100 साल का हुआ देश का पहला ‘पागलखाना’

देश का पहला मानसिक अस्पताल आज अपने 100वें साल में प्रवेश कर गया है. रांची के कांके स्थित केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान की स्थापना 17 मई 1918 को हुई थी.

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देश का पहला मानसिक अस्पताल आज अपने 100वें साल में प्रवेश कर गया है. रांची के कांके स्थित केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान की स्थापना 17 मई 1918 को हुई थी.

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रांची स्थित केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान. (फोटो: फेसबुक)

प्रथम विश्वयुद्ध के मनोरोगी अंग्रेज सैनिकों और एंग्लो-इंडियनों के लिए स्थापित इस मानसिक अस्पताल के पहले मेडिकल सुपरिटेंडेंट कर्नल ओवेन एआर बर्कले-हिल थे. इसके दूसरे सुपरिटेंडेंट जेई धनजीभाई की पहल पर 1925 में भारतीय मानसिक रोगियों को भी इसमें जगह मिलनी शुरू हो गई.

अपनी ख़ास चिकित्सा पद्धति और अनेक कारणों से यह भारत ही नहीं वरन दुनिया में अपने ढंग का अनोखा मानसिक अस्पताल रहा है. इसके मरीज़ नाटक करते थे, फुटबॉल, हॉकी खेलते थे, गीत-संगीत का कार्यक्रम देते थे.

रांची के बाज़ार में खरीदारी करते थे, पिकनिक मनाने जाया करते और सर्कस-जादू, थियेटर का आनंद लेते थे. हिंदी, अंग्रेज़ी, उड़िया, बांग्ला आदि भाषाओं में 10 से ज़्यादा अख़बार और पत्रिकाएं पढ़ते थे.

ब्रिटिश भारत में सिर्फ इसी पागलखाने में एक बहुत बढ़िया लायब्रेरी थी जिसमें पढ़ाकू टाइप के मानसिक रोगी विश्व साहित्य में सिर खपाए रहते थे.

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साल 1925-29 के बीच रांची के सभी खेल क्लबों को हराकर यहां के मानसिक रोगियों ने फुटबाल और हॉकी के सारे टूर्नामेंट मैच जीत लिए थे. और 1940 में सिर्फ एक साल के दौरान हिंदी, अंग्रेज़ी और बांग्ला की 58 फिल्में देख डाली थीं.

चालीस के दशक में जब देश में बहुत कम सिनेमाघर थे तब कांके मानसिक अस्पताल के पास मार्च 1933 में ही अपना प्रोजेक्टर, प्रशिक्षित ऑपरेटर और सिनेमा हॉल था.

ब्रिटिश भारत में यह अकेला शिक्षण संस्थान था जो लंदन विश्वविद्यालय से एफिलिएटेड था और मनोचिकित्सा में पोस्टग्रेजुएट की डिग्री देता था.

तब भारत के किसी विश्वविद्यालय में पोस्टग्रेजुएट पढ़ाई की व्यवस्था नहीं थी. देश को ‘पागलों का पहला डॉक्टर’ यानी मनोचिकित्सक (डॉ. एलपी वर्मा, पोस्टग्रेजुएट मनोचिकित्सक, एमडी) इसी संस्थान ने दिया. वह मनोचिकित्सा में डॉक्टर आॅफ मेडिसिन की डिग्री लेने वाले भारत के पहले व्यक्ति थे.

स्वतंत्र भारत में मानसिक रोग संबंधी पहली केंद्रीय नीति ‘मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987’ उस ड्राफ्ट पर आधारित था जिसे रांची मनोचिकित्सा संस्थान के डॉ. डेविस ने 1949 में लिखा था.

उर्दू के मशहूर शायर मजाज़ और बांग्ला के मशहूर विद्रोही कवि काज़ी नज़रुल इस्लाम भी इलाज के लिए 1952 में यहां भर्ती हुए थे. सबसे ख़ास यह कि इस मानसिक अस्पताल में ब्रिटिश और स्वतंत्र भारत में लंबे अरसे तक एक भी आदिवासी रोगी नहीं था.

ब्रिटिश दस्तावेजों के अनुसार पहला सरकारी पागलखाना बिहार के मुंगेर में 17 अप्रैल 1795 को खोला गया. इसके बाद पटना के बांकीपुर में गंगा के किनारे में 1821 में अविभाजित बिहार का दूसरा पागलखाना शुरू हुआ.

रांची के केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान की शुरुआत 1918 में हुई लेकिन भारतीय मनोचिकित्सा के इतिहास में यह संस्थान मनोरोगियों की चिकित्सा पद्धति, सामाजिक देख-रेख और उनके मानवाधिकारों को सुनिश्चित करने में सबसे अग्रणी रहा.

