समझौता एक्सप्रेस विस्फोट मामले को लेकर किए अमित शाह के दावों में कितनी सच्चाई है?

गृहमंत्री अमित शाह का दावा है कि पिछली सरकार ने हिंदू धर्म को आतंकवाद से जोड़ने के लिए असली दोषियों को छोड़ दिया था, यदि ऐसा है तो एनआईए उन्हें पकड़ने की दिशा में कोई कदम क्यों नहीं उठा रही है?

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Home minister Amit Shah outside parliament. Image: PTI

गृहमंत्री अमित शाह का दावा है कि पिछली सरकार ने हिंदू धर्म को आतंकवाद से जोड़ने के लिए असली दोषियों को छोड़ दिया था, यदि ऐसा है तो एनआईए उन्हें पकड़ने की दिशा में कोई कदम क्यों नहीं उठा रही है?

Home minister Amit Shah outside parliament. Image: PTI
गृहमंत्री अमित शाह (फोटो: पीटीआई)

पिछले सप्ताह राज्यसभा में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) चलानेवाले कानून में प्रस्तावित संशोधनों पर बहस के दौरान गृहमंत्री अमित शाह ने इस आलोचना का जवाब देने की भरसक कोशिश की कि भाजपा द्वारा आतंकवाद के आरोपी हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं को छोड़ने के लिए एनआईए का दुरुपयोग किया गया है.

उन्होंने जो कहा वह पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने के साथ-साथ काफी खतरनाक भी था. समझौता एक्सप्रेस, अजमेर और हैदराबाद बम धमाके के मामलों के आरोपियों को बरी करने के फैसले के खिलाफ एनआईए ने याचिका दायर करने की जहमत क्यों नहीं उठाई है, इसको लेकर दी गई उनकी सफाई में विश्वसनीयता और आत्मविश्वास की कमी थी.

सबसे खराब बात यह है- और ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि भारत के गृहमंत्री को अपने सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों का इतना खुलेआम प्रदर्शन नहीं करना चाहिए- शाह इस अतार्किक दावे को आगे बढ़ाने से बाज नहीं आ रहे हैं कि किसी एक भी हिंदू पर आतंकवाद का आरोप लगाया जाना सभी हिंदुओं को आतंकवादी बताकर उन पर हमला करने और हिंदू धर्म को बदनाम करने के समान है.

2014 में जब नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई, उस वक्त एनआईए ऐसे कई आतंकी मामलों का मुकदमा लड़ रहा था जिसमें मुख्य आरोपी का संबंध राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ समेत अन्य हिंदुत्ववादी संगठनों से था.

इनमें 2007 का अजमेर शरीफ बम धमाका जिसमें तीन लोग मारे गए थे और दर्जनभर ज़ख्मी हुए थे, 2007 का हैदराबाद का मक्का मस्जिद धमाका, जिसमें 14 लोग मारे गए थे, 2008 का मालेगांव धमाका और 2007 का दिल्ली-लाहौर समझौता एक्सप्रेस धमाका, जिसमें 68 लोग मारे गए थे (जिनमें ज्यादातर पाकिस्तानी नागरिक थे) शामिल थे.

मोदी सरकार इन मामलों में क्या रुख अपनानेवाली है, इसका थोड़ा सा आभास हमें 2015 में ही तब हुआ था, जब मालेगांव विस्फोट मामले में एनआईए के लिए काम कर रहे एक वकील रोहिणी सालियन ने यह खुलासा किया था कि उन पर अपराध को अंजाम देने के आरोपी हिंदू कट्टरपंथियों पर नरमी बरतने के लिए दबाव डाला जा रहा था.

संयोग से मालेगांव के आरोपियों में प्रज्ञा सिंह ठाकुर भी शामिल थीं, जो अब नाथूराम गोडसे को पूजने वाले के बतौर और निश्चित तौर पर उस व्यक्ति के तौर जिसे अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने भोपाल शहर से भाजपा की नुमाइंदगी करने के लिए चुना, ज्यादा चर्चित हैं.

