हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच 1947 में हुआ बंटवारा आज भी जारी है

निदा किरमानी मूल रूप से हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों देशों से हैं. वे सोचती थीं कि क्यों कभी उन्हें इनमें से किसी एक को चुनना होगा? पर बीते दिनों उन्हें एक देश चुनने पर मजबूर होना पड़ा.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: अभिषेक बख्शी/Flickr, CC BY-NC 2.0)

निदा किरमानी मूल रूप से हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों देशों से हैं. वे हमेशा सोचती थीं कि क्यों कभी उन्हें इनमें से किसी एक को चुनना होगा? पर बीते दिनों उन्हें दोनों में से एक देश चुनने पर मजबूर होना पड़ा.

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भारत-पकिस्तान सीमा पर लगी बाड़ (फोटो: अभिषेक बक्षी/Flickr, CC BY-NC 2.0)

कई सालों से मैं बड़े फ़ख्र से ख़ुद को दक्षिण एशियाई मूल का बताती थी. लाखों लोगों की तरह मेरे मां-बाप भी उसी ज़मीन पर पैदा हुए थे, जिसे अब हिंदुस्तान के नाम से जाना जाता है.

बंटवारे के वक़्त मेरे अब्बा का परिवार पाकिस्तान चला आया था. मेरे दादा सिविल सर्विस में थे और अपने बाकी मुस्लिम साथियों की तरह उन्हें भी उम्मीद थी कि नई बन रही ब्यूरोक्रेसी में बेहतर पद मिलेंगे.

वहीं दूसरी तरफ मेरे नाना कांग्रेस के पक्के समर्थक थे, वे लखनऊ में एक प्रो-कांग्रेस अख़बार भी निकाला करते थे. वे हिंदुस्तान न छोड़ने की अपनी बात पर अड़े रहे जबकि उन्हें ये अंदाज़ा था कि आने वाले दशकों में अपने लिए बेहतर ज़िंदगी बनाने की उम्मीद में उनके बच्चे हिंदुस्तान छोड़ देंगे.

इसके तकरीबन 25 साल बाद जब मेरे मां-पापा की शादी हुई, तब तक मेरे अब्बा पाकिस्तान से निकलकर अमेरिका पहुंच गए थे और वहां एक इंजीनियर के बतौर काम कर रहे थे.

उनका निकाह फोन पर हुआ, जिसके बाद मेरी मां भी अमेरिका पहुंचीं. मैं और मेरी बहन की पैदाइश और परवरिश भी वहीं हुई.

जब भी लंबे सफ़र पर जाने लायक पैसे इकट्ठे होते, तब हम सालों में कभी पाकिस्तान तो कभी हिंदुस्तान जाया करते. मेरी बहन और मेरी हमारे दोनों तरफ के भाई-बहनों से ही खूब पटती थी.

इतनी कि हमें कभी दोनों देशों के बीच चल रही परेशानियों का हमारी पहचान से जुड़े होने का कोई एहसास ही नहीं हुआ. यह तो बहुत बाद में पता चला कि ये मासूमियत भी बमुश्किल ही मिल पाती है.

अमेरिका से ग्रेजुएशन करने के बाद मैंने पाकिस्तान और हिंदुस्तान दोनों ही जगह इंटर्नशिप के लिए अप्लाई किया. मैं चाहती थी कि ‘मैं कहां जाऊंगी’ सवाल का जवाब मेरी क़िस्मत तय करे.

और फिर मुझे नई दिल्ली की एक मानवाधिकार संस्था के साथ काम करने का मौका मिला. इस एनजीओ ने ही मुझे सलाह दी कि अपनी मां की भारतीय नागरिकता के आधार पर मैं पर्सन ऑफ इंडिया ओरिजिन (पीआईओ) कार्ड बनवाने के लिए अप्लाई करूं.

इससे मुझे हिंदुस्तान में काम करने का मौका तो मिलेगा ही, साथ ही मैं बिना वीज़ा के सफ़र भी कर सकूंगी. मेरी एप्लीकेशन स्वीकार होने में कोई अड़चन नहीं आई और कुछ ही दिनों में मुझे ये स्लेटी बुकलेट मिली, जिसके सहारे में आगे के 17 सालों तक हिंदुस्तान आती-जाती रही.

