भारत में किसको, किसकी हत्या की छूट है?

हिंदुत्ववादी गिरोह क़ानून, विस्थापन, हत्याओं और धमकियों के सहारे दलितों और मुस्लिमों की जीवन पद्धति को नष्ट करने में लगे हुए हैं.

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अहमदाबाद में विश्व हिंदू परिषद की महिला इकाई की सदस्य आत्मरक्षा की कला का प्रदर्शन करते हुए. (फोटो: रॉयटर्स)

हिंदुत्ववादी गिरोह क़ानून, विस्थापन, हत्याओं और धमकियों के सहारे दलितों और मुस्लिमों की जीवन पद्धति को नष्ट करने में लगे हुए हैं.

अहमदाबाद में विश्व हिंदू परिषद की महिला इकाई की सदस्य आत्मरक्षा की कला का प्रदर्शन करते हुए. (फोटो: रॉयटर्स)
अहमदाबाद में विश्व हिंदू परिषद की महिला इकाई की सदस्य. (फोटो: रॉयटर्स)

भारतीय संघ में ‘पवित्र गिरोह’ क़ानून का ख़ौफ़ खाए बग़ैर लोगों का क़त्ल करते हैं, कुछ इस तरह जैसे ये क़त्ल किसी क़त्लख़ाने में हुए हों. इस क़त्लख़ाने का धर्म कहता है कि गोमांस, इंसानों से ज़्यादा पाक़ है. भारत में किसी की हत्या करने का मतलब क्या है? अपूर्वानंद के लिखे एक तीखे लेख ने हमारे ऊपर छाए इस सवाल की ओर हमारा ध्यान दिलाया.

यह सवाल आज ख़ासतौर पर इसलिए भी अहम है क्योंकि भारत सरकार ने कनाडा के ओंटारियो प्रांत द्वारा 1984 के सिख विरोधी ‘नरसंहारों’ को क़ानूनी रूप से जाति संहार (बड़ी संख्या में लोगों की उनकी जाति, धर्म, राजनीतिक मान्यताओं, भाषा आदि के आधार पर की जाने वाली योजनाबद्ध हत्या) के तौर पर मान्यता देने पर अपना विरोध जताया है.

सत्तारूढ़ भाजपा ने 1984 के नरसंहार पर बहस को इसलिए जिंदा रखा है ताकि इसके शोर में 1989, 1992, 2002 के मुस्लिम विरोधी नरसंहारों और 2007-08 के ओड़िशा के ईसाई विरोधी दंगों पर पर्दा पड़ जाए.

निश्चित तौर पर 1984 को जाति संहार के तौर पर मान्यता देने से हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों और आज के कई पदाधिकारियों की इसमें भूमिका की तरफ़ भी लोगों का ध्यान जाएगा.

ऐसा होने से उस घटना को भी जाति संहार के तौर पर पुकारने का दरवाज़ा खुल जाएगा, जिसका ज़िक्र आज हम बस अपनी फुसफुसाहटों में ‘2002’ के तौर पर कर पाते हैं. लेकिन आने वाले समय में हम इस रंग की कई चीज़ें देख सकते हैं.

विस्तार-भूमि से मृत्यु-भूमि तक

तो, भारत में किसे, किसको मारने की छूट मिली हुई है? ज़रूरी है कि पहले हम उन स्थितियों का सर्वेक्षण करें जिसके तहत हम यह सवाल पूछने वाले हैं.

हिंदुत्व के समर्थक एक अभद्र मासूमियत के साथ शिकायत करते हैं कि हत्याएं ‘विकास’ पर ग्रहण लगा रही हैं. वे हत्याओं और खनन ठेकों तथा बुलेट ट्रेनों के बीच संतुलन चाहते हैं.

टेलीविज़न पर पवित्र गिरोहों की कहानियों को लेकर कोई ख़तरे की घंटी नहीं है, जो अलग-अलग दिनों में अलग-अलग पवित्र चीज़ों के प्रति अपनी श्रद्धा का प्रदर्शन हत्या और लूट से करते हैं.

ये पवित्र चीज़ें कुछ भी हो सकती हैं- झंडे, राष्ट्रीय गृहिणी, गोमांस, दाह-संस्कार, प्रेम का विरोध, पुराने टेलीविजन धारावाहिकों के नायक- कुछ भी.

