जो लोग इस बजट से भाजपा के चुनावी वादों को पूरा करने के किसी रोडमैप की उम्मीद कर रहे थे, उन्हें इस बजट में एक भी बड़ा विचार या कोई बड़ी पहल दिखाई नहीं दी. रोजगार सृजन और कृषि को फायदेमंद बनाने जैसे मसले पर चुप्पी हैरत में डालने वाली है.
नरेंद्र मोदी सरकार के आर्थिक दृष्टिकोण को समझ पाना हमेशा मुश्किल रहा है.
पिछले पांच सालों को आर्थिक मोर्चे पर शायद ही उत्साहवर्धक कहा जा सकता है: अर्थव्यवस्था की बड़ी समस्याओं का समाधान करने के लिए सकारात्मक बदलावों के मोर्चे पर कोई बड़ी कोशिश नहीं दिखाई दी.
एक तरफ तो बस पिछली सरकारों की ज्यादातर आर्थिक नीतियों को- जिनमें कुछ ज्यादा समस्याकरि नीतियां भी शामिल हो गईं- बस नाम या पैकिंग बदल कर जारी रखा गया, वहीं दूसरी तरफ नोटबंदी और खराब तरीके से और जल्दबाजी में लागू किए गए जीएसटी की दोहरी आपदा इस सरकार के कार्यकाल की दो अहम घटनाएं रहीं.
इसी बीच खासतौर पर आम चुनाव से पहले, सरकार ने शुतुरमुर्ग की तरह आंखें मूंद लीं और सबको दिखाई देनेवाली आर्थिक समस्याओं को स्वीकार करने से इनकार कर दिया.
इसने जीडीपी के आकलन के तरीके में ऐसे बदलावों को प्रोत्साहित किया, जो अपारदर्शी और दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से पक्षपात भरे थे और जिन्होंने देश के भीतर और बाहर आंकड़ों की की विश्वसनीयता को संदेह के घेरे में ला दिया. इस बीच इसने पसंद न आनेवाले आर्थिक आंकड़ों को दबाया.
मिसाल के लिए इसने अपनी ही सांख्यिकी एजेंसी द्वारा तैयार रोजगार और बेरोजगारी के आंकड़ों को जिसमें श्रम बल, खासतौर पर महिलाओं की गिरती हुई भागीदारी और चार दशकों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी दर की बात की गई थी, को सामने नहीं आने दिया. इसने निवेश की कम दर की समस्या को मानने से इनकार कर दिया, जिसकी मार उद्योगों पर पड़ रही थी.
इसने किसानों की अहम और विकराल होती हुई समस्याओं- जिनके कारण किसान लगभग एक साल तक लगातार सड़कों पर रहे- का समाधान करने के बदले, कुछ किसानों को नकद हस्तांतरण का लॉलीपॉप थमा दिया.
कुल मिलाकर सरकार बार-बार यह कहती रही कि अर्थव्यवस्था में सब ठीकठाक है जबकि सबूत इसके उलट थे. इसके बावजूद नई सरकार के पहले बजट से काफी उम्मीदें थीं.
चुनावी प्रक्रिया को लेकर सवाल भले उठे हो लेकिन हालिया चुनाव में शानदार जीत हासिल करके आई इस सरकार को आज जबरदस्त राजनीतिक समर्थन हासिल है और यह बड़े नीतिगत फैसलों का ऐलान करने की स्थिति में है.
मोदी अपने पहले कार्यकाल में ही यह दिखा चुके हैं कि वे साहसी फैसले लेने में सक्षम हैं. (नोटबंदी का फैसला भले सनक भरा और विनाशकारी था, लेकिन यह निश्चित तौर पर एक साहसी फैसला था.)
प्रधानमंत्री और दूसरे सरकारी अधिकारियों ने पिछले कुछ दिनों में आधिकारिक तौर पर ‘न्यू इंडिया’ के दसवर्षीय विज़न के जरिए देश को बदल देने के अतिशयोक्तिपूर्ण दावे किए हैं. इन दावों के मुताबिक महज पांच सालों में देश की अर्थव्यवस्था का आकार दोगुने से ज्यादा हो जाएगा. (2022 तक जीडीपी का आकार 5 ट्रिलियन डॉलर करने के प्रधानमंत्री के लक्ष्य का मतलब यही है)
इस बीच आनेवाली आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिए नए विचारों और साहसी कदमों की जरूरत की काफी चर्चा रही. तो सवाल है कि इन उम्मीदों पर बजट आखिरकार कितना खरा उतरा?
जो लोग इस बजट से इन वादों को पूरा करने के किसी रोडमैप की उम्मीद कर रहे थे, उन्हें इस बजट में एक भी बड़ा विचार या कोई बड़ी पहल दिखाई नहीं दी. रोजगार सृजन और कृषि को फायदेमंद बनाने जैसे मसले पर चुप्पी हैरत में डालने वाली थी.
