है और जिन राज्यों ने इस तकनीक को अपनाया है वहां 40 से 50 फीसदी बिजली और उर्वरक खपत में बचत हुई है.

आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि किसानों को पानी के उपयोग के कुशल तरीकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए और ऐसी नीतियों को तैयार करना जल संकट को कम करने के लिए एक राष्ट्रीय प्राथमिकता बननी चाहिए. लेकिन इस साल के बजट में माइक्रो इरिगेशन सिस्टम के मद में कटौती की गई है.

प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के तहत ‘पर ड्रॉप मोर क्रॉप’ के बजट में 2018-19 के मुकाबले 500 करोड़ रुपये की कटौती हुई है. पिछले साल इसके लिए 4,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे, हालांकि इस बार 3,500 करोड़ रुपये ही आवंटित किए गए हैं.

कृषि मंत्रालय ने पहली बार 2005-06 में माइक्रो इरिगेशन पर एक स्कीम लॉन्च किया था, जिसे 2010-11 में ‘माइक्रो इरिगेशन पर राष्ट्रीय मिशन’ के रूप में बदल दिया गया.

इसके बाद इस योजना को 2014-15 में सतत कृषि के लिए राष्ट्रीय मिशन (एनएमएसए) के कृषि जल प्रबंधन श्रेणी में शामिल किया गया. वर्तमान में इसे प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के ‘पर ड्रॉप मोर क्रॉप‘ भाग के तहत लागू किया जा रहा है.

इसके अलावा, मोदी सरकार ने सूखे की समस्या से समाधान और जल संरक्षण के लिए बनाए गए एकीकृत जलग्रहण प्रबंधन कार्यक्रम (इंटीग्रेटेड वॉटरशेड मैनेजमेंट प्रोग्राम) के बजट में भी कटौती की है.

साल 2018-19 में इस योजना के लिए 2,251 करोड़ रुपये की घोषणा हुई थी. लेकिन इस बार इसके तहत सिर्फ 2,066 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं. वर्तमान में इस कार्यक्रम को प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के तहत लागू किया जा रहा है.

वॉटरशेड बेसिन जैसे क्षेत्र होते हैं जो कि बारिश का पानी इकट्ठा करते हैं और एकत्रित पानी का एक भाग मिट्टी में बचाकर रखते हैं और बाकी का पानी नदियों इत्यादि में बहा देते हैं. पिछले कई दशकों से इस तरह की योजना को दुनिया भर में पानी की कमी वाले क्षेत्रों में इकोलॉजी एवं जल संरक्षण की दिशा में एक सफल कदम के रूप में मान्यता दी गई है.

भारत में इस योजना को कई सारी समितियों, विशेषज्ञों और जमीनी स्तर पर काम करने वालों लोगों के सुझावों के आधार पर बनाया गया था, लेकिन स्क्रॉल.इन की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले कई सालों से उपयुक्त राशि आवंटित नहीं करने की वजह से एक बेहतरीन योजना धीमी मौत मर रही है.

इसी तरह प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के एक अन्य भाग ‘हर खेत को पानी‘ के बजट में भी भारी कटौती की गई है. साल 2018-19 में इसके लिए 2,600 करोड़ रुपये आवंटित किए गए. बाद में इसे संशोधित कर के 2181.19 करोड़ रुपये कर दिया गया.

वहीं, साल 2019-20 के बजट में ‘हर खेत को पानी’ के तहत सिर्फ 1,069.55 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं. ये आंकड़े मोदी सरकार के हर खेत तक पानी पहुंचाने के दावे पर सवालिया निशान खड़े करते हैं.

जीरो बजट फार्मिंग और जैविक खेती

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस और ईज़ ऑफ लिविंग दोनों चीज किसानों पर भी लागू होने चाहिए. इस दिशा में हमें जीरो बजट फार्मिंग पर ज्यादा से ज्यादा जोर देने की जरूरत है, ताकि लागत कम से कम हो और आय दोगुनी हो जाए.

जीरो बजट फार्मिंग के तहत प्राकृतिक सामग्री से बने उत्पादों का इस्तेमाल खेती में किया जाता है. इसका उद्देश्य खेती में लागत कम से कम यानी ‘शून्य या जीरो’ और हरित क्रांति के पहले के तरीकों को कृषि में शामिल करना है. इसके तहत कम पानी की आवश्यकता होती है और ये पर्यावरण के लिए सही है.

भारत सरकार परंपरागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई) के जरिए जैविक खेती को बढ़ावा दे रही है. इसमें प्राकृतिक खेती, वैदिक खेती, गाय खेती, होमा फार्मिक, जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग इत्यादि शामिल हैं. लेकिन इस योजना के तहत भी सरकार ने बजट कम कर दिया है.