हम आज के अनिवार्य चुनावी सवाल- ‘श्मशान या कब्रिस्तान?’ को अनसुना कर देने में माहिर हो गए हैं. जबकि हम जानते हैं कि पहले का निर्माण दूसरे पर किया जाना है और यही हिंदू राष्ट्र का आदर्श चित्र है.

हम हैरत में हिंदू राष्ट्रवादियों की इस खोज को देखते हैं, जो उनके वैचारिक गुरु नाज़ियों से भी अलग है: नाज़ियों ने अपने राष्ट्र के अस्तित्व के लिए विस्तार-भूमि (लेबनस्राॅम) की मांग की थी, हिंदू राष्ट्र के पैरोकार अपने लिए मृत्यु-भूमि (टोडरस्राॅम) की मांग कर रहे हैं.

टेलीविज़न पर भड़काऊ भाषणों का बचाव यह कहते हुए किया गया कि ‘यह बस एक चुनावी भाषण है, इसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए’. लोग मरने लगे और रेफ्रिजेरेटर में रखे हुए मीट से पूछताछ होने लगी.

मृतकों पर जांच बिठाई जा रही है और उनके जन्म- मुस्लिम, दलित, दक्षिण भारतीय, उत्तर-पूर्वी भारत- पर सुनवाई हो रही है. टेलीविज़न के न्यूज़ एंकर नेताओं की तुलना में हिंदू राष्ट्र के बेहतर प्रवक्ता हैं.

पवित्र गिरोह मुस्लिमों, दलितों और ईसाइयों की हत्या हिंदुओं के लिए मृत्यु-स्थल तैयार करने के लिए करते हैं, यह तथ्य भारत के बैठकखानों में सहजता से दाख़िल हो गया है.

जीवन और जीवन पद्धति: जाति संहार और जातीयता-संहार

‘किसको किसकी हत्या की छूट है’, यह सवाल हमें भारत में राज्य के अर्थ की ओर लेकर जाता है. राज्य की जटिलता में दाख़िल होने के कई रास्ते हैं.

अपने आधुनिक रूप में राज्य (सरकार) उन स्थितियों की पहली मंज़िल है जिसमें कई तरह के जीवन, और नई जीवन-पद्धतियों के आविष्कार के लिए ज़रूरी खुलेपन का अस्तित्व संभव होता है.

अपने क्लासिकल अर्थ में राज्य वह संस्था है, जिसने शक्ति का प्रयोग करने का अधिकार हर किसी से एक क़रार के तहत हासिल किया है. हर बार शक्ति का प्रयोग करते वक़्त उसे वैधता देने के लिए राज्य इसी क़रार का सहारा लेता है.

यह इस बात को सुनिश्चित करता है कि जीवन पद्धति के लिए जीवन का होना ज़रूरी है; राज्य के साथ क़रारनामे के पीछे यही विचार है.

उपमहाद्वीप में या कहीं और राज्य के बारे में सोचने का सबसे सटीक तरीक़ा यह है कि इसके पास प्राण लेने का अधिकार है. कहने का मतलब ये है कि व्यक्तियों के पास हत्या करने का अधिकार नहीं है, मगर राज्य ने अपने लिए यह अधिकार आरक्षित रखा है- मृत्यु दंड के रूप में, आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट के तहत ‘अशांत’ किए गए क्षेत्रों में मुक़दमा चलने से मुक्ति के रूप में और दंगों के समय कमज़ोरों को बचाने के कर्तव्य के रूप में, जहां दरअसल वह इस अधिकार का इस्तेमाल नहीं करता.

मानवशास्त्री पियरे क्लासट्रेस के मुताबिक, जीवन और जीवन पद्धति के हिसाब से दो भिन्न अपराध हैं- जाति संहार और जातीयता-संहार. इसमें पहला पहचान के आधार पर लोगों की हत्या है और दूसरे में जीवन पद्धति- जैसे किसी जनसमूह के प्रेम करने, विभिन्न तरीक़ों से प्रेम की अभिव्यक्ति करने, आहार आदि को नष्ट किया जाता है.

हिंदुत्ववादी गिरोह इन दोनों लक्ष्यों के तहत काम कर रहा है. क़ानून, विस्थापन, हत्याओं और धमकियों के सहारे दलितों और मुस्लिमों की जीवन पद्धति को जिस तरह नष्ट किया जा रहा है, वह इसका जीता जागता सबूत है.