इस कार्ड के मिलने के बाद मेरा यहां आना-जाना तो बढ़ा ही, मैं यहां लंबे वक़्त के लिए रुकने भी लगी. मैंने दिल्ली में रहकर ही अपनी पीएचडी पूरी की और इस शहर में मुस्लिम औरतों के अनुभवों पर एक क़िताब भी लिखी.

इस बीच हिंदुस्तान के साथ बढ़ते इस रिश्ते के साथ मेरा पाकिस्तान से रिश्ता भी बढ़ता रहा. मेरी बहन की शादी पाकिस्तान में हुई और वो वहीं बस गई.

कुछ समय बाद मेरे मां-पापा भी अमेरिका से आकर वहीं रहने लगे. कुछ सालों बाद मुझे भी लाहौर के कॉलेज में नौकरी का ऑफर मिला, जिसे मैंने खुशी-खुशी स्वीकार भी कर लिया.

इसकी पहली वजह तो ये थी कि मैं कराची में रहने वाले अपने परिवार के करीब हो जाऊंगी, दूसरा बॉर्डर से नज़दीक होने के कारण मैं अपने काम के सिलसिले और दोस्तों से मिलने आसानी से हिंदुस्तान आ-जा सकती थी.

तब मैंने नेशनल आइडेंटिटी कार्ड ऑफ पाकिस्तान के लिए अप्लाई किया, इससे मुझे वही सारी सुविधाएं मिलतीं, जो हिंदुस्तान में पीआईओ कार्ड से मिलती हैं.

मेरे पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी दोस्त और रिश्तेदार इस बात पर बड़ा आश्चर्य व्यक्त करते पर मैं जानती थी कि मैं ख़ुशकिस्मत थी, लेकिन मुझे इसमें कुछ ग़लत भी नहीं लगता था. मैं मूल रूप से पाकिस्तानी भी हूं, हिंदुस्तानी भी. तो मुझे क्यों सिर्फ एक को चुनना चाहिए?

पिछले हफ़्ते इस बार के सेमेस्टर ख़त्म होने के बाद मैं ख़ुद को अपने जन्मदिन पर तोहफा देना चाहती थी, और ये तोहफा था धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) घूमना.

कुछ रोज़ पहले मैं जब लौट रही थी तब बॉर्डर पर मुझसे इमीग्रेशन के कर्मचारियों ने पूछा कि मेरे पास पीआईओ कार्ड और नेशनल आइडेंटिटी कार्ड ऑफ पाकिस्तान दोनों कैसे हैं. मैंने उन्हें ईमानदारी से जवाब दिया कि मेरे अब्बा पाकिस्तानी हैं मां हिंदुस्तानी, और इस लिहाज़ से मैं दोनों हूं.

आम तौर पर जब मैं ये जवाब देती थी तब अमूमन सरहद के दोनों तरफ ही इमिग्रेशन से मुझे सुनने को मिलता था, वाह, आप तो बड़ी लकी हैं मैडम! इसके बाद वो मेरे पासपोर्ट पर स्टाम्प लगा देते थे.

इस बात से मैं हमेशा एक उम्मीद से भर उठती थी कि दोनों देशों के बीच भले ही कितने उतार-चढ़ाव रहे हों, पर दोनों ही ओर के अधिकतर लोग इस बंटवारे के बेतुकेपन को समझते हैं.

पर उस रोज़ ऐसा नहीं हुआ. इमीग्रेशन का वो कर्मचारी मेरे पीआईओ कार्ड के साथ गायब हुआ और कोई घंटे भर बाद लौटा. उसके पास एक पत्र भी था, जिस पर मुझे दस्तख़त करने के लिए मजबूर किया गया.

इसमें लिखा था कि मेरा पीआईओ कार्ड ज़ब्त किया जा रहा क्योंकि मैं पाकिस्तानी मूल की हूं, जिस वजह से मैं हिंदुस्तानी मूल की नहीं हो सकती.

तो वो खौफ़नाक दिन आ चुका था. इतने सालों तक अपनी जिस दक्षिण एशियाई पहचान पर मुझे फ़ख्र था, उसमें से आज मैं एक को चुनने के लिए मजबूर थी.

जब मैंने उनसे पूछा कि उन्हें यह करने का हक़ है क्या, तब मुझे जवाब मिला, ‘भारत सरकार के जो चाहे वो करने का अधिकार है.’ बस! इतना ही.