यहां अपनाई जाने वाली मानवीय दृष्टि के कारण ही आगे चलकर सरकार की नीति में परिवर्तन आया और 1920 से सरकारी तौर पर पागलखानों को अस्पताल का दर्जा मिला.

यहां पागलों का इलाज ‘पागल’ की तरह नहीं बल्कि सामान्य रोगी की तरह किया जाता था. मनोरोगियों को यहां पारिवारिक और सामाजिक माहौल दिया जाता था.

खेल, संगीत, कला, साहित्य, नाटक-रंगमंच जैसी अनेक रचनात्मक गतिविधियां उपचार का माध्यम थीं. मानसिक रोगियों के पुनर्वास की संकल्पना यहीं पहली बार की गई.

यह ध्यान देने योग्य है कि अन्य मानसिक अस्पतालों के विपरीत, रांची का केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान कभी भी मनोरोगियों के लिए कारागार नहीं रहा. यहां पागल सींखचों, जंजीरों, रस्सियों आदि में कैद कर के नहीं रखे जाते थे.

100 साल पूरा कर चुके इस संस्थान में ही सबसे पहले आॅक्यूपेशनल थेरेपी विभाग 1922 में खुला. 1943 में ईसीटी खुला. 1947 में साइको सर्जरी एंड न्यूरोसर्जरी खुला.

1948 में क्लीनिकल साइकोलॉजी एंड इलेक्ट्रोनसाइकोग्राफी विभाग खुला. 1948 में देश में पहली बार यहां साइको सर्जरी 1952 में न्यूरोपैथोलॉजी की शुरुआत भी यहीं हुई.

लेकिन रांची पागलखाने का इतिहास जितना स्वर्णिम है उसका वर्तमान अब वैसा नहीं रह गया है. 210 एकड़ में फैले इस संस्थान की प्रसिद्धि आज भी है परंतु यह अब कई मुश्किलों से गुज़र रहा है.

मरीज बढ़ गए हैं, वार्ड की कमी है. पहले की तरह स्थायी कर्मचारी और सुरक्षाकर्मी नहीं रह गए हैं. चिकित्सकों की भी नई नियुक्तियां पिछले कई सालों से नहीं हो पाई है.

वर्ष 2010 में भारतीय पुनर्वास परिषद (आरसीआई) ने स्थायी शिक्षकों के नहीं होने के कारण क्लिनिकल साइकोलॉजी व साइकियाट्रिक सोशल वर्क के पाठ्यक्रमों की मान्यता को आगे जारी रखने से मना कर दिया था, जिससे यहां के छात्र आंदोलन पर उतर आए थे.

पिछले साल संस्थान ने शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए अनुबंध के आधार पर विज्ञापन निकाला था. इसके तहत एक साल के लिए एसोसिएट प्रोफेसर ऑफ क्लिनिकल साइकोलॉजी, असिस्टेंट प्रोफेसर ऑफ क्लिनिकल साइकोलॉजी, असिस्टेंट प्रोफेसर ऑफ साइकियाट्रिक सोशल वर्क और क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट की नियुक्ति की जानी थी.

इसके अलावा चीफ एडमिनिस्ट्रेटिव अफसर, लाइब्रेरी एंड इनफॉरमेशन अफसर, सीनियर डायटीशियन, ऑक्यूपेशनल थेरेपिस्ट के पदों के लिए भी आवेदन मांगे थे.

सुरक्षा का आलम अब यह है कि 2015 में संस्थान में तैनात निजी सुरक्षा एजेंसी एसआईएस के सुरक्षाकर्मियों को चकमा देकर दो मनोरोगी भाग निकले थे.

अब जबकि आज से इसका शताब्दी वर्ष समारोह शुरू हो रहा है तो संस्थान के निदेशक डॉ. डी. राम ने दावा किया है कि संस्थान में जल्दी ही 500 बेड का एक नया अस्पताल खोला जाएगा और डॉक्टरों की कमी को पूरा किया जाएगा.

उन्होंने बताया कि इसके लिए केंद्र सरकार ने स्वीकृति दे दी है. डॉ. राम के अनुसार संस्थान में फंक्शनल एमआरआई की सुविधा भी शीघ्र शुरू हो जाएगी. इस विधि के द्वारा दिमाग की गतिविधियों को लाइव देखा जा सकेगा. इससे मरीजों की चिकित्सा के साथ-साथ रिसर्च में भी मदद मिलेगी.

(लेखक झारखंड आंदोलन से जुड़े रहे हैं. संस्कृतिकर्मी और ‘जोहार दिसुम ख़बर’ के संपादक हैं.)

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