राज्य द्वारा किसी के प्राण लेने के अधिकार को धीरे-धीरे हिंदुत्व गिरोहों को सौंपना इस संस्था का अर्थ उजागर करता है. ये हत्याएं पहली नज़र में छिटपुट नज़र आ सकती हैं, उदाहरण के लिए, हाल में दादरी में (एक मुस्लिम की), अलवर में (एक मुस्लिम की), ऊना में (दलितों की) गोमांस के लिए हत्या या पिटाई. हक़ीक़त यह है कि 1960 के दशक से अब तक हर दशक में ऐसी घटनाएं हुई हैं जिन्हें नरसंहार कहा जाना चाहिए.

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1984 के सिख विरोधी नरसंहार ने 3000 से ज़्यादा लोगों की जानें लीं. उसके बाद मलियाना और हाशिमपुरा के नरसंहार हुए. चूंकि ये नरसंहार कांग्रेसी शासन के दौरान हुए और इनमें इसके नेताओं के नाम भी आए, इसलिए उस समय से इन घटनाओं, ख़ासतौर पर 1984 का इस्तेमाल हिंदुत्व गिरोहों द्वारा किए गए बाक़ी सारे नरसंहारों को जायज़ ठहराने के लिए किया जाता है.

शायद 1984 के लिए अपने ही वर्तमान और पूर्व सदस्यों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई पूरी कराने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए की होनी चाहिए थी. निश्चित तौर पर दूसरे दलों ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखलाई है.

गुजरात दंगों के दौरान दंगाइयों से घिरे हुए कुतुबुद्दीन अंसारी. (फोटो: रॉयटर्स)
गुजरात दंगों के दौरान दंगाइयों से घिरे हुए कुतुबुद्दीन अंसारी. (फोटो: रॉयटर्स)

इन सबके बीच में हमने 1989 में बिहार के भागलपुर में हुए नरसंहार को भुला दिया है. इस नरसंहार की ज़मीन अयोध्या में 16वीं सदी के मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर का निर्माण करने की भाजपा और विश्व हिंदू परिषद की मुहिम ने तैयार की थी. 6 दिसंबर, 1992 को भाजपा और विहिप के नेतृत्व वाले पवित्र गिरोह ने इस मस्जिद को ढहा दिया. इसके बाद हुए नरसंहारों ने एक हज़ार से ज़्यादा लोगों की जानें लीं.

सबसे ज्यादा कुख्यात नरसंहार, 2002 में गुजरात में हुआ, जो हिंदुत्ववादी संगठनों के नैरेटिव में राम मंदिर आंदोलन से जुड़ा हुआ है. सबसे हालिया नरसंहार मुज़फ़्फ़रनगर (पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में हुआ, जिसने दर्जनों मुस्लिमों की जानें ले लीं, हज़ारों को बेघर कर दिया और उनसे उनकी रोज़ी-रोटी छीन ली.

उस समय केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार और राज्य में समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने इस नरसंहार को रोकने के लिए कुछ ख़ास नहीं किया, जिसे 2014 में केंद्र और अब उत्तर प्रदेश में भाजपा की चुनावी जीत की पूर्वपीठिका के तौर पर देखा जाता है.

राज्य और जीवित रहने का आदिम क़ानून

नरसंहार को ‘दंगा’ कहकर भारत संदेश देना चाहता है कि यह एक विफल राष्ट्र है. अगर एक राज्य लोगों से हासिल की गई शक्ति का इस्तेमाल अल्पसंख्यकों (चाहे वे धार्मिक अल्पसंख्यक हों या कोई और) की रक्षा के लिए नहीं कर सकता, तो इसकी कोई वैधता नहीं है.

यह असफलता उस निहत्थे व्यक्ति की तरह बेक़सूर नहीं है जो पवित्र गिरोह के सामने असहाय खड़ा रहता है. बल्कि इसकी जगह भारत के शक्तिशाली राज्य (सरकार) ने हिंदुत्व संगठनों और 1984 के मामले में कांग्रेस का औज़ार बन जाने के लिए अपनी रज़ामंदी दी है.

आज जब ‘हिंदू राष्ट्र’ का सूत्रपात किया जा रहा है, तब ख़ुद राज्य ही पवित्र गिरोह में तब्दील हुआ जा रहा है. हमें यह कहा गया है कि यह मज़बूत व्यक्ति के नेतृत्व वाला मज़बूत राज्य है. लेकिन राजनीतिक सिद्धांत हमें बताते हैं कि कोई राज्य जितना ज़्यादा मज़बूत होता जाता है, वह वैधता से उतना ज़्यादा दूर होता जाता है.