एनआईए ने सालियन के आरोपों से इनकार दिया, लेकिन एक साल से भी कम समय बाद उनकी बात तब सही साबित हुई जब एनआई ने प्रज्ञा सिंह समेत पांच लोगों पर लगे सभी आरोपों को वापस लेने की मांग की!

खुशकिस्मती से कोर्ट ने एजेंसी के उनके खिलाफ कोई सबूत न होने के दावे को नहीं माना और कहा कि मुकदमे को आगे बढ़ाने पर जोर दिया.


ऐसा लगता है कि दूसरे मामलों में भी एनआईए ने अभियोजक पक्ष के केस को कमजोर करने की यथासंभव कोशिश की है. यही वजह है कि हैदराबाद और समझौता बम धमाके के सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया.

अजमेर शरीफ बम धमाका मामले में (एनआईए के शीर्ष नेतृत्व के लिए दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से) 2017 में विशेष अदालत ने आरएसएस के दो कार्यकर्ताओं- देवेंद्र गुप्ता और भावेश पटेल को दोषसिद्ध करार देते हुए उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई. आरएसएस के तीसरे व्यक्ति, सुनील जोशी, जिनका मृत्यु हो चुकी थी, को मृत्यु के उपरांत दोषी करार दिया.

अजमेर की एनआईए अदालत ने यह दर्ज किया है कई आरोपी अभी भी खुलेआम घूम रहे हैं. इनमें से एक हिंदुत्व कार्यकर्ता सुरेश नायर को बाद में पकड़ लिया गया और जेल भेज दिया गया.

इससे पहले कि मैं अमित शाह के संसद में दिए गए चौंकानेवाले बयान पर आऊं मैं कुछ बातें रेखांकित करना चाहूंगा.

आरएसएस से संबंध रखनेवाले देवेंद्र गुप्ता और भावेश पटेल को दोषी करार दिया जाना इस बात का सबूत है कि हिंदुत्ववादी आतंकी समूह कांग्रेस या पिछली यूपीए सरकार का आविष्कार नहीं थे.

एनआईए की मूल जांच ने कई बम धमाकों के मामलों में स्वामी असीमानंद और प्रज्ञा ठाकुर समेत कई ऐसे लोगों की प्रकट भागीदारी का पर्दाफाश किया था, जिनके तार आपस में जुड़े हुए थे.

इन मामलों में तीन फरार लोगों, रामचंद्र कलसांगरा, संदीप डांगे, रमेश महालकर- की भूमिका सबसे ज्यादा ध्यान खींचनेवाली थी. 12 साल पहले हुए समझौता एक्सप्रेस हमले के मामले में, जो इन सब में सबसे जघन्य बम विस्फोट था, टूटे हुए सिरे सबसे ज्यादा मजबूती से आपस मे जुड़ते हुए दिख रहे थे.

लेकिन एनआईए की लापरवाह जांच और बेमन से लड़े गए मुकदमे और साफ सुराग के बावजूद कालसंगरा और डांगे का पता लगाने से इनकार करने कारण इस साल की शुरुआत में समझौता एक्सप्रेस मामले में आरोपियों को बरी कर दिया गया.

तब से सरकार ने इन्हें बरी करने के फैसले के खिलाफ अपील दायर करने की जहमत नहीं उठाई है- ठीक वैसे ही जैसे इसने अजमेर और हैदराबाद विस्फोट मामले में आरोपियों को दोषमुक्त किए जाने के खिलाफ अपील करना जरूरी नहीं समझा है.

विपक्ष के सांसद समझौता मामले पर अमित शाह के बयान के तीन खास बिंदुओं को लेकर ये जानना चाहते थे कि अमित शाह ने ये बातें क्यों कहीं?

पहला, पुलिस ने शुरू में सात असली दोषियों को गिरफ्तार किया था, लेकिन उन्हें छोड़ दिया गया. दूसरा, यह सब सिर्फ एक खास धर्म- हिंदू धर्म- को आतंकवाद से जोड़ने की राजनीतिक साजिश के तहत किया गया. और तीसरा, जिन लोगों पर मुकदमा चलाया गया, उन्हें इसलिए सजा नहीं दी जा सकी, क्योंकि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं था.