साल 2018-19 के बजट में पीकेवीवाई के लिए 360 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे. बाद में इसे संशोधित कर के 300 करोड़ रुपये किया गया. अब 2019-20 के बजट में सरकार ने सिर्फ 325 करोड़ रुपये आवंटित किया है, जो कुल कृषि बजट का सिर्फ 0.25 फीसदी है.

इसके अलावा ऑर्गेनिक खेती पर राष्ट्रीय प्रोजेक्ट के तहत भी भारी कटौती की गई है. साल 2018-19 में इस योजना के लिए 8.10 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे, लेकिन इस बार इस काम के लिए सिर्फ दो करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं.

पिछले साल दिसंबर महीने में वरिष्ठ भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने जलवायु परिवर्तन की वजह से कृषि पर पड़ रहे प्रभावों के समाधान पर सरकार की कोशिशों पर निराशा जताते हुए इसे नाकाफी बताया था.

समिति ने कहा था कि अगर किसान और कृषि को इन समस्याओं से बचाना है तो सरकार को ज्यादा से ज्यादा जैविक खेती को बढ़ावा देना होगा.

एक तरफ सरकार जैविक खेती को बढ़ावा देने की बात करती है वहीं दूसरी तरफ रासायनिक खाद पर सब्सिडी देने के लिए इस साल भी भारी-भरकम बजट आवंटित किया गया है.

खाद पर सब्सिडी देने के लिए कुल 79,996 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं. इसमें से 53,629 करोड़ रुपये यूरिया पर सब्सिडी के लिए है और 26,367 करोड़ रुपये न्यूट्रिएंट्स आधारित सब्सिडी के लिए है. पिछले साल इस मद में 70,090.35 करोड़ रुपये आवंटित हुए थे.

एमएसपी, बाजार और इंफ्रास्ट्रक्चर

किसानों की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है फसलों का सही दाम न मिलना. भारत सरकार हर साल 22 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की घोषणा करती है. हमेशा से इसे लेकर विवाद चलता चला आ रहा है कि एमएसपी सही तरीके से निर्धारित नहीं की जाती है और यह राशि कई फसलों के लिए लागत से भी कम होती है.

हालांकि जितनी भी एमएसपी निर्धारित की जाती है, सही तंत्र नहीं होने की वजह से इतनी भी एमएसपी उन्हें नहीं मिल पाती है. ऐसी स्थिति में उन्हें औने-पौने दाम पर किसी निजी खरीददार को उत्पाद बेचना पड़ता है.

नीति आयोग की 2016 की एक रिपोर्ट के मुताबिक किसान बुवाई के पहले एमएसपी की घोषणा से अनभिज्ञ रहते हैं. इस योजना को खराब तरीके से लागू करने का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि नीति आयोग ने पाया कि असम, पश्चिम बंगाल जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में किसानों को इस बात की जानकारी भी नहीं है.

आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 में कहा गया है कि अगर मंडियों तक किसानों की पहुंच आसान बना दी जाती है तो ये उन्हें अपनी उपज का बेहतर दाम लेने में मदद करेगा. हालांकि सरकार ने इस दिशा में चलाई जा रही योजनाओं में कोई खास आवंटन नहीं किया है.

कृषि विपणन पर एकीकृत योजना (इंटीग्रेटेड स्कीम ऑन एग्रीकल्चर मार्केटिंग) का बजट साल 2018-19 में 1,050 करोड़ रुपये था. लेकिन इस साल इस योजना के लिए सिर्फ 600 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं.

यानी कि पिछले साल के मुकाबले करीब 40 फीसदी की कटौती की गई है. साल 2018-19 का संशोधित बजट 500 करोड़ का था. इस योजना में राष्ट्रीय कृषि बाजार (नैम) भी शामिल है.

दालें, तिलहन और कोपरा की खरीद के लिए चलाई जा रही प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण योजना के तहत मामूली वृद्धि के साथ इस 1,500 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं. पिछले साल इसके लिए 1,400 करोड़ रुपये का बजट था.

इसके अलावा बाजार हस्तक्षेप योजना और मूल्य समर्थन योजना (एमआईएस-पीएसएस) का बजट बढ़ाकर 3,000 करोड़ रुपये किया गया है. पिछले साल का इसका संशोधित बजट 2,000 करोड़ रुपये था.

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के लिए इस साल 14,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं. पिछले साल इसका संशोधित बजट 12,975.70 करोड़ रुपये था.

सूखा और कम वर्षा वाले प्रभावित क्षेत्रों में डीजल सब्सिडी देने के लिए साल 2017-18 में 21.34 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे. इसके बाद से इस मद में कोई आवंटन नहीं किया गया.

इस साल के लिए इसका बजट शून्य है, जबकि भारत के कई जिले भीषण सूखे का सामना कर रहे हैं.

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