कम निवेश दर की समस्या पर इस कल्पना से ही काम चला लिया गया कि यह अपने सबसे निचले स्तर पर आ चुकी है और अब यहां से इसमें बढ़ोतरी ही होगी. यह सरकारी तर्क के अनुरूप ही था.
बैंकिंग और गैर बैंकिंग वित्तीय क्षेत्र की समस्याओं पर कुछ हद तक ध्यान दिया गया, लेकिन प्रस्तावित कदम समस्या की विकरालता को देखते हुए नाकाफी नजर आते हैं. छोटे उद्यमों पर बातें तो काफी की गईं, लेकिन इस बजट में वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं, जो इनकी स्थिति में कोई उल्लेखनीय बदलाव ला सके.
जैसा कि पिछले कुछ सालों में एक रिवाज सा बना गया है, बजट भविष्य के राजस्व अनुमानों को लेकर काफी आशावादी था. जीएसटी राजस्व पिछले साल की तुलना में 13% ज्यादा रहने का अनुमान लगाया गया है, जो कि पहली तिमाही में कमजोर जीएसटी संग्रह को देखते हुए टेढ़ी खीर नजर आता है.
5 लाख तक की आय पर कर में छूट देकर मध्यवर्ग को खुश करने की कोशिश की गई और दावा किया गया कि इससे होने वाले राजस्व के नुकसान की भरपाई अति धनी लोगों पर थोड़ा ज्यादा कर लगाकर की जाएगी. सरकार ने कर संग्रह के केंद्रीकरण और वित्त आयोग को दरकिनार करने की अपनी नीति को जारी रखा है.
अनुमानित कर राजस्व का करीब 16 प्रतिशत अधिशुल्कों और उपकरों (सरचार्ज और सेस) से आने का अनुमान लगाया गया है. गौरतलब है कि केंद्र को इन दोनों को राज्य सरकारों के साथ बांटना नहीं होता है.
व्यय के मोर्चे पर उदासीनता और भी हैरान करने वाली है. एकमात्र बड़ा इजाफा किसानों को नकद हस्तांतरण की चुनाव-पूर्व पीएम-किसान योजना के मद में किया गया है, जिस पर 75,000 करोड़ रुपये का खर्च आएगा.
बुनियादी ढांचे का विकास कथित तौर पर इस सरकार प्राथमिकताओं में काफी ऊपर है, लेकिन उल्लेखनीय अतिरिक्त आवंटन सिर्फ रेलवे के ही हिस्से में आया, लेकिन यह भी 13000 करोड़ रुपये से कम ही है. (पैसे की जरूरत को पूरा करने के लिए निजी-सार्वजनिक भागीदारी से काफी उम्मीदें लगाई गई हैं.)
सड़क परिवहन और राजमार्गों के हिस्से में सिर्फ 5.6 फीसदी की बढ़ोतरी आई है, जो किसी परियोजना की समय के साथ बढ़नेवाली लागत को पूरा करने में ही खप जाएगा. ग्रामीण विकास के मद में और भी कम महज 5 फीसदी से कम की वृद्धि की गई है.
सामाजिक क्षेत्र के अन्य व्यय नॉमिनल जीडीपी में होनेवाली वृद्धि के अनुपात में ही है. यानी दूसरे शब्दों में कहें, तो उनमें कोई अंतर नहीं आया है. आश्चर्यजनक यह है कि मोदी सरकार की तथाकथित महत्वाकांक्षी योजना आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा का जिक्र न तो बजट भाषण में था और न बजट दस्तावेज में.
इसकी जगह राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना- जिसे नई योजना के आने के बाद समाप्त हो जाना था- के लिए आवंटन 2,770 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 6,656 करोड़ रुपये कर दिए गए हैं, जो कि ज़रूरतों को देखते हुए बहुत कम है.
जहां तक मेरा सवाल है, तो मैं समर्थ सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को निजी सेवा प्रदाताओं से बदलने वाली इस योजना की कभी प्रशंसक नहीं रही, लेकिन क्या इसके लिए आवंटन का अभाव इससे सरकार के भी मोहभंग का सूचक है?
दरअसल इस बजट में सबसे हैरान करनेवाली बात महत्वाकांक्षा की कमी है. लेकिन इससे उसी बात की पुष्टि होती है, जो चुनाव से पहले काफी स्पष्ट हो चुकी थी : इस सरकार की दिलचस्पी लोगों की आर्थिक स्थिति सुधारने में न होकर अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए उनके दिलो-दिमाग पर कब्जा करने में है.
इसलिए आर्थिक सर्वेक्षण के एक अध्याय को आधार के इस्तेमाल से कराधान में ‘नई आसानी’ की बजट घोषणा से जोड़ कर देखे जाने और इस पर ठहर के सोचने की जरूरत है. जिन लोगों को बिग डेटा के संभावित दुरुपयोग की चिंता सताती है, उनके लिए यह बिग डेटा और बिग ब्रदर का गठबंधन है. और जैसा कि बजट द्वारा संकेत दिया गया है, यह सरकार की भविष्य की मंशाओं की ओर इशारा करता है.
(जयति घोष जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं.)
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.