व्यक्तियों की रक्षा करने में राज्य की नाकामी में न्यायिक विमर्श और क़ानून की संस्थाओं की भी भूमिका है. साक्ष्यों के बावजूद क़सूरवारों को रिहा कर देने और फ़ैसला सुनाने में देरी और इनकार करके न्यायिक संस्थाओं ने अपनी आंखों पर लगी पट्टी उतार फेंकी है.

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अपनी यह इच्छा जताई कि बाबरी विवाद का समाधान कोर्ट से बाहर किया जाना चाहिए. काफ्का की नीतिकथा ‘बिफोर द लॉ’ (यह नीतिकथा महान जर्मन कथाकार फ्रैंज काफ्का के ‘द ट्रायल’ उपन्यास का हिस्सा है) में क़ानून के मंदिर का दरवाज़ा हर समय खुला रहता है, मगर बस यह बताने के लिए आप इसमें दाख़िल नहीं हो सकते और अपनी फ़रियाद नहीं कर सकते. क्या भारत में अल्पसंख्यक भी क़ानून के सामने इसी तरह से खड़े नहीं रहते?

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ये पवित्र गिरोह किसी तक भी पहुंच सकते हैं, क्योंकि ये रास्ता निकाल लेने में माहिर हैं. हैदराबाद और जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में यह राष्ट्रवाद और गोमांस के नाम पर किया गया.

केरल में यह पवित्र गिरोह प्रेम की सार्वजनिक अभिव्यक्ति पर बाहर निकला, जिसका विरोध कल्पनाशील ‘किस ऑफ लव’ विरोध आंदोलन के ज़रिए किया गया.

मुज़फ़्फ़रनगर में हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच प्रेम का सैन्यीकरण कर दिया गया और इसे ‘लव जिहाद’ का नाम दिया गया. एक दिन ऐसा आएगा कि वे हर घर में घुस जाएंगे.

जम्मू कश्मीर में गोमांस पार्टी के विरोध में विधायक अब्दुल राशिद के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करते बजरंग दल के कार्यकर्ता. फोटो: पीटीआई
जम्मू कश्मीर में गोमांस पार्टी के विरोध में विधायक अब्दुल राशिद के ख़िलाफ़ टायर जलाकर प्रदर्शन करते बजरंग दल के कार्यकर्ता. (फाइल फोटो: पीटीआई)

जब न्यायिक संस्थाएं असफलत हो जाती हैं, तब जीवन का आदिम क़ानून- वह क़ानून जो न्यायिक संस्थाओं को वैधता प्रदान करता है, प्रकट होता है और उसका राज कायम हो जाता है.

यह क़ानून कहता है कि आप अपने जीवन और स्वजनों की रक्षा ख़ुद करेंगे. राज्य का निर्माण करने वाला क़रारनामा सिर्फ़ इसलिए मुमकिन हुआ, क्योंकि हमने अपनी रक्षा ख़ुद करने के आदिम क़ानून को राज्य को सौंप दिया- कुछ इस तरह से कि राज्य हमारे बदले में बिना किसी चूक के हर मौक़े पर इस अधिकार का इस्तेमाल करे.

संविधान में इस तथ्य के प्रमाण मिलते हैं कि व्यक्ति को अपनी रक्षा करने का अधिकार है और इसलिए यह एक ऐसी चीज़ है, जिसको कोई चुनौती नहीं दे सकता है.

राजनीतिक विचारकों के लिए असफल राज्य एक दिलचस्प जगह है, क्योंकि यहां वह आदिम क़ानून दिखाई देता है, जिसके मुताबिक हमें अपनी हत्या नहीं होने देने के लिए दूसरों की हत्या करनी होगी. वैसे शासनों में जो अच्छे या ख़राब तरीक़े से चल रहे हैं, इस आदिम क़ानून का दिखाई देना वैसी ही अश्लीलता है जैसे किसी क़त्लगाह के बाहर अंतड़ियां दिखाई दें.

इन परिस्थितियों में यह आदेश कि ‘आप क़ानून को अपने हाथ में नहीं लेंगे’ उतना ही डरावना है, जैसे कि महात्मा गांधी ने यहूदियों को सलाह दी थी कि उन्हें नाज़ियों के हाथों अपनी हत्या होने देने का प्रतिरोध नहीं करना चाहिए.