आइए इन दावों पर एक-एक करके विचार करते हैं.

मुझे पुलिस द्वारा सात लोगों को, जो कथित तौर पर इस मामले के असली दोषी थे, पुलिस द्वारा पहले पकड़े जाने और बाद में छोड़ देने के बारे में सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध कोई भी जानकारी नहीं मिली. हां, पंजाब पुलिस ने इन धमाकों के दो सप्ताह बाद एक पाकिस्तानी नागरिक को पकड़ा जरूर था, लेकिन उसके खिलाफ कोई तथ्य न पाने के कारण उसे छोड़ दिया गया था.

एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी भारती अरोड़ा ने द हिंदू  को 2017 में बताया था कि पाकिस्तानी नागरिक अज़मत अली से ‘अच्छी तरह से पूछताछ की गई थी और जब पूछताछ के बाद उसके खिलाफ कुछ भी नहीं पाया गया, तब उसे छोड़ दिया गया.’

अगर शाह सचमुच सही हैं और सात लोगों- ‘असली दोषियों’- को गिरफ्तार करने के बाद गलत तरीके से छोड़ दिया गया था, तो उन्हें हमें यह बताना चाहिए कि आखिर आतंकवाद के खिलाफ भारत की सर्वप्रमुख एजेंसी एनआईए ने उनके बारे में कुछ क्यों कहा?

एनआईए ने उनकी पहचान को सार्वजनिक क्यों नहीं किया और उन्हें गिरफ्तार करने की कोशिश क्यों नहीं की? चलिए एक पल के लिए यह मान लेते हैं कि एनआईए ने स्वतंत्र तरीके से यह फैसला किया कि जिन लोगों पर मुकदमा चलाया वे बेकसूर थे और इसलिए फैसले के खिलाफ अपील नहीं की.

लेकिन ऐसी स्थिति में वह असली दोषियों की पहचान करने और उन्हें पकड़ने की कोशिश क्यों नहीं कर रही है? क्या इसे सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकताओं में नहीं होना चाहिए?

दूसरी बात, शाह के इस दावे को कैसे देखा जाए कि पिछली यूपीए सरकार ने हिंदू धर्म को आतंकवाद से जोड़कर इसे बदनाम करने की कोशिश की. शाह एक चतुर व्यक्ति हैं. क्या कोई यह कहेगा हिंदू धर्म को बदनाम किया जा रहा है, क्योंकि विजय माल्या और नीरव मोदी पर बैंकों के साथ धोखाधड़ी का आरोप लगाया गया है?

क्या हिंदू धर्म पर इसलिए कलंकित हो गया कि अजमेर की एनआई अदालत ने देवेंद्र गुप्ता और भावेश पटेल को आतंकवाद का दोषी पाया? क्या हिंदू धर्म इसलिए बदनाम हो गया कि क्योंकि भाजपा और संघ के शीर्ष नेता बाबरी मस्जिद के विध्वंस में शामिल थे?

यह तथ्य कि एक हिंदू के आतंकी गतिविधि में संदिग्ध संलिप्तता और उस पर मुकदमा चलाए जाने पर भारत के गृहमंत्री ऐसा बेतुका बयान दे सकते हैं, इस बात की ही पुष्टि करता है कि उनकी नजर में आतंकवाद एक अन्य ‘धर्म विशेष’ से जुड़ा हुआ है.

कुछ भी हो, समझौता मामले के आगे बढ़ने को लेकर कुछ भी रहस्य जैसा नहीं है. 2016 में इन धमाकों की सबसे पहले जांच करनेवाले हरियाणा विशेष जांच दल के मुखिया, विकास नारायण राय ने द वायर  को उन लोगों द्वारा किए गए कामों के बारे में बताया था और यह भी कि कैसे वे और उनकी टीम वास्तव में जांच में उभर कर सामने आनेवाले हिंदू आयाम के बारे में बात करने से कतरा रहे थे.