मैं जानती हूं कि मेरी ये कहानी 70 साल पहले हुए बंटवारे के फैसले से हुई लाखों मौतों और बिखरे हज़ारों परिवारों के सामने कुछ भी नहीं है.

वज़ीरा ज़मींदार ने बंटवारे पर लिखा है, ‘1947 का ये बंटवारा आने वाले कितने दशकों तक चलता रहा था, ये बंटवारा आज भी जारी है, एक सरहद जहां कभी आने-जाने का रास्ता बन सकता था, वहां कभी न टूटने वाली एक दीवार खड़ी हो चुकी है.’

जैसे-जैसे हमारे देशों के बीच रिश्ते ख़राब हो रहे हैं, मुझे अपना ये छोटा-सा नुकसान उन अनगिनत लोगों के दुख के मुक़ाबले बहुत छोटा लगने लगा है, जिन्हें सरहदों के इस बंटवारे से मिला दर्द हर रोज़ झेलना पड़ता है…

अपने बच्चों से बिछड़े मां-बाप, भाई-बहनों से बिछड़े भाई-बहन, वे मछुआरे जो पानी के बीच खिंची अनदेखी सरहद को अनजाने में पार करने के जुर्म में सालों जेल में रहे, सीमा के पास रहने वाले वे परिवार, जो अगली फायरिंग के डर के साये में रोज़ जीते हैं.

कई बार दोनों देशों के रिश्ते सामान्य करने की कोशिशें भी की गई हैं पर अब वे भी ख़त्म हो रही हैं. मिसाल के तौर पर बीते दिनों ‘पीस विज़िट’ (शांति यात्रा) पर आए पाकिस्तानी स्कूली छात्रों के एक डेलीगेशन को सरहद पर बढ़े तनाव के चलते वापस भेज दिया गया.

वहीं पिछले हफ़्ते एक और आदेश आया जिसके मुताबिक इलाज के लिए हिंदुस्तान आने वाले पाकिस्तानियों को वीज़ा मिलना और मुश्किल होगा. ये एक तरह से आम लोगों को उनकी ज़िंदगी बचा सकने वाले इलाज से महरूम करने जैसा है.

और ज़ाहिर है, जैसा हमेशा से होता आया है पाकिस्तान सरकार की तरफ से इन नियमों का जवाब ऐसे ही और कोई नियम बनाकर दिया जाएगा.

यानी इशारा साफ है: दोनों देशों के लोगों के बीच में कोई भी सकारात्मक रिश्ता- चाहे वो विचार, जानकारी, कोई कौशल साझा करना हो या प्यार-मुहब्बत- फ़ौरन हमेशा के लिए तोड़ दिया जाएगा.

आने वाले दिनों में कई और पीआईओ कार्ड ज़ब्त किए जाएंगे, कई वीसा रिजेक्ट किए जाएंगे; दीवारें और ऊंची और मज़बूत कर दी जाएंगी, पर इस परेशानी का फिर भी कोई हल नहीं निकलेगा.

सदियों से साथ-साथ रहने, एक जैसी रवायतें और विरासत साझा करने और प्यार की नींव पर बने रिश्ते को इतनी आसानी से नहीं तोड़ा जा सकता.

वे हमें भटकाने-बहलाने की कोशिश करेंगे, हमें यकीन दिलाया जाएगा कि हम मौलिक रूप से ही अलग हैं. हमें एक-दूसरे से नफ़रत करने को मजबूर किया जाएगा पर हमें ऐसी हर कोशिश के ख़िलाफ़ खड़े होना होगा.

हमें बताना होगा कि हमारी जड़ों का, हमारे मूल का फैसला कागज़ के चंद टुकड़ों, प्लास्टिक के कार्डों या इन चमकीली बुकलेट से नहीं होगा, जिसे आसानी से हमसे छीना जा सकता है.

हमारी जड़ें, हमारा प्यार हमारे शरीरों पर लिखा है, हमारी रूह में है, हमारी ज़बान, संस्कृति, इतिहास में है, और वे जितना भी चाहे, राजनीति के दांव-पेंचों से इसे मिटाया नहीं जा सकता.

निदा लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज, लाहौर में पढ़ाती हैं.

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