इस क़ानून का पालन, तभी तक अर्थवान है, जब तक राज्य सुचारु रूप से काम कर रहा है. एक असफल राज्य में इस आदेश को इस तरह से पढ़ा जाना चाहिए, ‘जब हमारे लोग आएं, तब तुम अपनी हत्या होने दोगे’. लेकिन, इसकी जगह जैसा कि अपूर्वानंद ने कहा, मुस्लिमों- और दलितों- को अपनी हत्या होने से इनकार करना होगा.

मृत्यु-भूमि में आपके सामने विकल्प

केरल के अलावा हिंदुत्व गिरोह देश के हर हिस्से में बग़ैर किसी सज़ा और राज्य की कार्रवाई या पलटवार के डर के हंगामा करने, लोगों पर हमले करने या हत्या करने में सफल हो रहे हैं.

केरल में आरएसएस का कार्यक्रम बाक़ी जगहों की तरह ही भड़काऊ भाषणों और मुस्लिमों के ख़िलाफ़ अभियान से शुरू हुआ. इसकी परिणति 1971 में ‘तेलिचेरी दंगे’ से हुई.

इस दंगे की जांच करने वाले जस्टिस जोसेफ़ आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक “तेलिचेरी में हिंदू और मुस्लिम सदियों से भाइयों की तरह रह रहे थे. ‘मोपला दंगों’ ने तेलिचेरी में हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच के मधुर संबंधों पर असर नहीं डाला. आरएसएस और जनसंघ द्वारा तेलिचेरी में अपनी इकाई स्थापित करने और गतिविधियां चालू करने के बाद इस स्थिति में बदलाव आया”. केरल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने आरएसएस को उसकी ही भाषा में जवाब दिया है.

हाल के दिनों में माकपा और आरएसएस के सदस्यों द्वारा एक-दूसरे की हत्या की घटनाओं में हुई वृद्धि एक तरह से केरल में धार्मिक रक्तपात को रोके हुए है. इस लिहाज से माकपा कार्यकर्ता एक तरह से जीवन के आदिम नियम का पालन कर रहे हैं- ‘आप उनकी हत्या करेंगे, जो आपके स्वजनों की हत्या करना चाहते हैं.’

मीडिया द्वारा एक सुर में माकपा की आलोचना इस बात का संकेत है कि खेल के इस स्थापित नियम को तोड़ा जा रहा है कि हिंदुत्व गिरोह बग़ैर किसी रोक-टोक के इंसानी क़त्लख़ाने चलाते रहेंगे.

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वैसी स्थिति, जिसमें दो संगठित समूह एक दूसरे की हत्या करते हैं, गृहयुद्ध कहलाती है. वैसी स्थिति जब लोगों का एक संगठित समूह, धर्म, जाति या राजनीतिक मत के आधार पर पहचाने जाने वाले लोगों के समूह की हत्या करता है जाति संहार कहा जाता है.

अपूर्वानंद ने भारत में मौजूद दो विकल्पों की बात की है- जाति संहार या गृहयुद्ध. इसमें से कोई भी विकल्प एक पूरी पीढ़ी को जीवन के अर्थ या जीवन के तरीक़ों से महरूम कर देगा.

इसकी जगह उन्हें किसी तरह से ज़िंदा बचे रहने के लिए, मौत को एक दिन और टालने के लिए हर दिन ज़िंदा बचे रहने के रास्तों की खोज करने के लिए लड़ाई लड़नी होगी. यह रास्ता क्या होगा? भाग जाना, हथियार उठाना, छिपना, मार-काट करना, मरना!

शायद अभी-अभी इतनी अंधेरी रात नहीं हुई है कि यह विकल्प हमारे ऊपर क़ब्ज़ा कर ले. आख़िर, भारत की जनता दुनिया की सबसे बहादुर जनता है, जो हाल के कांग्रेस राज के दिनों में कई बार राष्ट्रपति के दरवाज़े तक जा चुकी है और संसद के काम को ठप कर चुकी है.

शायद वैसे क्षण, जिन्हें ‘सिविल सोसाइटी आंदोलन’ और ‘जनता’ कहा जाता है, उन्हीं साहसी अभिनेताओं के द्वारा फिर से दोहराए जा सकते हैं. लेकिन, हमें फिर से रहस्यमय ‘जनता’ के प्रकट होने के लिए हाथ पर हाथ धरे इंतज़ार नहीं करना चाहिए.

(दिव्या द्विवेदी और शाज मोहन दार्शनिक हैं.)

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