यह साफ है कि जहां तक जांचकर्ताओं का सवाल है, पुरानी पुलिसिया कार्यशैली उनके काम आई.

तीसरी बात अमित शाह ने यह कही कि जिन लोगों पर मुकदमा चलाया गया, उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं था. लेकिन हकीकत में न्यायाधीश ने एक कमजोर केस खड़ा करने के लिए एजेंसी की खिंचाई की.

रोहिणी सालियन ने मालेगांव के बारे में जो बताया, उसे ध्यान में रखते हुए, ऐसा लगता है कि एनआईए ने शायद जानबूझकर बेहद अहम साक्ष्यों को दबा कर मुकदमे को कमजोर किया. या शायद इसके पास वैसे सबूत नहीं थे, जिससे इस मुकदमे को उसके सही अंजाम तक पहुंचाया जा सकता, क्योंकि न्यायाधीश ने स्वामी असीमानंद के इकबालिया बयान को अस्वीकार्य करार दे दिया.

यह भी पूरी तरह से मुमकिन है कि लापरवाही का सिलसिला यूपीए काल से ही शुरू हुआ हो, जैसा कि अमित शाह ने आरोप लगाया है- कि पिछली सरकार जल्दी से जल्दी नतीजे दिखाना चाहती थी, जिसके कारण एनआईए ने समझौते किए या हो सकता है कि वह नाकाबिल थी.

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि एजेंसी राजनीति से प्रेरित होकर काम कर रही थी. जैसा कि प्रवीण स्वामी ने लिखा है, ‘एनआईए का अजमेर शरीफ दरगाह विस्फोट में शामिल दो आतंकवादियों को दोषी सिद्ध कराने में कामयाब रहना यह दिखाता है कि एनआईए गलत दिशा में हाथ-पांव नहीं चला रही थी- और यह एक ऐसी चीज है, जिससे राजनीति से परे हर भारतीय को चिंतित होना चाहिए.’

मैं यह भी जोड़ना चाहूंगा कि बम विस्फोट के पीछे के मास्टरमाइंड माने जानेवाले तीन हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं- रामचंद्र कालसंगरा, संदीप डांगे और रमेश महालकर- इनको पकड़ने के लिए कोई गंभीर कोशिश नहीं की गई है.

शायद मैं गलत हूं. ऐसे में अमित शाह को संसद के पटल पर भगौड़ों को पकड़ने के लिए उनकी सरकार द्वारा किए गए प्रयासों के बारे में बताना चाहिए.

मैं गृहमंत्री की आखिरी काल्पनिक कहानी- कि कोर्ट के किसी फैसले पर अपील करने के संबंध में कोई निर्णय अकेले लॉ अफसर द्वारा लिया जाता है, न कि राजनेताओं द्वारा, से अपनी बात खत्म करूंगा.

उन्होंने राज्यसभा में कहा, ‘यह एक ऐसी सरकार नही है, जो राजनीतिक जनादेश के आधार पर काम करती है.’ पिछले पांच सालों में सत्ताधारी दल के ‘राजनीतिक जनादेश’ के द्वारा रौंद दिए गए संस्थानों की संख्या को देखते हुए यह एक चकित कर देनेवाला दावा है.

लेकिन ये बातें करनेवाला मैं कौन होता हूं! अमित शाह को साफ तौर पर मालूम है कि वे किस बारे में बात कर रहे हैं.

हो भी क्यों नहीं, खुद उन्हें लॉ अफसरों के इस आश्चर्यजनक स्वतंत्र निर्णय का फायदा पहुंचा, जब सीबीआई ने सोहराबुद्दीन-कौसर बी हत्या मामले में उन्हें बरी करने के खिलाफ अपील न करने का फैसला किया. जैसा कि बॉलीवुड में कहा जाता है, ‘माईलॉर्ड, मुझे इस मामले में आगे और कुछ नहीं कहना है.’

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